Atul Kumar Rai's Blog, page 3
October 10, 2021
आज का आदर्श रिसर्च स्कॉलर कल का आदर्श पति है।
साँझ होने को है। बारिश रूकने का नाम नहीं ले रही है। इसी साँझ की बारिश में एक प्रेमी युगल बस स्टॉप पर खड़ा है।
अंधेरा अभी हुआ नहीं है लेकिन लड़के की आंखों के नीचे का कालापन साफ-साफ देखा जा सकता है।
लड़का विश्वविद्यालय में शोध छात्र है और लड़की विश्वविद्यालय में शोध छात्रा होने की तैयारी कर रही है।
बीते एक-डेढ़ साल से अपने सारे अरमानो को क्वारन्टीन रखने के बाद आज लड़की नें एक वेबसीरिज देखकर ठान लिया है कि वो लड़के को किसी सीसीडी-स्टारबक्स में ले जाएगी। कॉफी पीएगी और हाथों में हाथ डालकर बाबू-सोना करते हुए देर तक रिसर्च करेगी कि आने वाले कुछ सालों में ये रिसर्च कैसे होगा ?
लेकिन लड़के के हॉस्टल में वाईफ़ाई की स्पीड इतनी तेज नही आती कि वो इस तरह की रोमांटिक वेबसीरीज देखकर डेटिंग टाइप ख़ालिस शहराती ख्यालों में खो सके।
उसके मोबाइल तो ले-देकर यू ट्यूब है और उस यू ट्यूब के सर्च बॉर में भी “हाउ टू प्लान फार ए रोमांटिक डेट” की जगह “बालों को सफेद होने से कैसे बचाएँ” खोजा गया है।
फलस्वरूप लड़का डेटिंग के इस आधुनिक चोंचलों से दूर अपने मोबाइल में आ रहे बेहिसाब नोटिफिकेशंस को देख रहा है।
अचानक बस आती है। दोनों बस में बैठ जाते हैं। दोनों की नज़रें खिड़की के बाहर न जानें क्या खोजने लगतीं हैं। बहुत देर के बाद लड़की की चेतना वापस लौटती है,
“सुनों,
“हां”
“अगले महीने लड़के वाले मुझे देखने आ रहें हैं।”
“क्या ?” लड़का चौंकता है।
“हाँ,पापा कह रहे थे,लड़का कहीं असिस्टेंट प्रोफेसर है।”
“बढ़िया है तब तो,कर लो..!”
“इस साल तुम थीसिस जमा कर पावोगे ?
“नहीं कर पाऊँगा और जमा करते ही असिस्टेंट प्रोफेसर तो बन नहीं जाऊँगा,फेलोशिप भी अब बन्द होने जा रही…!”
ये जबाब सुनकर लड़की चुप हो गई है। उसे तो ऐसे Ptsd की अपेक्षा नही थी। वो तो सुनना चाहती थी कि बेबी यू कांट गो अवे फ्रॉम मी ! लेकिन लड़के नें ठान लिया है कि आज सख़्त बने रहना है।
इधर बस में भीड़ बढ़ रही है। एक बाबा लड़के की तरफ़ चले आ रहें हैं। लड़का किसी प्रदेश के सीएम जैसा अपनी सीट छोड़कर सामने खड़े इस अनजान शख्स को सीट दे देता है। लड़की नाराज होती है,” सीट क्यों छोड़ दिये ?”
लड़का मामला सम्भालता है,”इनको दूर तक जाना है न हमारा क्या है,हम तो आगे ही उतर जाएंगे ?”
लड़की को इस जबाब से संतुष्टि नहीं मिलती है। आँखों ही आंखों में उसे डाँटती है कि तभी लड़के के मोबाइल पर एक वायस मैसेज सुनाई देता है।
“एक किलो आलू,एक किलो प्याज और आधा किलो टमाटर,धनिया और लहसुन लेकर अभी घर जावो…!”
“ये मैडम कौन है ?” लड़की चौंककर पूछती है।
“सर की वाइफ हैं…!” लड़का बताता है।
“तो तुम प्रोफेसर के अंडर में पीएचडी कर रहे हो या इनके वाइफ के अंडर में ?
” सर कहीं व्यस्त हैं, कोई आ गया होगा”
“यार अब ये क्या बात हुई ? सर लाखों की सैलरी पाते हैं,एक अदद नौकर नही रख सकते या तुमने सिनॉप्सिस में लिखकर दिया था कि सर हम पाँच साल में पीएचडी करें या न करें,आपके घर का सारा काम करेंगे ? “
प्रेयसी के मुँह से ऐसी बातें सुनकर लड़के का चेहरा बाढ़ के पानी की तरह उतर रहा है। वो खामोश हो जाता है। बड़ी देर बाद फिर बोलता है।”
“प्रिया ये पीएचडी है,एमए नहीं। किसी दूसरे दिन कॉफी पीते है न ? आज मिल लिए क्या इतना काफी नहीं है ?
लड़की नें गुस्से में सर पकड़ लिया है। उसे गुस्सा आ रहा। मन कर रहा चिल्लाए। इधर लड़का बेचारा पारंपरिक प्रेमियों की शाश्वत चिरंतन मुद्रा में लड़की को मनानें लगा है।
” सब ठीक है प्रिया, लेकिन ये न भूलो की मेरे शोध का विषय “भक्तिकालीन साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियां” हैं..इतनी सेवा तो करनी ही पड़ेगी..!
ये सुनने के बाद लड़की का गुस्सा अब सातवें आसमान से एक-डेढ़ फीट ऊपर जा रहा है। भक्तिकाल में पीएचडी करने की चुनौतियाँ समझाते-समझाते लड़के की आंखों में काव्यगत सौंदर्य उभर आया है।
वो जल्दी-जल्दी अपनी बात खत्म करता है,”तुम भी तो प्रगतिशील साहित्य के ऊपर सिनॉप्सिस लिख रही हो न? जल्दी पता चल जाएगा कि भक्तिकाल का प्रगतिशील काल में क्या महत्व है !”
