Kush Srivastava's Blog, page 12

January 1, 2020

ऐ ज़िन्दगी-नयी सुबह का आग़ाज़

वैसे तो हर नयी सुबह की पहली किरण एक नया एहसास ले ही आती है,


इस नए साल की सुबह कुछ हसीन ख़याल और इत्तेफ़ाक़ ज़रूर ले आयी,


आखिर पूरे डिकेड का सवाल जो था,


कभी कभी ज़िन्दगी का रुख बदलने के लिए एक लम्हा ही काफी होता है,


वजह कुछ भी हो सकती है इस परिवर्तन की,


चाहे वो नज़रों का नज़रों से टकरा जाना हो,


या


उस एक मुस्कराहट के लिए दुनिया के सफर पे निकल जाना,


चाहे उस रात का दिल बहल जाना हो,


या


उस छवि का दिल में बस जाना,


चाहे उन कापते हुए हांथों का थाम लेने की चाह हो,


या


किसी के लिए कुछ कर जाने का जज़्बा,


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हर वो लम्हा एक यादो की कड़ी पिरो ही देता है,


कभी भागते थे जिस याद से,


आज उसी को सिमटा के कहीं बैठ जाते हैं,


यही कुछ यादें ही तो है जो ज़िन्दगी को ज़िन्दगी का दर्ज़ा देती है,


कभी पूछेंगे इस ज़िन्दगी से सवाल,


ऐ ज़िन्दगी तू कहाँ थी कभी जो अभी अभी यहाँ है,


शायद डूब जाना ही तो है,


या


डूब के खुद को पा लेने का नाम-ये ज़िन्दगी


Source for the Image: https://indianexpress.com/article/entertainment/bollywood/dear-zindagi-deleted-scenes-shah-rukh-khan-narrates-a-beautiful-story-to-alia-bhatt-which-will-leave-you-inspired-watch-video-4510458/

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Published on January 01, 2020 03:02

December 15, 2019

गाँधी और बंदर

बंदरों का हम सबकी ज़िन्दगी में बहुत अहम् रोल रहा है.


चाहे वो हमारा एवोल्यूशन ही क्यों ना हो


या फिर


बुराई को ना देखने का, ना सुनने का और ना बोलने की हिदायत ही क्यों ना हो.


कहते हैं अच्छी चीज़ों पे फोकस करो तो ज़िन्दगी हसीन लगने लगती है,


हर इंसान के अच्छे पहलू पे फोकस करने को डेल कार्नेगी भी लिख गए है.


पर जैसे ही इन किताबों का हैंगओवर पूरा होता है,


और


गांधीजी कहीं किसी कहानी में खो जाते हैं,


फिर वही हम और हमारी क्रिटिकल शक्की नजरिया,


ये ऐसा है,


ये वैसा है,


इसने मुझे ये कैसे कहा,


उसने मुझे ऐसा कह दिया,


मुझे इसने इज़्ज़त नहीं नवाज़ी,


उसने मुझे गरिया दिया,


शिकायती टट्टू बनने में हमें बिलकुल देर नहीं लगती,


आज सुबह जब मैं कैब में आ रहा था,


तब ट्रैफिक में चलते हुए लोगों की आपा धापी देख के मैं घबरा गया,


पहले गुस्सा आया दुनिया के इस रवैये पे,


फिर दूसरे पल मैंने एक चिंता का मखौटा पहन लिया,


चिंता के बाद कुछ ना कर पाने की हताशे में मैं डूबने ही वाला था,


तभी


गांधीजी के तीन बंदरों की छवि मेरे समक्ष आ गयी और मैं हस पड़ा,


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इससे मैं टेंशन मुक्त तो हो गया


