मीडिया के नए चलन पर बारीक निगाह का दस्तावेज है साकेत सहाय की किताब

आज के दौर में पत्रकारिता के छात्र ही नहीं, मीडिया को नजदीक से जानने की इच्छा रखने वाले हर शख्स के लिए इस किताब को पढ़ना एक नई दृष्टि हासिल करने जैसा अनुभव होगा. 
यह मानी हुई बात है कि संस्कृति निर्माण की प्रक्रिया में भाषा की जितनी भूमिका रही है उतनी ही संचार माध्यमों की भी. बल्कि संचार माध्यम ही अब यह तय करने लगे हैं कि किसी भाषा का कलेवर क्या होगा? संस्कृति को लेकर तमाम बहसों और विमर्शों के बाद भी इस शब्द पर बायां या दाहिना हिस्सा अपने तरह की जिद करता है. पर यह सच है कि किसी जगह की तहजीब समाज में गुंथी होती है.

आज के दौर में जब पत्रकारिता समाज के प्रति मनुष्य की बड़ी जिम्मेवारी का एक स्तंभ तो मानी जाती है पर उसके विवेक पर कई दफा सवाल भी खड़े किए जाने लगे हैं, तब इस भाषा, संस्कृति और पत्रकारिता के बीच के नाजुक रिश्ते पर नजर डालना बेहद महत्वपूर्ण लगने लगा है. कहीं संस्कृति के लिए पत्रकारिता तो कहीं पत्रकारिता के लिए संस्कृति कार्य करती है. इन दोनों के स्वरूप निर्धारण में भाषा अपनी तरह से महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है. भारत के संदर्भ में इसे बखूबी समझा जा सकता है. आज यदि गिरमिटिया मजदूरों ने अपनी सशक्त पहचान अपने गंतव्य देशों में स्थापित की है तो इसमें उनकी सांस्कृतिक और भाषायी अभिरक्षा की निहित शक्ति ही काम करती दिखती है.

वैसे आज के दौर में पत्रकारिता का विलक्षण इलेक्ट्रॉनिक रूप कई दफा संस्कृति, भाषा और पत्रकारिता के इस घनिष्ठ संबंध को तोड़ते नजर आते है. इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की व्यापक प्रगति और हर घर में उनकी पैठ का नतीजा यह हुआ है कि यह समाज के प्रत्येक पहलू को प्रभावित करने की स्थिति में है. टीवी के मनोरंजन और खबरों के आगे, साइबर या डिजिटल दुनिया में खबर, विज्ञापन, बहस-मुबाहिसे हर चीज हिंदुस्तानी सामाजिक परिवेश, अर्थव्यवस्था, संस्कृति, भाषा और यहां तक कि लोकतंत्र पर भी अपना असर डाल रहे हैं.

अपनी किताब ‘इलेक्ट्रॉनिक मीडिया : भाषिक संस्कार एवं संस्कृति’ में डॉ. साकेत सहाय इन्हीं कुछ यक्ष प्रश्नों से जूझते नजर आते हैं. उनकी इस किताब को कोलकाता के मानव प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. आज के दौर में पत्रकारिता के छात्र ही नहीं, मीडिया को नजदीक से जानने की इच्छा रखने वाले हर शख्स के लिए इस किताब को पढ़ना एक नई दृष्टि हासिल करने जैसा अनुभव होगा.

साकेत सहाय खुद प्रयोजनमूलक हिंदी के क्षेत्र में एक जाना-माना नाम हैं और वित्तीय, समकालिक और भाषायी विषयों पर लिखने के लिए जाने जाते हैं.

अपनी किताब की भूमिका में सहाय लिखते हैं, "मीडिया के नए चलन से एक नई संस्कृति का विकास हो रहा है. बाजार के दबाव में यह माध्यम जिस प्रकार से भाषा, साहित्य और संस्कृति की त्रिवेणी को मैला कर रहा है, वह हमारे लोकतंत्र व समाज के लिए अत्यंत घातक सिद्ध होगा."

सहाय की यह किताब भाषा, कला, बाजार, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य, सोशल मीडिया और समाज से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के नाभिनाल संबंध को गौर से देखती है और इस तथ्य को बखूबी रेखांकित करने का प्रयास करती है. इस किताब में सोशल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की दशा-दिशा, भाषा, संस्कार की वजह से विकसित हो रही एक नई संस्कृति का सूक्ष्म और बारीक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है.

किताबः इलेक्ट्रॉनिक मीडिया: भाषिक संस्कार एवं संस्कृति’
लेखकः डॉ. साकेत सहाय
प्रकाशकः मानव प्रकाशन, कोलकाता
***
 •  0 comments  •  flag
Share on Twitter
Published on October 18, 2019 00:20
No comments have been added yet.