लॉकडाउन ढीला हो रहा है, पूजास्थलों में अब खैरियत मांगने का वक्त है
लॉकडाउन अब डाउन हो रहा है. कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं, पर लॉकडाउन से सरकार का मन भर गया है.
भैया, सरकार ने कोशिश की. सरकार ने कोशिश की कि ढाई महीने का लॉकडाउन लगाकर कोरोना के प्रसार को रोका जाए. अब नहीं रुका तो क्या किया जाए? मुझसे आप कहेंगे कि ठाकुर, नाम तुम्हारा मंजीत है, तो मंजीत बावा की तरह पेंटिग करके दिखाओ. हमने भी ट्राई किया था, पर
पेंटिंग पूरी हुई तो लगा किसी ने कैनवास पर पान खाकर पीक कर दिया हो. पर सचाई यह है कि मैंने कोशिश की थी. मेरी कोशिश पर किसी को कोई शक नहीं हो सकता. यह बात और है कि मुझे कूची पकड़नी नहीं आती थी. जैसे, मुझे यह भी नहीं पता था तैल रंग पानी में नहीं घुलते, उसी तरह शायद सरकार को लॉकडाउन जैसी हालत में व्यवस्था करना नहीं आता था.
टेस्ट होंगे या नहीं, कितने होंगे. किट कहां से आएगी. चीन वाली नहीं, जापान वाली, जर्मनी वाली. आइसीएमआर ने तो इतनी बार गाइडलाइन बदले कि जीएसटी की गाइडलाइनें याद आ गईं. कसम कलकत्ते की, आंखें गीली हो गई. हाय रे मेरा जीएसटी, कैसा है रे तू....लॉकडाउन में किधर फंस गया रे तू...
ट्रेन चलेगी, या नहीं चलेगी. किराया लिया जाएगा या नहीं लिया जाएगा. राज्य कितना देंगे. मजदूर कितना देंगे. देंगे कि नहीं देंगे...इतनी गलतफहमी तो सरकार में होनी ही चाहिए. भाई, सरकार है कोई ठट्ठा थोड़ी है.
दारू बेचकर राजस्व कमाने का आइडिया तो अद्भुत था. मतलब बेमिसाल. भाई आया, पर देर से आया. लोगबाग फालतूफंड में छाती पीटते रहे मजदूर-मजदूर. भाई मजदूर तो मजदूर है, कोई कनिका कपूर थोड़ी हैं कि पांच बार टेस्ट कराया जाए?
मजदूरों का क्या है, सरकार क्या करे. गए क्यों थे भाई? मुंबई, नासिक, सूरत क्यों गए थे? सरकार ने निमंत्रण पत्र भिजवाया था क्या? फिर गए क्यों... गए तो वहीं रहो. देशहित में काम करो, थोड़ा पैदल चलो. देश के लिए जान कुर्बान करने वालो. थोड़ा पैदल ही चलकर जान दो.
अच्छा ये बताइए, सरकार शुरू से रेल चला देती, बस चला देती, तो देश को ज्योति की कहानी कैसे पता चलती? कैसे पता लगता कि देश में पिता को ढोकर गांव तक 1200 किमी साइकिल चलाने वाली लड़की की दास्तान? लॉकडाउन की वजह से ही न.
यह लॉकडाउन नहीं था, यह राष्ट्रीय प्रतिभा खोज परीक्षा थी.
मैं सिर्फ केंद्र सरकार की तारीफ नहीं कर रहा, मेरी तारीफ के ज़द में राज्य सरकारें भी हैं, जो अपने पूरे राज्य में खून पसीना बहाने वाले कुछेक लाख मजदूरों को दो जून खाना खिलाने लायक नहीं है. अब नेता कोई अपनी अंटी से तो निकाल कर नहीं देगा न. क्यों देगा भला!
और सरकार को कलदार खर्च करने होंगे तो उसके लिए तमाम खर्चे हैं भाई. विधायकों के लिए स्कॉर्पियो खरीदना है, मंत्रियों के लिए हेलिकॉप्टर जुगाड़ना है, अपनी सरकार की उपलब्धियों को अखबार में भरना है. उस पैसे को दो टके के मजदूरों के लिए खर्चना कोई बुद्धिमानी थोड़ी है!
तो महाराज, 8 जून से खुलेंगे मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे-गिरजे. वहां जाकर टेकिए मत्था. अपने और अपने परिवार के लिए कुशलक्षेम की प्रार्थना कीजिए. सरकार को जो करना था कर लिया. जहान डूब चुका है, अब जान जाने की बारी है.
