मेरी अम्मा का संदूक

[image error]Pexels.com" data-medium-file="https://kanikasworldhome.files.wordpr..." data-large-file="https://kanikasworldhome.files.wordpr..." src="https://kanikasworldhome.files.wordpr..." alt="" class="wp-image-1945" />Photo by ROMAN ODINTSOV on Pexels.com

पुरानी दिल्ली की तरह दिखने वाला एक क्षेत्र करोल बाग। करोल बाग जो अब तक मॉडर्न skyscrapers, floor system या society arrangements से अछूता था ।
जहां आज भी कई छोटे-बड़े घर भिन्न-भिन्न आकार और रंगों के साथ भींच भींचकर co- exist कर रहे थे।
घर जो एक फ्लोर नहीं बल्कि एक एहसास था। जहां की साथ साथ चिप की छतों को टॉप कर आप मिनटों में अपने दोस्तों के पास पहुंच सकते थे।
घर जहां आज भी अपने चौक और चबूतरे थे, जहां सैकड़ों परिवार और पड़ोसी मिलकर जन्माष्टमी का भोग बनाते।

और उन्हीं घरों में से एक इमारत, हमारा पुश्तैनी घर और मेरा नानका। उस घर से जाता हुआ एक सकरा सा जीना यानी सीढ़ी। छत जहां एक छोटा अमूमन स्टोर रूम कमरा जिसे हमारे यहां मायानी कहा जाता था।
और उसमें आने में रखा मेरी अम्मा का वो संदूक। अम्मा यानी हमारे हरियाणा में किसी भी बुजुर्ग महिला पर्यायवाची।

अक्सर हम बच्चों को ऊपर में आने में अकेले जाने और उद्गम मचाने ख्याल से ही उस मायानी के बारे में अजीबोगरीब कहानियां सुनाई जाती। जिनमें सबसे प्रचलित थी सामरी की कहानी ।

खैर, जहां वो म्यानी मेरे डर और भय का सबब था वही वहां रखा वह मेरी अम्मा का संदूक मेरे विस्मय का प्रतीक ।

ऐसा नहीं था कि हमें पता नहीं था उस संदूक में क्या है। साल 6 महीने , किसी ना किसी तीज त्योहार पर जब वह संदूक खुलता हम किसी पिछलगू की तरह चले जाते अम्मा का पकड़ कर डरती डराते उस कमरे में जिसके भूत बड़ों को कुछ ना कहते।

उस पक्षी की खुलते ही नेप्थलीन बॉल्स की भीनी खुशबू पूरी कमरे में भर जाती और मानो एकाएक मेरा भय भी काफूर हो जाता और उसकी जगह वही विस्मय ले लेता। ऐसा था वो मेरी अम्मा का संदूक।

अम्मा बड़े ध्यान से उसके ऊपर करीने से लगा एक सूती कपड़ा हटाते हैं और नीचे चमचमाती साड़ियों का भंडार, मानो जैसे समय के चक्र को भेदता हुआ आज भी ज्यों का त्यों।

हर तरह की साड़ियों का झुरमुट, रंग बिरंगी, तरह-तरह के साड़ियां । सूती, रेशमी, कोटा डोरिया, जॉर्जेट और भी अनेकों। मानव जैसे हर प्रकार के बनने वाली एक एक साड़ी खुद ब्रह्मा जी ने वहां रख दी हो और साथ में उतने ही खूबसूरत क्रोशिया के डिजाइन वाले ब्लाउज।

बिल साड़ियों के प्रति प्रेम सात आठ साल की उम्र से ही परवान चढ गया था। सच में आंखों के साथ मन में भी रंग भर दे, ऐसा था वो मेरी अम्मा का करिश्माई संदूक।

खैर,एक बार से हमारा कहां मन भरता। हमें तो बार-बार वही गोटे टिल्ले , बंधेज, और बनारसी कढ़ाई देखने का चस्का जो लग गया था सो हम हर दूसरे दिन अम्मा के दांत घिसते की ” अम्मा, एक बार ऊपर ले चलो” ” एक आखरी बार साड़ियां,दिखा दो फिर कभी नहीं बोलूंगी”

काम में लिप्त अम्मा का डांटना तब हमें उनका भाव खाना लगता था। समझ इतनी ही थी तब इसलिए थोड़ा और उन्हें चने के झाड़ पर चढ़ाने के लिए कहते ” अम्मा, तुम्हारे पास तो जमाने में भी इतनी फैंसी साड़ियां कैसे थे?”