पर


क्या यही एक रास्ता है इन सब से पीछा छुड़ाने का,


ये विचार करने लगा,


आपको क्या लगता है,


इस बदलते समय में जिस तरफ हमारा देश और दुनिया अग्रसर है,


चाहे वो हो रहे रेप या हत्याएं हो,


चाहे वो सड़क पे बढ़ता हुआ गुस्सा और अग्रेशन हो,


चाहे वो पैसे के पीछे भागने की होड़ हो,


चाहे वो वैल्यू सिस्टम का समाप्त होना हो,


चाहे वो माँ बाप की सेवा करने से हाथ धो लेना हो,


चाहे वो इस वातावरण को तहस नहस कर देने का हमारा व्यवहार हो,


या


चाहे सिर्फ अपने बारे में सोचने की आदत हो,


क्या सिर्फ अच्छे पहलू को देखना ही इसका एक मात्र उत्तर है,


और अगर नहीं,


तो क्या हम सबको अपने अपने लेवल पे एफर्ट करने की ज़रुरत नहीं है,


इस ज़िम्मेदारी को हम सबको समझने की बहुत ज़रुरत है,


जिससे एक अच्छे सोसाइटी का निर्माण किया जा सके,


इसके लिए हमें गांधीजी के उन तीन बंदरों को इगनोर करना ही क्यों ना पड़े,


सवाल बस इतना सा है दोस्तों,


क्या हम खुद से ऊपर उठ कर


इस दुनिया में जी रहे और लोगों जीव जंतुओं के बारे में सोच कर


एक सही सिस्टम के निर्माण का निर्णय लेने को तैयार है या नहीं?


Source for the Image: https://navbharattimes.indiatimes.com/other/sunday-nbt/future-stars/three-monkeys-of-gandhi/articleshow/29820353.cms

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Published on December 15, 2019 22:22

गाँधी और बंदर

बंदरों का हम सबकी ज़िन्दगी में बहुत अहम् रोल रहा है.


चाहे वो हमारा एवोल्यूशन ही क्यों ना हो


या फिर


बुराई को ना देखने का, ना सुनने का और ना बोलने की हिदायत ही क्यों ना हो.


कहते हैं अच्छी चीज़ों पे फोकस करो तो ज़िन्दगी हसीन लगने लगती है,


हर इंसान के अच्छे पहलू पे फोकस करने को डेल कार्नेगी भी लिख गए है.


पर जैसे ही इन किताबों का हैंगओवर पूरा होता है,


और


गांधीजी कहीं किसी कहानी में खो जाते हैं,


फिर वही हम और हमारी क्रिटिकल शक्की नजरिया,


ये ऐसा है,


ये वैसा है,


इसने मुझे ये कैसे कहा,


उसने मुझे ऐसा कह दिया,


मुझे इसने इज़्ज़त नहीं नवाज़ी,


उसने मुझे गरिया दिया,


शिकायती टट्टू बनने में हमें बिलकुल देर नहीं लगती,


आज सुबह जब मैं कैब में आ रहा था,


तब ट्रैफिक में चलते हुए लोगों की आपा धापी देख के मैं घबरा गया,


पहले गुस्सा आया दुनिया के इस रवैये पे,


फिर दूसरे पल मैंने एक चिंता का मखौटा पहन लिया,


चिंता के बाद कुछ ना कर पाने की हताशे में मैं डूबने ही वाला था,


तभी


गांधीजी के तीन बंदरों की छवि मेरे समक्ष आ गयी और मैं हस पड़ा,


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इससे मैं टेंशन मुक्त तो हो गया


