डॉ पद्मा शर्मा की समीक्षा

जीवन की विभीषिकाओं में उलझे पात्र: इन्तजार अच्छे दिनों का।रेत का हो फर्श और हों लफ्ज मिट्टी के
पत्ते गिरें शाख से पत्तों के आँगन में
या कोई बिछुड़ा हुआ एक सीप का मोती
आके गिरता हो किसी पानी के दर्पण में
लोग कहते हैं, मैंने सुना है
इस तरह बनते हैं अफ़साने ज़माने मेंवर्तमान समय में कहानी, किस्सा या गल्प में उद्वेलनशील भावुकता, गहन आस्था और कोरी कल्पना नहीं होती वरन् वह यथार्थ की कसौटी पर अपने स्वरूप को निर्धारित करती है। वर्तमान घटक मानव के मस्तिष्क में प्रवेश कर सामाजिक विद्रूपता, तज्जन्य विषमताओं और खंडित आकांक्षाओं का चित्रण करने को उद्यत हो जाते हैं। सिर्री अबीर आनंद का ऐसा ही कहानी संग्रह है जिसमें ग्यारह कहानियाँ सामाजिक यथार्थ और जीवन की वास्तविक घटनाओं को अभिव्यक्त करती हैं। आर्थिक समृद्धि के प्रयत्न, भौतिक संसाधन हेतु प्रयास और प्रतिस्पर्धात्मक अकुलाहट ने मानव मन को मानसिक बीमारियों से ग्रसित कर लिया है।
औद्योगिक संस्थानों में काम करता व्यक्ति मशीनी जीवन जीने को बाध्य है। संवेदनाएँ, भावनाएँ, लालसा, इच्छा सब समाप्त हो चुकी हैं और दमघोंटू वातावरण घर, दफ्तर ही नहीं मानवीय रक्त शिराओं में भी व्याप्त हो चुका है। मानवीय संबंध की आर्द्रता भी मशीनी ताप सोख लेती है। ‘‘रिंगटोन’’ प्रतीक है जीवन की दिशा का। आज मानवीय जीवन रिंगटोन से बँधा हुआ है। ध्वनि पर मन की , जीवन की गति और मन के विचार आधारित होते हैं। मंदिर की ध्वनि सकारात्मक विचार उद्वेलित करती है जबकि रिंगटोन की ध्वनि नकारात्मकता का प्रतीक थी जिसमें ‘‘मै परेशान, परेशान, परेशाँ शब्द की आवृत्ति ‘मानस’ के जीवन की परेशानी का सबब बन गयी थी। रिंगटोन ने टायर का, पत्नी का, साबंत का, यहाँ तक कि जापानियों के मन में भी विपरीत स्थिति को निर्मित किया था जिससे मानस की नौकरी भी चली गयी। कहानी के शीर्षक के साथ-साथ पात्रों के नाम भी प्रतीकात्मक हैं। मानस मन का, बेहरा जिस पर कोई भी ध्वनि बेअसर है तथा सावंत सामंतशाही का प्रतीक है, जो अपने से छोटे ओहदे वालों का अपमान करते हैं। ऋण जीवन में वैभव और साजो सामान की पूर्ति तो कर देता है पर ऋण की अपनी अदायगी में जीवन के कई महत्वपूर्ण घटक दाँव पर लग जाते हैं। वर्तमान परिवेश में अति उच्च महत्वाकांक्षाओं के कारण पुत्र-पुत्रवधू माँ-बाप को अपने साथ नहीं रख रहे। वृद्ध आश्रमों की संख्या बढ़ती जा रही हैं ऐसे में ‘चिता’ कहानी नयी पीढ़ी को नया रास्ता दिखाते हुए अपने उद्देश्य को प्राप्त होती है।
‘‘मैंने कभी अपने दादा-दादी को नहीं देखा, क्योंकि मेरा सौभाग्य ही नहीं था। मेरे पैदा होने के पहले वे गुजर चुके थे। पर आपके रहते हुए मेरी बेटी दादा के दुलार से वंचित है ये दुर्भाग्य तो उस पर थोपा जा रहा है पापा ... पता नहीं ये खयाल कितना सही है ? पर मुझे लगता है कि जब बेटा बड़ा हो जाए कमाने लगे और पिता रिटायर हो जाए तो भूमिकाएँ बदल लेनी चाहिए। बूढ़े पिता को बेटा बन जाना चाहिए और बेटे को पिता। ’’ 106