ये सुनकर लड़की निरुत्तर है। उसे अपना भविष्य अंधकारमय दिख रहा है। बारिश फिर से आने वाली है।
कुछ देर पैदल चलने के बाद अब दोनों सब्जी मार्केट आ चुके है। बारिश शुरू हो गई है। लड़का भीगते हुए बड़ी तन्मयता से आलू,प्याज और टमाटर को उलट-पलटकर चेक कर रहा है।
इधर बड़ी देर तक उदास रहने वाली लड़की लड़के को देखकर अचानक मुस्कराने लगी है।
लड़के को आश्चर्य होता है..”अब क्या हुआ, तुम हंस क्यों रही हो ?”
लड़की चुप है।
“बोलो,क्या हुआ ?”
लड़की आंखों की भाषा बोलना चाहती है। लेकिन आलू-प्याज की तेज महक में उसकी आवाज़ कहीं खो सी जा रही है।
लड़का पूछ रहा है.. “क्या हुआ हँसने क्यों लगी?”
लड़की नें लड़के का हाथ थाम लिया है !
” आज मेरा शोध पूरा हुआ आदर्श”
“क्या?”
लड़का चौंकता है।
“मैं तुम्हारे,धैर्य,श्रम,समर्पण, संवेदना और सहिष्णुता पर मुग्ध हूँ आदर्श..!
क्या बात कर रही हो..?
“हां, आदर्श मैं जान गई कि आज का आदर्श शोध छात्र कल का आदर्श पति है। “
ये सुनकर लड़का चुप है।
देखते ही देखते बारिश तेज हो गई है। लड़की की आँख में खुशी के आंसू आ गए हैं और लड़के के हाथ में आलू,टमाटर,प्याज और थीसिस के कुछ अधूरे पन्ने…..!
©- atulkumarrai.com
September 5, 2021
रुकना जरूरी क्यों है ?
चलना एक कला है और रुकना भी। लेकिन ये भौतिकतावादी समय हमसे कह रहा है कि भागो,भागो नहीं तो तुम पीछे छूट जावोगे। दिन-रात मोटिवेशनल स्पीकर चिल्ला रहे हैं,”अरे,तुम यही हो। वो देखो,वो तुम्हारा ही दोस्त तुमसे कितना जल्दी आगे चला गया,जल्दी करो…!
ये सुनकर हम भाग रहें हैं और भागने की जल्दी में देख भी नहीं पा रहें हैं कि कहीं न कहीं हमें कुछ देर के लिए रुकना पड़ेगा। रुककर सुस्ताना पडेगा,अगर हम नहीं रुके तो जीवन रुक जाएगा।
फिर व्यर्थ हो जाएगी ये रेस,ये महत्वाकांक्षा सब कुछ ! जब जीवन नही रहेगा तो रेस का क्या मतलब ?
आज की बात सिर्फ़ सिद्धार्थ शुक्ला के हृदय गति रुकने की नहीं है। कहीं न कहीं बात हम सबकी है।
ध्यान से देखिये तो हृदय गति हमारी भले न बन्द हुई हो लेकिन हृदय गति हमारी बढ़ जरूर गई है।
ऐसा लगता है कि ये पूरी कायनात हमें बेचैन बना रही है। सहजता समाप्त सी हो रही है। जल्दी-जल्दी हम वो होना चाहते हैं,जो हम नहीं हैं। जल्दी-जल्दी हम वो दिखना चाहते हैं,जो हम तमाम सेलीब्रेटी लोगों में देख रहें हैं।
एक आग सी लगी है सबके अंदर। और इस आग में सबसे ज्यादा घी बन गया है सोशल मीडिया। इसने तो इस रोग को इस कदर बढ़ा दिया है कि आज हर आदमी इंफ्लुएंसर और सेलोब्रेटी ही बनना चाहता है। उससे नीचे मानने को तैयार ही नही है।
मैं जानता हूँ कि हर आदमी विशिष्ट है। उसकी विशिष्टता ही उसे मौलिक बनाती है लेकिन जीवन में जितनी विशिष्टता का महत्व है,उतना ही महत्व सहजता का भी है।
मैं रोज कई लोगों को समझाता हूँ,”भाई सोशल मीडिया पर दिखने के चक्कर में न पड़ो,पहले पढ़ाई तो कर लो। एक सफल जीवन के लिए लाइक,कमेंट से ज्यादा ज्ञान और विवेक की जरूरत है। अगर वो नहीं हुआ तो ये क्षणिक सफलता और चकाचौंध को खत्म होने में एक मिनट की देरी नहीं होगी…
लेकिन लोग सुनने को तैयार नहीं। एक लड़के नें पिछले दिन मुझे खारिज करते हुए कहा था, भइया आप कहाँ हैं, देख रहे हैं,उस लड़के को इंस्टाग्राम की प्रति पोस्ट का चार लाख रुपये लेता है। कोई पढ़कर क्या कमाएगा..! असली कमाई तो उसमें भी है।
मैं भी मानता हूं कि ऐसा है। तमाम प्रतिभाशाली लोगो का जीवन इससे सुधरा है जो कि अच्छी बात है। लेकिन हर आदमी वही नही बन सकता। ये बस कुछ प्रतिशत लोगों को ही सम्भव होता है और आप उसकी गहराई में जाएंगे तो और ज्यादा दुःखी होंगे। क्योंकि हमारे सामने एकदम चमकती और पॉलिश्ड चीज़ ही आती है,उसके भीतर का अंधेरा और कालापन हम नहीं देख पाते हैं।