पर


क्या यही एक रास्ता है इन सब से पीछा छुड़ाने का,


ये विचार करने लगा,


आपको क्या लगता है,


इस बदलते समय में जिस तरफ हमारा देश और दुनिया अग्रसर है,


चाहे वो हो रहे रेप या हत्याएं हो,


चाहे वो सड़क पे बढ़ता हुआ गुस्सा और अग्रेशन हो,


चाहे वो पैसे के पीछे भागने की होड़ हो,


चाहे वो वैल्यू सिस्टम का समाप्त होना हो,


चाहे वो माँ बाप की सेवा करने से हाथ धो लेना हो,


चाहे वो इस वातावरण को तहस नहस कर देने का हमारा व्यवहार हो,


या


चाहे सिर्फ अपने बारे में सोचने की आदत हो,


क्या सिर्फ अच्छे पहलू को देखना ही इसका एक मात्र उत्तर है,


और अगर नहीं,


तो क्या हम सबको अपने अपने लेवल पे एफर्ट करने की ज़रुरत नहीं है,


इस ज़िम्मेदारी को हम सबको समझने की बहुत ज़रुरत है,


जिससे एक अच्छे सोसाइटी का निर्माण किया जा सके,


इसके लिए हमें गांधीजी के उन तीन बंदरों को इगनोर करना ही क्यों ना पड़े,


सवाल बस इतना सा है दोस्तों,


क्या हम खुद से ऊपर उठ कर


इस दुनिया में जी रहे और लोगों जीव जंतुओं के बारे में सोच कर


एक सही सिस्टम के निर्माण का निर्णय लेने को तैयार है या नहीं?


Source for the Image: https://navbharattimes.indiatimes.com/other/sunday-nbt/future-stars/three-monkeys-of-gandhi/articleshow/29820353.cms

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Published on December 15, 2019 22:22

December 11, 2019

खुद पे गुमान

ये बात सही है कि गुमान को घमंड में तब्दील होने में बहुत देर नहीं लगती.


मगर क्या ये इस देश में पैदा हो रहे और पल रहे हर बच्चे के जीवन का आधार नहीं होना चाहिए?


इसपे विचार करने की आवश्यकता है.


क्या कभी आपने सोचा है कि एक हिन्दुस्तानी आदमी जब विदेश जाता है, तो उसे उस तरह से इज़्ज़त नहीं मिलती जैसे किसी और देश जैसे कि जापान या यूरोप के वासी को मिलती है.


इतनी प्राचीन संस्कृति के बाद भी क्यों एक हिन्दुस्तानी को एक तरीके से नापा और तोला जाता है.


कुछ लोगों का मानना है कि हर इंसान को बिना किसी भेद भाव के देखा जाना चाहिए.


जैसी उसकी हरकते हो वैसे उसके साथ पेश आना चाहिए.


लेकिन एक आसान तरीका ये है कि उसको किसी ग्रुप में डाल, उसके बारे में राय कायम करी जाये, भले ही वो राय सही हो या ना हो.


लेकिन किसके पास इतना समय है, कि वो इसपे विचार करने का कष्ट करे.


परिणाम स्वरुप ये ऐसे होते हैं, वो ऐसे होते हैं, की प्रवलित राय बनने में देर नहीं लगती.


ये हमारे देश के अंदर भी बहुत होता है,


जहाँ


एक नार्थ इंडियन और साउथ इंडियन को अलग तरह से मापा जाता है.


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क्या ये एक प्रकार से सूचना और ज्ञान में अभाव नहीं है?


और ऐसा अगर है तो क्यों है?


हमारा इतिहास क्या बिना किसी भेद भाव के रचा गया है?


क्या पुरातत्व शास्त्र (archaeology) का उपयोग बिना किसी पक्षपात के किया गया है?


अगर नहीं, तो क्या ये गवर्नमेंट या हर नागरिक की ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि वो इसको बदले?


इसको एक छोटी सी बात मान लेना क्या हमारे आने वाले जेनेरशन के लिए अच्छी बात होगी?


जहाँ आपको विदेश में एक प्रकार का ट्रीटमेंट मिलेगा.


अगर नहीं तो हर किसी को एक भारतीय नैरेटिव के बारे में बात करनी होगी जो सच है और उसके आविष्कारों और उपयोगिताओं का व्याख्यान करे.