कानून, पुलिस, अदालत सब भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हैं। असली गुनहगार दोषी नहीं है बल्कि सीधे साधे गवाह हैं। हकीकत में तो सजा गवाह काट रहा है और दोषी अपने आराम की जिन्दगी बसर कर रहा है। बड़े बड़े पूँजीपति और नामचीनी हस्तियाँ हिट एंड रन करके भाग जाती हैं। उन पर चलने वाले केस कभी खत्म नहीं होते। गवाहों को या तो खरीद लिया जाता है या उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाता है। जाधव और झम्मन के साथ यही हुआ। ... किसी ताकतवर पार्टी को किसी गरीब आदमी के सामने दोषी साबित करना ये ऐसे मामले होते हैं जिनमें फैसला कभी आता ही नहीं। सच्ची बात थी। करोड़ों अरबों रुपये का कारोबार देने वाला न्यायतंत्र अभी भी इस दुविधा में फंसा है कि अगर न्याय जल्दी होने लगा तो कारोबार कहीं कम न हो जाए। 216
गर्माहट रिश्तों में होती है पर जमीन जायदाद के बँटवारे रिश्तों और संबंधों को निगल जाते हैं। इससे भी अधिक वे अपने भाइयों की जान भी ले सकते हैं। सब कुछ जानते समझते भी सुयोग ने अपने ताऊ जो कि उसके पिता के हत्यारे थे उनकी सेवा सुश्रुषा की। उनके बेटों ने उन्हें घर से निकाल दिया। सुयोग ने ही उनको मुखाग्नि दी। वह ताऊ जी को सजा देना नहीं चाहता था जिससे उन्हें मुक्ति मिले। जीवन में कर्मों का खाता बैंक अकाउंट के समान है। स्वर्ग और नरक यहीं संसार में है। सबको अपनी करनी का दण्ड भुगतना होता है। ‘‘कुछ ऐसे भी लोग होते होंगे जो करते तो होंगे पर भरते नहीं होंगे। यह एक आॅटोमेटिक प्रक्रिया है, जैसे बैंक का डेबिट और क्रेडिट चलता है, उसी तरह ? कभी तो ऐसा होता होगा कि आदमी ने पैसा जमा नहीं किया पर निकाल लिया या फिर आदमी ने पैसा जमा किया पर निकाल नहीं सका।’’ 56गुटखा तेंदुलकर कहानी अवसाद और सिजोफ्रेनिया नामक बीमारी से पीड़ित दो दोस्तों की कहानी है। जो अपने जाॅब की असुरक्षा से मानसिक दबाव से ग्रसित थे।‘वीडियो’ दो दोस्तों की कहानी है।नानी सामान्य कहानी है। फेसबुक में बुड्ढे बुढ़िया की कहानी है जिनकी पहले शादी हो रही थी पर हो न सकी। इस कहानी में कवितायें कहानी को सुदृढ़ कलेवर प्रदान करने में सहगामी हुयी हैं। नारी हठ कई जीवन और संबंधों की बलि चढ़ा देता है। संतोष ज्या़दा जरूरी है, सहारे से भी कहीं ज्यादा। सहारा हो पर संतोष न हो तो फिर क्या फायदा? (मैत्रेयी)
‘‘बैंक आदमी की जरूरतें पूरी करने के लिए नहीं , बल्कि आदमी बैंक की जरूरतें पूरी करने के लिए बना है। लोन आदमी के लिए नहीं बल्कि आदमी लोन लेने और चुकाने के लिए बना है। हर एक ग्राहक इस विशाल बैंकिंग बाजार का एक टारगेट है। पृ 9-10 ‘‘मानस का जीवनरूपी जार फिलहाल तीन बड़े पत्थरों से भरा हुआ था। उसकी नौकरी, उसका घर और बैंक का लोन।’’ पृ 11