लेकिन नहीं। ये समझना किसको है। सोशल मीडिया नें तुलनात्मक अध्यन बढ़ा दिया है। हम स्वयं को दूसरे औसत सेलीब्रेटी से तुलना कर रहे हैं। और तुलना करके मान ले रहे हैं कि अरे! जब उस आदमी के दस लाख फॉलोवर्स हो सकतें हैं,लाखो में कमाई हो सकती है तो हमारी क्यों नहीं हो सकती।
बस इसी चाहत में युवाओं नींद कम हुई है। स्ट्रेस बढ़ गया है। जो थोड़ा बहुत कुछ रचनात्मक कर ले रहे हैं,वो भी दूसरों से अपनी तुलना करके दुःखी हैं।
पांच सौ लाइक्स वाला हजार वाले से दुःखी है। हजार वाला दस हजार वाले से।दस हजार वाला मिलियन वालों को देखकर सांस नहीं ले पा रहा है। जो फेसबुक पर जम गया वो,यू ट्यूब पर जाना चाहता है। जो यू ट्यूब पर जम गया उसे इंस्टाग्राम पर भी जमना है। जो हर जगह जमा है वो अब ऑफलाइन जमा रहा है।
बस वही हाल आभासी दुनिया के बाहर भी है। वहां भी कौन सा सुकून है। गाँव में होड़ लगी है कि शहर में बस जाए..गाजियाबाद में घर खरीद लिया गया है तो नोएडा में भी होना चाहिए। शहर तो बेचैनीयो के के चलते-फिरते स्मारक बन गए हैं। यहाँ भी सपने पूरे करने का युद्ध छिड़ा है।
मुम्बई-दिल्ली, बैंगलोर जैसे बड़े महानगरों की सड़कें देखता हूँ तो मैं कई बार यही सोचता हूँ। ये लोग नहीं भाग नहीं रहे हैं,उनके उम्मीदों और आकांक्षाओं का बोझ भाग रहा है।
आप भी भागिए,भागना जरूरी है। सपने भी जरूरी है। अगर सपने नही होते तो हम इस अत्याधुनिक समय मे जी नही रहे होते। मनुष्य के सपनों नें ही दुनिया बदली है। लेकिन इस सपनों की भागमभाग के बीच थोड़ा सा रुकना भी जरूरी है। सिद्धार्थ शुक्ला को तो डॉक्टर नें कहा भी था कि कुछ दिन के लिए रुक जावो
क्या पता आपको-हमको डॉक्टर तक जानें नौबत ही न आए..! एक शेर मौजूं है।
मुद्दत से ख़्वाब में भी नहीं नींद का ख़याल
हैरत में हूँ ये किस का मुझे इंतिज़ार है
July 17, 2021
एक विवाहित कवि का दुःख !
शाम का मनभावन समय है। बाहर का मौसम रोमांटिक हो चला है। बादलों के गरजने की ध्वनि के साथ बारिश की बूंदे खिड़की से होते हुए कवि चिंगारी जी के बेडरूम तक आ रहीं हैं।
बेडरूम में टीवी चल रही है और कवि “चिंगारी” शवासन में लेटकर पकौड़ों का इंतज़ार कर रहें हैं। लेकिन मुए पकौड़े हैं कि किचन से निकलने का नाम नहीं ले रहे हैं। लगता है वहीं कहीं धरने पर बैठ चुके हैं। देखते ही देखते सुगंधित मसालों और तीखी चटनी की महक से कवि हॄदय व्याकुल हो रहा है,”सुनती हो,पम्मी की मम्मी ?”
कहीं से कोई सुनवाई नहीं हो रही है।भला इस देश में कवियों की सुनता कौन है जी। अगर इनको सच में सुना गया होता तो ये दुनिया कबकी स्वर्ग हो चुकी होती। कवि चिंगारी पकौड़े के नाम पर मुंह में उठते ज्वार-भाटा को किसी आंदोलन की तरह दबाकर सोच रहें हैं कि देर-सबेर उनकी आवाज़ जरूर गृह मंत्रालय तक जाएगी।
इसी खूबसूरत उम्मीद में कवि नें करवट बदला।तब तक टीवी पर सरसो तेल का विज्ञापन शुरु हो गया। एक सुंदर,सुशील नायिका पूरे नाज़ों-अदा को अपने कपार पर उठाकर नायक के लिए पकौड़े छान रही है। इधर नायक पकौड़ी खाना भूलकर नायिका के लिए प्रेमगीत गा रहा है।
ये देखकर कवि चिंगारी का गुस्सा सरसो तेल के भाव की तरह बढ़ रहा है,”ए,पम्मी की मम्मी ? यार ये कौन से आसमानी पकौड़े बना रही हो कि अब तक नहीं बना। ऊपर से ये टीवी के विज्ञापन। इनको कैसे पता कि आज हमारे यहां पकौड़े बन रहे ?लगता है,ये आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस अब किचन-बेडरूम तक घुस जाएगा।
“तुम्हारे कपार में घुस जाएगा ! पहले तो ये टीवी बन्द करो और चुप-चाप जाकर बाज़ार से सरसों तेल लावो। तीन दिन से कह रही,चूल्हा बनवा दो,बनवा दो,जल नहीं रहा लेकिन दिन भर फेसबुक पर बैठकर देश की समस्याओं पर कविता लिखनें के लिए टाइम है,घर के लिए नहीं ?