अगर हम इन बातों को अपने बच्चों तक नहीं पहुचायेंगे और हमेशा हमारे बच्चे किसी विदेशी के आविष्कारों के बारे में सिर्फ पढ़ेंगे,


तो उनमें गुमान कहाँ से पैदा होगा.


परिणाम ये होगा कि हमेशा वो खुद पे गुमान करने के बजाये खुद को कम आकेंगे


और


आने वाले दिनों में ये पूरे समाज की मानसिकता बन जाएगी.


क्या आप ऐसी मानसिकता से अपने बच्चों को नहीं बचाना चाहेंगे?


कहते है वक़्त रहते अगर काम हो जाये, तभी उसकी एहमियत होती है,


ये हम सबको खुद से पूछना है, क्या हमारे पास वक़्त बहुत ज्यादा है?


और अगर नहीं,


तो इस वक़्त में हम ऐसा क्या करके जाना चाहेंगे जो हमारे बच्चों के लिए आने वाले समय में मददगार सिद्ध होगा.


Source for the Image: https://happyrealization.com/differences-between-ego-and-self-respect/

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Published on December 11, 2019 22:59

खुद पे गुमान

ये बात सही है कि गुमान को घमंड में तब्दील होने में बहुत देर नहीं लगती.


मगर क्या ये इस देश में पैदा हो रहे और पल रहे हर बच्चे के जीवन का आधार नहीं होना चाहिए?


इसपे विचार करने की आवश्यकता है.


क्या कभी आपने सोचा है कि एक हिन्दुस्तानी आदमी जब विदेश जाता है, तो उसे उस तरह से इज़्ज़त नहीं मिलती जैसे किसी और देश जैसे कि जापान या यूरोप के वासी को मिलती है.


इतनी प्राचीन संस्कृति के बाद भी क्यों एक हिन्दुस्तानी को एक तरीके से नापा और तोला जाता है.


कुछ लोगों का मानना है कि हर इंसान को बिना किसी भेद भाव के देखा जाना चाहिए.


जैसी उसकी हरकते हो वैसे उसके साथ पेश आना चाहिए.


लेकिन एक आसान तरीका ये है कि उसको किसी ग्रुप में डाल, उसके बारे में राय कायम करी जाये, भले ही वो राय सही हो या ना हो.


लेकिन किसके पास इतना समय है, कि वो इसपे विचार करने का कष्ट करे.


परिणाम स्वरुप ये ऐसे होते हैं, वो ऐसे होते हैं, की प्रवलित राय बनने में देर नहीं लगती.


ये हमारे देश के अंदर भी बहुत होता है,


जहाँ


एक नार्थ इंडियन और साउथ इंडियन को अलग तरह से मापा जाता है.


[image error]


क्या ये एक प्रकार से सूचना और ज्ञान में अभाव नहीं है?


और ऐसा अगर है तो क्यों है?


हमारा इतिहास क्या बिना किसी भेद भाव के रचा गया है?


क्या पुरातत्व शास्त्र (archaeology) का उपयोग बिना किसी पक्षपात के किया गया है?


अगर नहीं, तो क्या ये गवर्नमेंट या हर नागरिक की ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि वो इसको बदले?


इसको एक छोटी सी बात मान लेना क्या हमारे आने वाले जेनेरशन के लिए अच्छी बात होगी?


जहाँ आपको विदेश में एक प्रकार का ट्रीटमेंट मिलेगा.


अगर नहीं तो हर किसी को एक भारतीय नैरेटिव के बारे में बात करनी होगी जो सच है और उसके आविष्कारों और उपयोगिताओं का व्याख्यान करे.


अगर हम इन बातों को अपने बच्चों तक नहीं पहुचायेंगे और हमेशा हमारे बच्चे किसी विदेशी के आविष्कारों के बारे में सिर्फ पढ़ेंगे,


तो उनमें गुमान कहाँ से पैदा होगा.


