नवम्बर में छुट्टी की दोपहर

उनके बालों में चांदी की तारें थी, लंबी सी नाक पर एक हल्का सा तिल, निचला होंठ मानो, खुद ही बहार झांकता हो, और बड़ी बड़ी भूरी आँखे।
चहरे पर कुछ दाग से थे, उनको एक टक लगा कर देखूं तो अटपटा से जाते थे, चहरे का रंग कुछ ज्यादा ही सांवला था और उनके सीने से मुझे कुछ ज्यादा ही प्यार था..
अंदर घुस के जैसे ही सोती, ठण्ड मानो गायब सी हो जाती, और मैं ऐसे उनकी बाहों में फिट हो जाती जैसे उन्ही के लिए बनी हूँ।
बिस्तर पर लेटे नहीं की भारी साँसे और खर्राटे शुरू, मुझे बाहों में यूँ कस लेते हैं की जरा सी तेज़ सांस लूँ तो नींद टूट जाए, सोच कर,मैं हिलती भी न थी..
मतलब सोचो, इंसान सोएगा कैसे गर इतनी ज़ोर खर्राटे कोई ले तो? फिर ज़रा सी करवट ली और भींच लिया और माथा, आँखे, नाक, होंठ, गाल चूम के फिर सो गए!
कभी कभी लगता है जैसे मैं कोई टेडी बेयर हूँ, और वो कोई पापा की लाड़ली प्रिंसेस, छोड़ते ही नहीं..एक काँधे पर गाल लगाए और सीने पर हाथ रखे 20 मिनट हो गए थे बाबा राम देव के "आक्वार्ड आसान" की दम घोंटू मुद्रा में लेटे हुए, कान गर्म हो चुका था और उनका कन्धा भीग चुका था, बड़ी मुश्किल से मैंने अपनी टांग निकाली, तो वो हिल गए और नींद टूट गई।क्या हुआ?
कुछ नही गर्मी लग रही है।
अच्छा, पानी दूँ, पंखा चलाऊँ, कुछ ठंडा पिओगी, अब ठीक है?
जी मैं ठीक हूँ
दो सेकंड रुक कर, पसीने में चिपकी मेरी लटों को कान के पीछे खोंस्ते हुए कबीर बोले, "गजब खूबसूरत हो यार, कौन सी चक्की का आटा खाती हो?"
मैंने मुंह पिचका के हाथ पर मारा, धत्त!
और उन्होंने हाथ पकड़ कर फिर खींच लिया..छुट्टी की दोपहर कुछ ऐसी ही होती है..
 •  0 comments  •  flag
Share on Twitter
Published on November 26, 2017 08:02
No comments have been added yet.