हाय! श्रीमती शर्मिला जी के इस सिंहनी अवतार को देखकर कवि के काव्यात्मक चिंतन पर कचकचा के स्पीड ब्रेक लग गया है। कवि को गृह मंत्रालय द्वारा सुना जाएगा लेकिन इस तरह से सुना जाएगा,इसका उसे अंदाज़ा नहीं था। कवि सोच रहा है। “क्या जमाना आ गया प्रभो..! एक वो भी समय था,जब नायिका को देखकर कवि कहता था,”छाती से छुवाई दीया-बाती क्यों न बार लयों”
मतलब रीतिकाल में कवि को विश्वास था कि विरह में धधकती नायिका के हृदय की तपन से कुछ भी जलवाया जा सकता है। एक आज का ज़माना है कि कवि नायिका से कहकर गैस-चूल्हा भी नहीं जलवा सकता है।
अब सामने किराना के सामानों की एक लिस्ट है। न भीगने के लिए एक छाता है। कवि नें बड़े ही भारी मन से अपनी अलिखित प्रेम कविताओ के साथ बाज़ार की तरफ़ रुख कर दिया। साहिर लुधियानवी होते तो यहां चिल्ला पड़ते,
“मैं ने जो गीत तिरे प्यार की ख़ातिर लिक्खे
आज उन गीतों को बाज़ार में ले आया हूँ।”
लेकिन कवि जानता है कि साहिर शादी-शुदा नही थे,वरना वो गीत को बाज़ार में ले जाने से पहले स्वयं उठकर धनिया-जीरा,मिर्च और मसाला लेने बाजार जाते और लौटकर बीबी से डाँट भी सुनते।
इन अविवाहित कवियों को क्या पता कि एक शादी-शुदा कवि को क्या-क्या दुःख उठानें पड़ते हैं। कुँवारेपन में आँख, कान,गर्दन और कमर पर कविता लिखने वाला कवि कब सरसो तेल और पेट्रोल पर कविता लिखने लगता है,उसे समझ नहीं आता।
अब चिंगारी जी दुकान के सामने खड़े है। एक हाथ में झोला है,दूसरे में छाता,दिमाग में चिंतन। इधर बारिश के बाद उमस भरी गर्मी से भयंकर पसीना चू रहा है। दुकानदार बोल रहा है, “कवि जी,कैश दीजिये”
“कैश नहीं है मेरे पास ?”
“ठीक है,तब ऑनलाइन पेमेंट कर दीजिए। “
“ऑनलाइन करना तो हमें आता नहीं,खाते में लिख लो।”
“कैसे कवि हैं आप? दिन भर ऑनलाइन कविता ठेलना आता है,पेमेंट करनें नहीं आता..?”
“ज़्यादा न बोलो,चुप-चाप लिख लो। घर में कुछ मेहमान आने वाले हैं।”
कवि सरसों तेल लेकर घर आ गया,पत्नी मुस्करा रही है। सामने एक मुँहबोला साला बैठकर हंस रहा है। नमस्ते “जीजू”
“कैसे हो पिंटू?”
एकदम ठीक। आप तो कमाल लिखते हैं। मैनें आपकी फेसबुक पोस्ट में देखा था,आपने दीदी को अपना सबसे अच्छा दोस्त बताया था,पढ़कर अच्छा लगा। इधर से जा रहा था तो दीदी नें कहा,पकौड़े खाकर जावो।
शर्मिला जी मुस्करा रही हैं, “बिल्कुल पिन्टू,तुम्हारे जीजा सच में अच्छे दोस्त हैं।
कवि सरसो तेल के बोतल का मूल्य पढ़ते हुए बुदबुदा रहा है,”चुप रह पगली। आजकल अच्छे दोस्त बनने के लिए पहले तलाक लेना पड़ता है।”
(जागरण के संपादकीय पेज पर18-07-2021 को प्रकाशित )
July 9, 2021
युवा नेता बनाम ‘युवा तुर्क’ ( चन्द्रशेखर की पुण्यतिथि पर विशेष )
बहुत छोटा था। तब ये भी कहाँ पता था कि लोक सभा क्या होता है और विधानसभा क्या होता है।
लेकिन उस वक़्त नेताओं की गाड़ियां और आसमान में उड़ते हेलिकॉप्टर ये बताने के लिए काफी थे कि इलेक्शन आ चुका है और हर छोटे-बड़े खाली मैदान पर ‘ज़िंदाबाद-मुर्दाबाद’ के नारे लगाए जा रहें हैं।
बस उन्हीं दिनों एक सुबह बड़े पिताजी नें कहा,”चलs चंद्रशेखर जी के देखे चले के बा।”
तब मैं क्या ही जानता था कि चंद्रशेखर जी कौन हैं।
उस वक़्त एक बालमन के लिए तो सारी उत्सुकता इस बात की थी कि भाषण के बाद बाबूजी समोसा खिलाएंगे और जो-जो कहूँगा वो-वो खरीद देंगे।
मुझे याद है,वो खेती का सीजन था। बाबूजी यानी बड़े पापा नें जल्दी-जल्दी खेतों का काम निपटाकर अपना मटका वाला कुर्ता पहना,धोती पहनी और मुझे कंधे पर लेकर पैदल ही सभा स्थल की तरफ़ चलने लगे।
सभा स्थल थोड़ी दूर था। आस-पास खेतों में मकई बोनें की तैयारियां जोरों पर चल रहीं थीं लेकिन मैं हैरान था कि सब लोग जल्दी-जल्दी उस नेता को देखने और सुनने क्यों जा रहे हैं,जिसको सैकड़ों बार वो पहले भी देख चुके हैं। और हर राजनीतिक बहस में सुबह-शाम उसका चार बार नाम लेतें हैं।
बहरहाल,थोड़ी देर में चंद्रशेखर जी कार से आ गए। सफेद कुर्ता-धोती, सफ़ेद दाढ़ी और माला से लदा एक गरिमामयी व्यक्तित्व।
देखते ही देखते उँघ रही जनता में एक नया जोश आ गया। फ़िज़ाओं में एक नई लहर सी पैदा हो गई।
एक तरफ़ से
“चंद्रशेखर जी…”
दूसरी तरफ से
“ज़िंदाबाद-ज़िंदाबाद” होने लगा।
लेकिन तब चंद्रशेखर जी काफी बूढ़े हो चले थे। भाषण भी वो खड़े होकर नहीं दे सकते थे। उन्होंने बैठकर भाषण दिया।
भाषण में उन्होंने क्या कहा, मुझे कुछ भी याद नहीं क्योंकि तब तो सारा ध्यान समोसे पर अटका था। आख़िरकार भाषण ख़तम हो गया,मेरा समोसा भी।
लेकिन मैनें देखा,भाषण के बाद लौटते समय तमाम लोग उदास थे। उनके चेहरे कुछ कह रहे थे। उनके चेहरे अब बता रहे थे कि उनका अपना नेता अब बूढ़ा हो चला है।
रास्ते में लोग कह रहे हैं।
“अब लागता ढेर दिन जिहन न, काहो रामजी..!”