परिणाम ये होगा कि हमेशा वो खुद पे गुमान करने के बजाये खुद को कम आकेंगे


और


आने वाले दिनों में ये पूरे समाज की मानसिकता बन जाएगी.


क्या आप ऐसी मानसिकता से अपने बच्चों को नहीं बचाना चाहेंगे?


कहते है वक़्त रहते अगर काम हो जाये, तभी उसकी एहमियत होती है,


ये हम सबको खुद से पूछना है, क्या हमारे पास वक़्त बहुत ज्यादा है?


और अगर नहीं,


तो इस वक़्त में हम ऐसा क्या करके जाना चाहेंगे जो हमारे बच्चों के लिए आने वाले समय में मददगार सिद्ध होगा.


Source for the Image: https://happyrealization.com/differences-between-ego-and-self-respect/

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Published on December 11, 2019 22:59

December 5, 2019

November 17, 2019

#Housefull4

रूबरू एक एहसास Available on Amazon

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Published on November 17, 2019 23:35

November 7, 2019

पहली पहली बार

कहते हैं पहला एहसास, पहली नज़र, सब कुछ पहला पहला बहुत ही अच्छा लगता है. शायरों ने तो इसपे पूरी किताबें लिख डाली हैं.


सच मान, मैंने भी पहली बार इसका स्पर्श करने की चाहत लिए एक सुट्टे की दुकान पे पहुंच ही गया. सन २०००, शहर लखनऊ, दिन के १२ बजे, कोचिंग क्लास से बहार आने का किस्सा.


पहली बार कुछ भी हमेशा किसी प्रिये के साथ ही होता है. हम उसे अमेरिकन चूहे से सम्भोदित करते थे, इसलिए नहीं कि वो हमेशा अमेरिका जाने की बात करता था, पर इसलिए क्योंकि उसने अपने को पूर्ण तरह से अमेरिकन बना लिया था, चाहे वो उसका बोलने का तरीका हो या फिर उसका रहन सहन.


वैसे सोचा जाये तो ठीक भी था, क्योंकि पहले से तैयारी करके जाने पे हमेशा आपको किक स्टार्ट तो मिलता ही है.


इसी किक स्टार्ट की खोज ने शायद हम दोनों को उस सुट्टे की दुकान पे जाने पर मजबूर कर दिया था.


[image error]


थोड़ा मन में डर था, क्योंकि माँ ने हमेशा इससे दूर रहने की हिदायत दी थी, लेकिन कुछ नया करने का अजीब सा उत्साह भी था.


अब इसे जवानी का जोश कहें या फिर नादानी, आज हम दोनों ही ढृढ़ निश्चय करके आये थे कि आज कुछ तूफानी करके ही मानेंगे.


“भइया, एक क्लासिक माइल्ड”, बोल हमें ऐसा लगा मानो जैकपोट मिल गया हो. इतनी ख़ुशी शायद हमें मैथ में पूरे नंबर मिलने पे भी नहीं मिलती थी.


तीन बार कोशिश करने पे माचिस से हम उस सुट्टे को जला पाए. आखिर पहली बार था, इतना एफर्ट तो मारना बनता था.


“अबे सुना है, पूरा अंदर लेना होता है. और आँख बंद करके मारो तो मज़ा दुगना हो जाता है”, अमेरिकन चूहा पूरी रिसर्च करके आया था.


उसको गुरु मान मैंने पूर्ण तरह से वही किया जैसा उसने कहा, मानो वो धुंआ मुझे एक नयी दुनिया में ले गया, वो भी खासते खासते.


थोड़ा अच्छा लगा, थोड़ा बुरा, लेकिन चूहे के सामने कैसे मैं मुकर सकता था, “ग़दर है यार ये तो”.


चूहे ने भी हाँ में हाँ भर दी, मानो १०० साल से सुट्टा मार रहा हो, “कहाँ था ना मैंने”.