यह बात कभी कभी अम्मा को खुशी देती पर कभी उन्हें उदासी भरे यादों के समंदर में धकेल देती और वह बताती कि कैसे उनके पिता जी उस कसबे की सबसे रईस व्यक्ति थे जिन्होंने बहुत नाजों में अम्मा को पाला। यहां तक की अम्मा के शादी का सारा कपड़ा और जेवर उस जमाने में भी मुंबई से आया था। पर शादी के बाद चूल्हे चौके में अम्मा को कभी वह कपड़ा या जेवर पहनने का समय ही नहीं लगा।

अम्मा की यह बातें, अब गहरी लगती हैं और हमारे समाज में औरतों के कभी ना बदलने वाले सच का आईना भी। उस समय कुछ खास समझ नहीं आती थी यह बातें, तब तो हमारे लिए व्यक्ति विशेष वो संदूक ही था।

दिन बदले, हफ्ते महीने साल बीते, ऊपर वाली मायानी में अकेले जाने का भय भी कम होता गया पर कुछ नहीं कम हुआ तो वह था मेरा जुनून मेरी अम्मा के संदूक के लिए।

अब अम्मा से विनती करने की जरूरत ना पड़ती। जब मनाता मैं खुद जाकर संदूक खोल आती। मन ही मन ख्याली पुलाव भी बना लेती कि मैं कौन सी साड़ी कब पहनूंगी और फिर उतने ही हक से अम्मा को कह देती है यह पीली वाली साड़ी अपनी बेटियों में से किसी को मत देना यह मैं होली पर पहनूंगी।

अम्मा खुश हो जाती है इस ख्याल से, पर मेरे आगे बात टालने के लिए बोलती ” अच्छा तब की तब देखेंगे।”

दिन महीने साल फिर बीते हाल ही में अम्मा ने सब को बुलाकर बोला ” मेरे बस की अब यह संभालना और नहीं, अपनी अपनी पसंद की साड़ियां चुन लो और मेरी जान छोड़ो। जैसे कि तय था, सबसे पहले मुझे चुनने का मौका मिला पर अजीब बात यह थी किस दिन का मुझे बरसों से इंतजार था उसकी उस दिन मुझे इतनी खुशी ना थी।

खुशी की जगह एक अजीब से एहसास में ले ली थी, एहसास जिसे शब्दों में बयान करना मुश्किल है। यूं कह लो जैसे इस संदूक का बंटवारा, अम्मा के इसके प्रति लगाव से अलगाव का सबब था। जैसे की सालों पुरानी मंशा एक समय वह अपनी सारी साड़ियां पहन पाएंगी अब मानो बढ़ती उम्र के परेशानियों के तले दम तोड़ चुकी थी। जैसे वह तय कर चुकी थी कि अब उन्हें अगले पड़ाव की तैयारी करनी है जिसका सफर परमात्मा के चिंतन से शुरू होकर उसी पर खत्म होता है।

जो भी हो, मेरे विस्मय का विषय वह संदूक अब नहीं था, वह बट चुका था और उसके साथ साथ मेरी अम्मा का किसी कोने में संभाल कर और छुपाकर रखा लड़कपन भी कहीं खो गया था।

किसी चीज को खो देने या पीछे छोड़ देने का एहसास उस दिन इतना प्रबल था कि वह उन पसंदीदा साड़ियों के मेरे नाम होने की खुशी से कहीं ज्यादा बड़ा था।

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Published on February 21, 2022 06:49
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