“का कहला हो, मरद बूढ़ा गइल…।”
“मरद बूढ़ा गइल”
भोजपुरी ये एक वाक्य भर नहीं था। ये भाव था,उस जनता का जो अपने नेता को हीरो बनानें की क्षमता रखता है।
लेकिन अब उसका नेता बूढ़ा हो चला था और उसको देखने के बाद मेरे बाबूजी के जवान कंधे भी थोड़े झुक चले थे।
उन्होंने झट से कहा,”अब पैदल चला,हम कान्ही पर लेके ना चलब..!”
मैं पैदल चलने लगा… और मैंने महसूस किया कि एक वक्त के बाद नेता के साथ उसकी जनता भी बूढ़ी हो जाती है।
(अब यहाँ से स्क्रीन प्ले की भाषा में एक ‘cut to’ लगाता हूँ.. दृश्य बदलता है।)
जुलाई की आठ तारीख़…सन दो हजार सात..!
अभी बलिया रेलवे स्टेशन पर सुबह के चार बज रहें हैं। रात को हल्की बारिश हुई है। मैं यानी,अतुल कुमार राय दसवीं का छात्र। एयरफोर्स और नेवी की तैयारी हेतु बलिया में कोचिंग करने लगा हूँ लेकिन कोचिंग से ज्यादा मन संगीत में रमने लगा है।
तबला,हारमोनियम और बैंजो की इकठ्ठा आवाजें मुझे फिजिक्स,कैमेस्ट्री की मोटी-मोटी क़िताबों से ज्यादा बेचैन करनें लगीं हैं।
आज गुरु पंडित रामकृष्ण तिवारी से पहली बार मिलने रसड़ा जा रहा हूँ कि अचानक एक हॉकर आता है और कहता है..
“आज की ताजा खबर…!”
“बलिया के लाल पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की मृत्यु!”
ट्रेन में चर्चा चलने लगती है..।
“चंद्रशेखर जी चल गइनी..?”
मैं देखता हूँ,उस बोगी के तमाम बुजुर्गों की आंखें,एक झटके में खामोश हो गई हैं।
अचानक, उन सबकी आँखें नहीं,दिल भी कहीं भीतर ही भीतर रोनें लगा है।
लेकिन मैं उस वक्त भी समझने में असमर्थ हूँ कि चंद्रशेखर होना और चंद्रशेखर का न होना क्या होता है।
उसके बाद मैं बड़ा हो जाता हूँ। बलिया से बनारस। और हाल फिलहाल कुछ सालों तक मैनें तीन वहीं चीजें सुनी हैं जो बलिया का हर युवा सुन चुका है और उसनें मान लिया है कि चंद्रशेखर उसके लिए इन तीनों लाइनों में सिमट जातें हैं..
“चंद्रशेखर बलिया ख़ातिर का कइलन ?”
“उनकर भतीजा पप्पू सब जमीन हड़प लिहलें।’
“धनबाद में सूरजदेव-रामाधीर सिंग के गुंडा बनावल इनके ह।”
लेकिन मेरा दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य..मैं बचपन से एक जिज्ञासु आदमी..
इधर कुछ साल पहले तक मेरे लिए इब्राहिम पट्टी के किसान परिवार के लड़के का देश का प्रधानमंत्री बन जाना रोमांचित करने लगा।
फिर मैंने तमाम लोगों को पढ़ा, हरिवंश से लेकर रामबहादुर राय..मेरी जेल डायरी से लेकर उनके तमाम लेख..
मैं हैरान था। संसद में उनके भाषण में दिखता उनका अध्ययन,उनकी गम्भीरता और विद्वता हैरान करने लगी।
और ऐसा लगा कि ऊपर की तीन लाइनों में चंद्रशेखर को ख़तम कर देना तो एक साजिश मात्र है।
खासकर बलिया के युवा नेताओं के लिए जो खूब बढ़िया कपड़ा पहनकर,स्कार्पियो निकालकर और नेताजी को बधाई का होर्डिंग्स लगाकर ख़ुद को ज़बरदस्ती नेता कहलवाने पर आमादा हैं।
जो एक झटके में किसी पार्टी के नेता को कुछ भी कह देतें हैं।
वो नहीं जानते कि किसी को कुछ भी कह देंनें से पहले सौ बार सोचना ज़रूरी है। इनको पता नहीं कि चंद्रशेखर जी को जिस दिन संसद में बोलना होता था,उस दिन रात भर वो सोते नही थे.. बल्कि पढ़ते-लिखते थे।
ठीक वैसे ही जैसे एक विद्यार्थी किसी प्रतियोगिता की तैयारी करता है। तब जाकर लोग उनको इतना ध्यान से न सिर्फ़ सुनते थे बल्कि लोहा मानते थे।
लेकिन इधर तो पढ़ना-लिखना दूर हमनें साधारणीकरण को एक फार्मूला बना दिया है। हमनें विराट व्यक्तित्वों को चंद लाइनों में सिमटा दिया है।
तभी तो नेहरू आज हमारे लिए अय्याश हैं। लोहिया लूजर। अंबेडकर सवर्णों के दुश्मन। दीनदयाल और श्यामाप्रसाद बौद्धिक रूप से अछूत। आचार्य नरेंद्र देव,जेपी और राजनारायण को पढ़ने की जरुरत हम समझते नहीं।
और हमें लगता है कि हम नेता हैं ?
