क़स्बे का कष्ट


  क़स्बा गाँव के लार्वा और शहर की ख़ूबसूरत तितली के बीच का टेडपोल है। १५ अगस्त १९४७ को चाचा नेहरू ने रोबदार भाषण के साथ स्वतंत्रता की घोषणा की। जैसा कि श्रीलाल शुक्ल ने लिखा है कि रोबदार वार्ता के लिए अंग्रेज़ी अनिवार्य है, चाचाजी ने अँग्रेजी में भाषण दिया। राष्ट्र बहुत तो नहीं समझा पर तीव्र गति से चलते हुए चाचा जी के पीछे चल पड़ा। 
शहर वाले कुछ समझे, महानगर बने, गाँव लँगड़ाते हुए चले, कुछ क़स्बा बन पाए। चचा चीते की चाल से चले, गाँव कछुए की। पाँच साल में एक बार चचा राग दरबारी के रंगनाथ की तरह पलट के पूछते -‘लंगड़ हो क्या?’और गाँव भी ठिठककर कहता - ‘हाँ बापू, लँगड ही हूँ।’ अढाई दशक बाद चाचा की पुत्री आईं। उन्होंने लंगड को ही राष्ट्र निर्माण में बाधा जाना। उनके बेटे ने सिर्फ़ आत्मबल पर कार बनाई, और लड़खड़ाते गाँव को सनीचर की तरह कहा- ‘लँगड़वा जा रहा है साला।’
शहरों को गाँवों से जोड़ती सड़के सिकुड़ती गईं, और गाँव आधे रास्ते में रूककर क़स्बा हो गए। यह भी रहा कुल बीस बरस, फिर चचा के नाती लाए कम्प्यूटर और तोप। सड़क और क़स्बा वहीं ठिठके खड़े रहे, दूर से शहरों की अट्टालिकाओं और राज-प्रासादों को तकते हुए।नतीजा यह हुआ कि क़स्बे बीच में रह गए, त्रिशँकु की भाँति। 
क़स्बे का कष्ट है कि वहाँ कुछ नहीं होता। शहरों में बहुत कुछ होता है, जेएनयू वाले धरना देते हैं, पार्लियामेंट पर हमला होता है, बम ब्लास्ट होते हैं। चर्चा का विषय बना रहता है। विषय ना भी हो तो पत्रकार जीवन में हलचल बनाए रहते हैं। गाँव में भी कुछ ना कुछ होता रहता है। और कुछ नहीं तो छोटे पहलवान पहलवान की अपने बाप कुसहरप्रसाद से लट्ठमलट्ठा पर चर्चा हो जाती है। 

क़स्बे के पास दोनों ही अवसर नहीं हैं। न वो तेल की क़ीमत और मुद्रास्फीति पर मन लगा सकते हैं, ना ही कुसहरप्रसाद की स्थिति पर। कुसहरप्रसाद वहाँ अकेले हैं, और छोटे पहलवान शहर जा कर क्लब में बाऊँसर हो गए हैं। वान्यप्रस्थ का वन क़स्बे में उतर आया है। इतिहास धुँधला गया है, भविष्य भ्रामक है। क़स्बा अपनी जगह रूका हुआ है। कोई किसी को पहचानता  है नहीं। वैद्यजी आज की राजनीति के हिसाब से साफ्ट हो गए हैं सो राजनीति छोड़ दिए हैं। कालेज की प्रिंसिपल साहब वाली राजनीति तो उन स्कूली बच्चों के आगे फ़ेल है, जो मुख्यमंत्री से गणतंत्र दिवस पर हिंदू मुस्लिम, दलित अगडा सीख लेते हैं। दूरबीनसिंह को टें बोले ज़माना हो गया। प्रधानमंत्री साँसदो से कहते हैं - सज़ा दें सिला दें, बना दें मिटा दें - की तर्ज़ पर, कि क़स्बों को आदर्श ग्राम बनावें या स्मार्ट सिटी। साँसद प्रधानमंत्री की योजनाओं का नाम धरने में व्यस्त हैं। और चचा के जो नाती थे, उनके सुपुत्र वैसी ही रोबदार अँग्रेजी में पलट कर क़स्बों से पूछते हैं- लँगड हो का? क़स्बा अपनी त्रिशंकु अवस्था पर कराह कर कहता है- लँगड ही हैं! और फिर परनाती मुस्कुरा कर, डिम्पलों के बीच, क़स्बे से आए प्रधानमंत्री को देखते हैं और अपने चाचा वाली ख़ानदानी हिक़ारत से कहते है- लँगडवा है साला!
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Published on January 25, 2018 19:21
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