कश-कश कर पूरा ख़तम करने पर मेरे चेहरे पे चिंता के भाव देख वो बोला, “भाई, माउथ फ्रेशनर लाया हूँ, काहे परेशान हो रहे हो.” यह सुन, फिर हर्षोल्लास का समां बन गया.


सफर तो शुरू हो चुका था, बस सफर करना अभी बाकी था.


Source for the Image: http://facebook.com/Sutta4G

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Published on November 07, 2019 21:36

पहली पहली बार

कहते हैं पहला एहसास, पहली नज़र, सब कुछ पहला पहला बहुत ही अच्छा लगता है. शायरों ने तो इसपे पूरी किताबें लिख डाली हैं.


सच मान, मैंने भी पहली बार इसका स्पर्श करने की चाहत लिए एक सुट्टे की दुकान पे पहुंच ही गया. सन २०००, शहर लखनऊ, दिन के १२ बजे, कोचिंग क्लास से बहार आने का किस्सा.


पहली बार कुछ भी हमेशा किसी प्रिये के साथ ही होता है. हम उसे अमेरिकन चूहे से सम्भोदित करते थे, इसलिए नहीं कि वो हमेशा अमेरिका जाने की बात करता था, पर इसलिए क्योंकि उसने अपने को पूर्ण तरह से अमेरिकन बना लिया था, चाहे वो उसका बोलने का तरीका हो या फिर उसका रहन सहन.


वैसे सोचा जाये तो ठीक भी था, क्योंकि पहले से तैयारी करके जाने पे हमेशा आपको किक स्टार्ट तो मिलता ही है.


इसी किक स्टार्ट की खोज ने शायद हम दोनों को उस सुट्टे की दुकान पे जाने पर मजबूर कर दिया था.


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थोड़ा मन में डर था, क्योंकि माँ ने हमेशा इससे दूर रहने की हिदायत दी थी, लेकिन कुछ नया करने का अजीब सा उत्साह भी था.


अब इसे जवानी का जोश कहें या फिर नादानी, आज हम दोनों ही ढृढ़ निश्चय करके आये थे कि आज कुछ तूफानी करके ही मानेंगे.


“भइया, एक क्लासिक माइल्ड”, बोल हमें ऐसा लगा मानो जैकपोट मिल गया हो. इतनी ख़ुशी शायद हमें मैथ में पूरे नंबर मिलने पे भी नहीं मिलती थी.


तीन बार कोशिश करने पे माचिस से हम उस सुट्टे को जला पाए. आखिर पहली बार था, इतना एफर्ट तो मारना बनता था.


“अबे सुना है, पूरा अंदर लेना होता है. और आँख बंद करके मारो तो मज़ा दुगना हो जाता है”, अमेरिकन चूहा पूरी रिसर्च करके आया था.


उसको गुरु मान मैंने पूर्ण तरह से वही किया जैसा उसने कहा, मानो वो धुंआ मुझे एक नयी दुनिया में ले गया, वो भी खासते खासते.


थोड़ा अच्छा लगा, थोड़ा बुरा, लेकिन चूहे के सामने कैसे मैं मुकर सकता था, “ग़दर है यार ये तो”.


चूहे ने भी हाँ में हाँ भर दी, मानो १०० साल से सुट्टा मार रहा हो, “कहाँ था ना मैंने”.


कश-कश कर पूरा ख़तम करने पर मेरे चेहरे पे चिंता के भाव देख वो बोला, “भाई, माउथ फ्रेशनर लाया हूँ, काहे परेशान हो रहे हो.” यह सुन, फिर हर्षोल्लास का समां बन गया.


सफर तो शुरू हो चुका था, बस सफर करना अभी बाकी था.


Source for the Image: http://facebook.com/Sutta4G

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Published on November 07, 2019 21:36

November 6, 2019

डर और धुंआ

हर रोज़ की तरह आज भी मैंने दिव्य वाहन Uber में ऑफिस जाने का प्रण लेते हुए ऐप पे गाड़ी बुक कर ही ली.