जबकि चंद्रशेखर जी को सुनकर लगता है कि उनके अपने विचार तो हैं..लेकिन अन्य विचारधाराओं का कितना गहन,अध्ययन मनन और चिंतन है।
न सिर्फ चिंतन है बल्कि उनकी निहित अच्छाइयों के प्रति एक उदारवादी सम्मान की दृष्टि है। वो कभी-कभी एक नेता कम एक स्कॉलर ज़्यादा लगते हैं।
तो आज आज जब बाग़ी बलिया की राजनीति “मां-बहन और बेटी” पर केन्द्रित हो गई है। तब अपने युवा नेताओं से कहना चाहूंगा कि चंद्रशेखर जी के पोस्टर लगाकर और फूल माला चढ़ाकर इतिश्री करना बंद करें।
चंद्रशेखर की राजनीतिक सोच और समझ के करीब जाने की कुव्वत पैदा करें। थोड़ा पढ़े-लिखें, थोड़ा चिंतन, मनन करें।
इसके अभाव में आप हल्के हो चुके हैं। आपके पास पद है लेकिन वो राजनीतिक गरिमा नहीं है।
आपको ये लगता है कि राजनीति में पढ़ना-लिखना जरुरी नहीं है। राजनीति सिर्फ चक्का जाम करने और गाली-गलौज के साथ ज़िंदाबाद-मुर्दाबाद करनें से चली आएगी तो आपको बिल्कुल गलत लगता है।
हो सकता है, आप नेता हो जाएंगे.. मंत्री,विधायक और सांसद भी बन जाएंगे.. लेकिन याद रखिएगा,अब किसी अतुल कुमार राय के बाबूजी खेत का काम छोड़कर उसे कंधे पर बिठाकर आपको सुनने न कभी जाएंगे, न आपके मर जाने पर ट्रेन की एक समूची बोगी खामोश हो जाएगी।
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June 16, 2021
बॉम्बे से चिट्ठी बनारस के नाम !
गुरु,तुमने आज हाल-चाल पूछा है। पूछा है, “कहो कैसे हो बम्बइया बाबू ? कइसा लग रहा है बम्बई में,याद नहीं आती न अब बनारस की ?”
अरे! बस करो यार,रुलावोगे क्या मरदे ?
ये तो कुछ ऐसा ही सवाल हुआ कि पुरानी महबूबा चार साल बाद फोन करके पूछे,”मेले लाजा बाबू को मेली याद नहीं आती न ?”
गुरु कसम तिरलोचन महादेव की। जब-जब मरीन ड्राइव पर खड़ा हुआ,तब-तब मिज़ाज का नाधी-धीना हो गया। तुम दिल में बजने लगे गुदई महराज के उस ‘परन’ जैसे..
“कत धिकिट कत गदिगन..”
अब तुम ऐसा सेंटीयाह सवाल करो, तो दिल हमारा गोदौलिया चौराहे की तरह झट से जाम नहीं होगा तो क्या होगा ?
इसलिए बिना ताम-झाम के सुनों,एक मज़ेदार बात बताता हूँ। जानते हो ?
इन बम्बई वालों का बस चले तो ई सब चावल,दाल और सब्जी में भी ‘वड़ा पाव’ डाल दें।
चावल-दाल छोड़ दो। लिट्टी और चोखा में चोखा हटाकर ‘मिसल’ रख दें और मुस्कराते हुए पूछें,”कहो गुरु कैसा लगा..?”

गुरु,तुमही बताओ…साँझ को बीएचयू से क्लास करके लौटते समय उ चचिया की दुकान पर खड़े-खड़े गर्मा गरम लौंगलता और तीखी चटनी के साथ छोला समोसा खाकर अस्सी के ‘काशी टी स्टॉल’ पर अदरक वाली कड़क चाय पीने वाला लड़का कैसे कह दे कि ‘वड़ा पाव’ अच्छा लगा ?
लेकिन गुरु, कहना पड़ता है। इन दस सालों में तुमने ही तो हमें सिखाया कि प्रेम में “जहर-पाव” भी खाया जा सकता है। ये तो “वड़ा-पाव” ही है।
बस गुरु, ई बूझो की महादेव का प्रसाद समझकर प्रेम से खा लेते है।
लेकिन जानते हो, दोस्तों की आंखें मेरे इस “अच्छा लगा” के मर्म को समझ जाती हैं। कभी-कभी तो इतना डर लगता है की कोई ये न कह दे कि तुम तो शाकाहारी हो बे..!
अबे अस्सी-घाट से राजघाट तक को अपनी दुनिया और बलिया वाली हाथी के कान जैसी पुड़ी-बुनिया को अपनी कनिया समझने वाले ?
चावल,दाल फ्राई के साथ थोड़ा सा शुद्ध घी और भिंडी की क्रंची भुजिया में ही आनंदित हो जाने वाले। खीर को अमृत। लिट्टी-चोखा को जादू। और खीचड़ी,दही,अंचार,पापड़ के आविष्कार को नमस्कार करने वाले ? तुम खाए क्या हो बे अपने जीवन में. ?
अबे देहाती-भूच मानुष ? तुम क्या जानो बे ‘वड़ा पाव..!’
अबे,निरहुआ की फिलिम देखने वाले,ये डेविड फिंचर का सिनेमा है।”
गुरु,जानते हो,डरकर चुप-चाप खा लेता हूँ। लेकिन कई बार मन बिजुक जाता है।
ई बुझ लो कि इन्फिरियारटी काम्प्लेकसवा घेर लेता है। लगता है,”हं होगा, ज़रूर अच्छा होगा.. अब हमें अच्छा नहीं लग रहा तो कोई न कोई दोष तो हमारे अंदर ही होगा।”
गुरु,कैसे कह दें कि तुमने दस साल में हमारी जीभ को बिगाड़ दिया है। अब बताओ भला,जो दस साल बनारस रह गया।
जिसने सुबह उठकर कड़ाही में किसी कुशल नृत्यांगना सी कथक करती गोल-गोल प्यारी-प्यारी कचौड़ीयों को चख लिया।

जिसने कचौड़ी के साथ आलू-गोभी,मटर,टमाटर और पनीर की रसदार सब्ज़ियों के साथ,कुरकुरी जलेबी और दही खा ली।

जिसने साँझ को मारवाड़ी अस्पताल के सामने वाली गली में दस रूपया में मिल रही खट्टी-मीठी चटनी और शीशे की गोली जैसी नन्हीं-नहीं कचौड़ीयों में चने का छोला डालकर खा लिया।
जिसने सकौड़ा,पकौड़ा,टिकरी, ख़ुरमा,मखनिया उत्तपम,रबड़ी, मलइयो,लस्सी और ठंडई के बाद ‘काशी चाट भंडार’ पर अमृत समान ‘टमाटर चाट’ खा लिया!

