ज़िन्दगी मानों किसी मुफ़लिस की क़बा हो जैसे
जिए जा रहे है किसी की मनकही बद्दुआ जैसे
इस एक उम्र में न जाने कितनी ज़िंदगानी क़ैद है
क्युकी मेरे कदम जब भी थरथराये मेरे वालिदा ने साँसे भरी है मुझमे
ये प्रीत कभी परायी हो ही न सकी क्युकी यहाँ अपना न सका मुझे कोई भी
जहा हाथ छोड़े अपनों ने वहा अपनों का पता चला
जहा साथ छोड़े अपनों ने वह टूटे सपनो का पता मिला
अब मुड़कर देखना ही किसे है
कौन है मेरा इंतज़ार कर रहा..
लौट के जाने की मूराद भी अब तो बाकी नहीं
इस और आते सारे दरवाज़े भी बंद कर डाले मैंने किसी के लौट आने के
अब इस जीवन रूपी मयखाने में बस छलकते है जाम बिखरी हुई नीली सियाही के..
वो कुछ मेरी सुन लेती है और कुछ लफ्ज़ मैं उनसे बुन लेती हु..
-प्रियंका
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Published on March 11, 2020 08:58