ग्लोबलाइजेशन, विकासात्मक नीति और प्रतिस्पर्धात्मक जीवन चर्या ने एक ऐसे अर्थयुक्त समाज को निर्मित किया है जिसके सामने नैतिकता, जीवन मूल्य, सत्य और मानवीय संवेदनाएँ ध्वस्त हो गयीं। सपनों को ऋण की सीढ़ियाँ चढ़कर किश्तों की दहलीज पर माथा टेकना पड़ता है। ‘‘सिर्री’’ वह व्यक्ति है जो नियमों की बात करता है, जो अपने जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति ईमानदारी से करना चाहता है। सिर्री वह होता है जो वर्तमान परिवेश की विभिन्न प्रक्रियाओं और जीवन शैली से अनुभव लेकर उनके साथ नही चलता, बल्कि नियमों और सिद्धांतो के आधार पर अपने जीवन को अग्रसर करना चाहता है। महानगरों में निवासरत मँहगाई से जूझते हुए सिमटी तनख्वाह में जीवन की इच्छाओं की नोच-खसोट होने लगती है। आजकल एक ही शहर में सैकड़ों की संख्या में बैंक खुल गये हैं। ऋण देने के अपने लक्ष्य को किसी भी कीतम पर पूरा करना चाहते हैं। एक बार ग्राहक को फँसाने के लिए कई तरह के प्रलोभन, व्यावहारिक सौम्यता और सहजता का मुखौटा लगाते हैं।ग्राहक के चंगुल में फंसते ही उनका असली रूप बाहर आ जाता है। इस दुनिया में घर का सपना देखना गुनाह नहीं बल्कि ऐसा गुनाह है जिसकी कोई माफी नहीं। सुनील ने घर खरीदने के लिए बैंक से ऋण लिया। बैंक द्वारा गलत तरीके से ब्याज की राशि काटे जाने का विरोध सुनील ने किया और इसी विरोध के कारण बैंक के अफसरों ने उसे नाकों चने चबबा दिये। ‘‘बिल्डर और बैंक का सारा कारोबार ग्राहकों के दम पर होता है, पर न बिल्डर को ग्राहक पर भरोसा है और न बैंक को। कितने ही बड़े कारपोरेट बैंकों को चूना लगाकर ऐश की जिन्दगी बसर कर रहे हैं और कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ पा रहा है। .... एक मध्यवर्गीय ग्राहक को गिरवी लोन के लिए भी एक पूरी जेहाद लड़नी पड़ रही है। ये है नए दौर की चकाचौंध बैंकिंग, ‘‘द भोकाल बैंकिंग’’। नयी अर्थ व्यवस्था की नग्न तस्वीर।’’ पृ 114-115कलापक्ष
कहानियों में शिल्प कौशल ने कहानियों को उत्कृष्टता के कई सोपान प्रदान किये हैं। कहानियों की भाषा देश, काल और पात्रानुसार है। अँग्रेजी, संस्कृतनिष्ठ, उर्दू शब्दावली के साथ- साथ देशज शब्द भी कहानियों की प्रासंगिकता बढ़ाने में सक्षम हैं। कई वाक्य स्मृति में बस जाते हैं- ‘‘उसकी धड़कन एक तेज रफ्तार अनियंत्रित मोटर साइकिल की तरह चल रही थी....। .....माथे पर पड़ी ढीली चमड़ी की सलवटों में पसीना अपना आशियाना ढूँढ रहा था।"जिन्दगी संबंधी कुछ विचार कहानी में लेखक ने दिए हैं।
एक चिता है, जिस पर लेटी हुई है जिन्दगी। न लकड़ियों को आग मिलती है न रूह को सुकून। (पृ 88)
लोग सारी जिन्दगी दौलत कमाने में गुजार देते हैं, पर उस दौलत से क्या कमायें, ये नहीं जान पाते। (पृ 92)