ना जानते हुए कि ये सफर आज मुझे अपने बारे में एक नए पहलू से अवगत कराएगा.


थोड़ी देर बाद एक घनी दाढ़ी वाले भाई साहब स्विफ्ट डिज़ायर में प्रकट हुए, मानो एनवायरनमेंट चेंज को रोकने का सारा ज़िम्मा अपने चेहरे पे जंगल रुपी दाढ़ी उगाते हुए इन्ही ने लिया हो.


मुस्कुराते हुए गुड मॉर्निंग हुई और राइट स्वाइप कर उन्होंने ट्रिप चालू कर दी. मैं रोज़ की तरह दीन दुनिया को भूल न्यूसपेपर पढ़ने में जुट गया, मानो सिविल सर्विसेज का एग्जाम आज क्लियर कर के ही मानूंगा.


कुछ क्षण चल ड्राइवर साहब ने पीछे देखा और बोले:                                                                                    “सर थोड़ा सा लगी है, क्या मैं गाड़ी रोक कर हल्का हो लूँ“.


मैंने बिना कुछ सोचे उनके हालात को समझते हुए रज़ामंदी दे दी.


जैसे ही वो नीचे उतरे मेरा ध्यान सुनसान सड़क पे खड़ी हमारी गाड़ी पे गया जहाँ दूर दूर तक किसी प्राणी का कोई भी नामोनिशान ना था.


दिल में अचानक बुरे ख्यालों ने दस्तक दी, और कश्मीर में गाड़ियों में हो रहे धमाकों की छवि आँखों के समक्ष प्रकट हो गयी. ये शायद ज्यादा न्यूसपेपर पढ़ने का असर था.


पीछे मुड़ के देखा तो दाढ़ी वाले ड्राइवर साहब मानो दो कोस दूर जा चुके थे.


काउंटडाउन शुरू हो चुका था. जल्दी से न्यूसपेपर को बगल में रख गाड़ी से फरार होने का मैंने निर्णय ले लिया.


जैसे ही मैंने अपने दरवाज़ा को खोला और उतरना चाहा, तभी एक आवाज़ से मेरी रूह काँप उठी:                    “सॉरी सर, रुकने के लिए. क्या करूँ आगे कोई जगह नहीं मिलती“.


यह बोल ड्राइवर साहब गाड़ी में बैठे और खुद को पायलट और गाड़ी को हवाई जहाज़ बना कर वहां से उड़ चले.


ऑफिस पहुंच मैंने उन्हें थैंक यू बोला और गाड़ी से नीचे उतर गया.


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दिल अभी भी कुछ ज्यादा ही धड़क रहा था. मन बोला अब तो फ़िक्र को धुएं में उड़ाना बनता है.


एक सिगरेट शॉप पे पहुंच जैसे ही सुट्टा मांगने वाला था, तभी उस कश्मकश के परदे को समझ भूज ने फाड़ते हुए एक सवाल पूछ लिया:                                                                                                                    “#Sutta4G जो करते रहते हो, उसका क्या?


तब जाना, कभी कभी आपकी समझदारी आपको शर्म से पानी पानी होने पे मजबूर कर देती है.

भाई साहब, बाद में आता हूँ“, बोल मैं ऑफिस की ओर बढ़ गया.


चलते चलते समझ ने हस्ते हुए और मरहम लगाते हुए बोला:                                                                          “इस सुट्टे के पैसे से आज किसी गरीब को खाना खिला देना“.


ये सुन मेरा मन फिर एक निश्चय रुपी हर्ष से भर उठा और बोला:                                                              “Break the Habit. Do Good. #Sutta4G


Source for the Image: https://www.facebook.com/Sutta4G/

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Published on November 06, 2019 22:12