उसे ‘वड़ा पाव’ कैसे सही लगेगा गुरु ?
लेकिन का करोगे.. मन मारकर “सही लगा” कहना पड़ता है।
सोचता हूँ,ये भी तो अपना देश है,अपने लोग हैं।
स्थानीयता का सम्मान भी कोई चीज है। शायद खान-पान की यही विविधता तो भारत को भारत बनाती है।
अच्छा,छोड़ो.. एक दिन अख़बार में पढ़े कि गोदौलिया चौराहे पर चार मंजिला मल्टी स्टोरी पार्किंग बन गया गुरु..!
गुरु,उ बिल्डिंग का फट्टो देखकर आँख में ही नहीं,दिल में हमारे खुशी का लहर लेस दिया। इसलिए नहीं कि मल्टीस्टोरी पार्किंग बिल्डिंग बन गया।
इसलिए कि बनारस की आत्मा पर सैकड़ों साल से कलंक जैसा गन्ध मचा रहा कूड़ा घरवा हमेशा के लिए हट गया।

बाकी हम देखे,कोरोना में तुमने कितना कष्ट झेला है।
सच कहूं गुरु तो बनारस के हालात देखकर तो रोना ही आता था। समझ में नहीं आता था कि बूजरो के करोनवा कहाँ से आकर पूरी दुनिया को तबाह कर दिया है।
लेकिन जाने दो,निपट गया है अब,फिर तुम तो मस्त मौला शहर हो। धरती पर हर्ष-विषाद,जीवन-मृत्यु और रंग-भंग के इकलौते संतुलित राग.. !
तुम्हारा कोई क्या बिगड़ेगा। अब तो तुमसे दूर रहकर मुझे यही एहसास होता है कि जिस दिन बनारस समझ में आ जाता है। उसी दिन छूट जाता है।
बस-बस,यही मेरे साथ हुआ है। समझ में आते ही छूट गया है।
लेकिन गुरु, तुम तो दिल में हो,सांस बनकर धड़क रहे हो।
आऊंगा अक्टूबर में…अभी तो पंचगंगा घाट पर कवि जगन्नाथ की ‘गंगा लहरी’ का पाठ करके गंगा स्नान करना बाकी है।
जानते हो एक खूबसूरत बात ?
जब क्षत्रपति शिवाजी महाराज जब मुगलों के चंगुल से भागे थे, तब बनारस जाकर पंचगंगा घाट पर ही स्नान किये थे।
वो पंचगंगा घाट,काशी और महाराष्ट्र का मिलन बिंदु है।
जिस दिन बम्बई से आया,उसी दिन जाऊंगा।
तब तक,हर-हर महादेव।
तुम्हारा
अतुल कुमार राय
सांता क्रूज ईस्ट
मुम्बई
June 9, 2021
भोजपुरी संगीत अश्लील क्यों है ? ( इतिहास और वर्तमान पर एक नज़र )
वो साठ का दशक था,तब मनोरंजन के इतने साधन नहीं थे। ले-देकर दशहरा के समय दरभंगा और अयोध्या से आने वाली रामलीला मण्डली का आसरा था। कहीं से गाँव के खेलावन बाबा को पता चलता कि इस महीने गाँव में होने वाली यज्ञ में वृन्दावन से रासलीला मण्डली आ रही है,फिर तो उनके चेहरे की ख़ुशी देखते बनती थी।
इधर राजाराम पांड़े और पतिराम मिसिर को शादी-ब्याह के मौसम में आने वाली नाँच और मेले-ठेले में होने वाली नौटँकी का बड़ी जोर-शोर से इंतजार रहता था।
उधर गाँव के कुछ उत्साही सनूआ-मनूआ द्वारा दशहरा-
दीपावली में ड्रामा भी किया जाता था।
हां, गाँव-जवार में बिजली अभी ठीक से आई नहीं थी।
दूरदर्शन के दर्शन की कल्पना भी बेमानी थी। किसी गाँव में डेढ़ मीटर लम्बी रेडियो आ जाए तो आस-पास गाँव वाले साइकिल से सुनने पहुंच जाते थे।
तब भोजपुरी के पहले सुपरपस्टार भिखारी ठाकुर की लोकप्रियता आसमान छू रही थी। बलिया से लेकर बंगाल और आसाम से लेकर आसनसोल तक वो जहाँ भी,जिस मौके पर जाते,वहाँ खुद-ब-खुद मेला लग जाता था।
उनके इंतजार में लोग ऊँगली पर दिन गिनना शुरू कर देते थे। उनका नाटक गबरघिचोर हो या गंगा स्नान, विदेसिया हो या बेटीबेचवा लोग हंसते-हंसते कब रोने लगते,किसी को कुछ पता नहीं चलता था।
“करी के गवनवा भवनवा में छोड़ी करs
अपने परइलs पुरूबवा बलमुआ..”
ये बच्चे-बच्चे को जबानी याद था। क्योंकि इन नाटकों के गीत महज गीत नहीं थे। इन नाटकों के संवाद महज संवाद नहीं थे।
वो मनोरंजन भी केवल मनोरंजन नहीं था,बल्कि वो मनोरंजन का सबसे उदात्त स्वरूप था, जहाँ भक्ति, प्रेम और वात्सल्य के साथ हास्य-व्यंग्य का उच्चस्तरीय स्तर मौजूद था।
जहाँ स्त्री विमर्श की गहन पड़ताल थी, तो सामाजिक- आर्थिक विसंगतियों पर एक साथ चोट की जा रही थी। कुल मिलाकर तब भिखारी सिर्फ एक कलाकार न होकर एक समाज-सुधारक की भूमिका में थे।
वही दौर था भिखारी के समकालीन छपरा के महेंदर मिसिर का। दोनों में खूब दोस्ती थी।
बच्चा-बच्चा जानता कि भिखारी खाली समय में अगर कुतुबपुर में नहीं हैं,तो वो पक्का मिश्रौलिया में होंगे। अपने समय के दो महान कलाकारों की इस गाढ़ी मित्रता की कल्पना मेरे जैसे कई संगीत के विद्यार्थियों के चित्त आनंदित करती है…
“अंगूरी के डसले बिया नगिनिया रे ए ननदी संइयाँ के बोला द..”