जिन्दगी के सवालो के जबाव भौतिकी और गणित की तरह आसान क्यों नहीं होते? कोई कोचिंग, कोई ट्यूशन जिन्दगी की परीक्षा को आसान क्यों नहीं कर देता? पृ 103
तूफान में एक कमजोर पेड़ दूसरे मजबूत पेड़ का सहारा लेकर खड़ा रह पाया हो ? हर पेड़ को अपनी जड़ें खुद ही मजबूत करनी पड़ती हैं, जीवन के तूफान से जूझने के लिए। पृ 200
संवाद छोटे-छोटे भावानुकूल हैं जो गहन अर्थवत्ता के साथ कहानी के मंतव्य को स्पष्ट करने में सहायक हुए हैं। मैत्रेयी कुंडली में दोष के बावजूद हठपूर्वक हेमंत से विवाह कर लेती है। उसकी मृत्यु उपरांत उसे ज्ञात होता है कि वह हेमंत के बच्चे की माँ बनने वाली है पर वह उस बच्चे से छुटकारा पाना चाहती है। मैत्रेयी और उसकी माँ गार्गी का वार्तालाप कहानी को नयी दिशा देता है।
‘‘ पर माँ बनने के बाद मुझसे कौन शादी करेगा ?’’
‘‘मतलब क्या है ?’’
‘‘ मैं ये बच्चा नहीं रख सकती।’’
‘‘चाय गरम है मैत्रेयी। आहिस्ता-आहिस्ता पी, वरना जीभ जल जाएगी।’’
‘‘चाय तो खत्म हो गयी , मम्मी। कप तो कब का खाली हो गया।’’ पृ 201जीवन की विभीषिकाओं से जूझते हुए कहानी के पात्र बिडम्बनाओं के चक्रव्यूह में फँस जाते हैं। आधुनिक सुविधाओं हेतु प्रयास और परिणाम दर्दनाक और वीभत्स हैं। वैचारिक मननशीलता का कहानियों में वर्चस्व है। अन्तर्द्वन्द्व कहानी को मजबूती प्रदान कर उसके विकास में सहायक होता है। अबीर आनंद ने वातावरण के कई दृश्य उपस्थित किये हैं। ‘‘अँधेरे के विरूद्ध सूरज के बहादुर लमहों का संघर्ष खत्म हो चुका था। रात के दरवाजे से सांकल खुल चुकी थी और उजाले के भीने कुहासे ने एक सुबह की देहरी पर कदम रख दिया था। पौ फट चुकी थी। पृ1
सबसे महत्वपुर्ण बात संग्रह में मुझे यह लगी कि कहानीकार ने विराम चिन्हों को उचित प्रयोग किया है। वर्तमान लेखक और पत्रकारिता भी इसको महत्व नहीं दे रहे जबकि यह रचना की गुणवत्ता के लिए अति आवश्यक है। एक बात और कि 225 पृष्ठों से पूर्ण संग्रह की कीमत भी 225/-रुपये है। लेखक ने कहानियों पर होमवर्क करके कथानक, स्थान और क्रियाशीलता को बाखूबी अपनी कहानियों में चित्रित किया है। एयरपोर्ट और टायर कंपनी का चित्रण यथार्थ से पूर्ण है। लेखक के पास विचारों की भरपूर श्रृंखला है। जो कहानियों में कई स्थानों पर आ गयी है जिससे कहानियाँ अपने मूल कथ्य से भटक गयी हैं। लेखक के मन में कई सवाल हैं जो संग्रह के अंतिम कवर पेज पर अंकित हैं। जीवन की विभीषिकाओं में उलझे मानव की व्यथा गाथा कहने के साथ-साथ लेखक का उद्देश्य है कि उनका निराकरण किस भाँति हो। कहानी पढ़ने के उपरांत भी उसके पात्र न्याय मांगते पाठक के साथ बने रहते हैं, यही संग्रह की सफलता है।प्रथम संग्रह लेखक को अपनी पहचान दिलाने में सक्षम है।
Published on September 05, 2017 05:39
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