#लंठई
भैया, सरकार ने कोशिश की. सरकार ने कोशिश की कि ढाई महीने का लॉकडाउन लगाकर कोरोना के प्रसार को रोका जाए. अब नहीं रुका तो क्या किया जाए? मुझसे आप कहेंगे कि ठाकुर, नाम तुम्हारा मंजीत है, तो मंजीत बावा की तरह पेंटिग करके दिखाओ. हमने भी ट्राई किया था, पर
पेंटिंग पूरी हुई तो लगा किसी ने कैनवास पर पान खाकर पीक कर दिया हो. पर सचाई यह है कि मैंने कोशिश की थी. मेरी कोशिश पर किसी को कोई शक नहीं हो सकता. यह बात और है कि मुझे कूची पकड़नी नहीं आती थी. जैसे, मुझे यह भी नहीं पता था तैल रंग पानी में नहीं घुलते, उसी तरह शायद सरकार को लॉकडाउन जैसी हालत में व्यवस्था करना नहीं आता था.
टेस्ट होंगे या नहीं, कितने होंगे. किट कहां से आएगी. चीन वाली नहीं, जापान वाली, जर्मनी वाली. आइसीएमआर ने तो इतनी बार गाइडलाइन बदले कि जीएसटी की गाइडलाइनें याद आ गईं. कसम कलकत्ते की, आंखें गीली हो गई. हाय रे मेरा जीएसटी, कैसा है रे तू....लॉकडाउन में किधर फंस गया रे तू...
ट्रेन चलेगी, या नहीं चलेगी. किराया लिया जाएगा या नहीं लिया जाएगा. राज्य कितना देंगे. मजदूर कितना देंगे. देंगे कि नहीं देंगे...इतनी गलतफहमी तो सरकार में होनी ही चाहिए. भाई, सरकार है कोई ठट्ठा थोड़ी है.
दारू बेचकर राजस्व कमाने का आइडिया तो अद्भुत था. मतलब बेमिसाल. भाई आया, पर देर से आया. लोगबाग फालतूफंड में छाती पीटते रहे मजदूर-मजदूर. भाई मजदूर तो मजदूर है, कोई कनिका कपूर थोड़ी हैं कि पांच बार टेस्ट कराया जाए?
मजदूरों का क्या है, सरकार क्या करे. गए क्यों थे भाई? मुंबई, नासिक, सूरत क्यों गए थे? सरकार ने निमंत्रण पत्र भिजवाया था क्या? फिर गए क्यों... गए तो वहीं रहो. देशहित में काम करो, थोड़ा पैदल चलो. देश के लिए जान कुर्बान करने वालो. थोड़ा पैदल ही चलकर जान दो.
अच्छा ये बताइए, सरकार शुरू से रेल चला देती, बस चला देती, तो देश को ज्योति की कहानी कैसे पता चलती? कैसे पता लगता कि देश में पिता को ढोकर गांव तक 1200 किमी साइकिल चलाने वाली लड़की की दास्तान? लॉकडाउन की वजह से ही न.
यह लॉकडाउन नहीं था, यह राष्ट्रीय प्रतिभा खोज परीक्षा थी.
मैं सिर्फ केंद्र सरकार की तारीफ नहीं कर रहा, मेरी तारीफ के ज़द में राज्य सरकारें भी हैं, जो अपने पूरे राज्य में खून पसीना बहाने वाले कुछेक लाख मजदूरों को दो जून खाना खिलाने लायक नहीं है. अब नेता कोई अपनी अंटी से तो निकाल कर नहीं देगा न. क्यों देगा भला!
और सरकार को कलदार खर्च करने होंगे तो उसके लिए तमाम खर्चे हैं भाई. विधायकों के लिए स्कॉर्पियो खरीदना है, मंत्रियों के लिए हेलिकॉप्टर जुगाड़ना है, अपनी सरकार की उपलब्धियों को अखबार में भरना है. उस पैसे को दो टके के मजदूरों के लिए खर्चना कोई बुद्धिमानी थोड़ी है!
तो महाराज, 8 जून से खुलेंगे मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे-गिरजे. वहां जाकर टेकिए मत्था. अपने और अपने परिवार के लिए कुशलक्षेम की प्रार्थना कीजिए. सरकार को जो करना था कर लिया. जहान डूब चुका है, अब जान जाने की बारी है.
#लंठई
Published on May 30, 2020 09:15
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