“भला कौन पूरबिया होगा भला जिसे इतना याद न होगा..” ?
लेकिन साहेब भिखारी-महेंदर मिसिर के बाद एक झटके में जमाना बदला। तब सिनेमा जवान हो रहा था। भोजपुरी में भी तमाम फिल्में बननें लगीं थी।
गाजीपुर के नाजिर हुसैन और गोपलगंज के चित्रगुप्त नें चित्रपट में ऐसा जादू उतारा कि आज भी वो फ़िल्में, वो संगीत मील का पत्थर हैं।
लेकिन हम इस लेख में मुम्बई और सिनेमा की बात नही करेंगे..क्योंकि तब गाँव में धड़ल्ले से नांच पार्टी खुल रहीं थीं।
हर जिले में ढोलक के साथ बीस जोड़ी झाल लेकर गवनई पार्टी वाले व्यास जी लोग आ गए थे। ये व्यास जी लोग “मोटकी गायकी” के व्यास कहे जाते थे।
ये व्यास लोग रात भर रामायण महाभारत की कथा को वर्तमान सन्दर्भों के साथ जोड़कर सुनाते। सवाल-जबाब का लम्बा-लम्बा प्रसङ्ग चलता। बिहार के गायत्री ठाकुर जब हवा में झाल लहरा के गाते…
“चलत डहरिया पीरा जाला पाँव रे
जोन्हीयो से दूर बा बलमुआ के गाँव रे…”
तो श्रोताओं के हाथ अपने आप जुड़ जाते थे, क्योंकि इस गीत में बलमुआ का मतलब उनके पतिदेव से नहीं, बल्कि ईश्वर से था।
इधर उनके जोड़ीदार बलिया यूपी के बिरेन्द्र सिंह ‘धुरान’ भी माथे पर पगड़ी बांध,मूँछों पर ताव देकर ललकारते…तो अस्सी साल के बूढों की बन्द पड़ी धमनियों का रक्त संचरण अपने आप बढ़ जाता।
ये जोड़ी पुरे भोजपुरिया जगत में प्रसिद्ध थी। इन दोनों के चाहने वालों की लिस्ट में टी-सीरीज के मालिक गुलशन कुमार भी शामिल थे।
और इन गायत्री-धुरान नामक दो घरानों नें भोजपुरी को सैकड़ों गायक दिए..ये परम्परा आज वटवृक्ष का आकार ले चुकी है।
फिर आते हैं..भोजपुरी की मेहीनी परम्परा में..धीरे-धीरे समय बदला.. अस्सी का दशक आया…मुन्ना सिंह और नथुनी सिंह का,
भला कौन होगा,जिसे ये गाना याद न होगा ?
“जबसे सिपाही से भइले हवलदार हो
नथुनिए पर गोली मारे संइयाँ हमार हो..”
तब तब टेपरिकार्डर और आडियो कैसेट मार्किट में आ गए थे।
शहरों से निकलकर गाँव-गाँव इनकी पहुंच आसान हो गई थी।
उस समय कैसेट गायकों को बड़े ही सम्मान के साथ देखा जाता था। क्योंकि गायक बनना आसान नहीं था और कैसेट कलाकार बनना तो अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि थी।
तब वीनस और टी-सीरीज जैसी म्यूजिक कम्पनियाँ कलाकारों को बुलाकर रिकॉर्डिंग करातीं थीं.
और ये म्यूजिक कम्पनियां उन्ही गायकों का कैसेट बनातीं थीं जिनकी आवाज में कुछ ख़ास होता था।
जिनको दो-चार हजार लोग जानते-पहचानते थे। शायद इसी वजह से जिस गायक का बाजार में कैसेट होता था, उसका मार्किट टाइट हो जाता था।
उसे फटाफट दूर-दूर से प्रोग्राम के ऑफर आने लगते थे। बाकी लोग उससे हड़कते थे, “अरेs मरदे कैसेट के कलाकार हवन…दूर रहा…”
.
उसी समय कुछ अच्छे गाने वाले हुए..बिहार में शारदा सिन्हा जी का गाना..
“पटना से बैदा बोलाई दs हो, नज़रा गइली गुईयाँ”
जब कुसुमावती चाची सुनतीं तो उनका चेहरा ऐसा खिल जाता,मानों किसी ने उनके दिल की बात कह दी हो…उसी दौर में भरत शर्मा व्यास जब गाते…
“कबले फिंची गवना के छाड़ी,हमके साड़ी चाहीं.”
तो बलिया जिला के रेवती गाँव में गवना करा के आई मनोहर बो अपने मनोहर को याद करके चार दिन तक खाना-पीना छोड़ देतीं।
वहीं नया-नया दहेज हीरो होंडा पाया सिमंगल तिवारी का रजेसवा जब गांजा के बाद ताड़ी पीने में महारत हासिल कर लेता तो कहीं दूर हार्न से भरत शर्मा की आवाज आती..
“बन्हकी धराइल होंडा गाड़ी
हमार पिया मिलले जुआड़ी.”
फिर इन्हीं भरत शर्मा की ऊँगली थामकर निकले कुछ और गायक…जिनमे हमारे बलिया की शान मदन राय,गोपाल राय और रविन्द्र राजू जैसे गायक हैं…आज भी मेरे प्रिय गायक गोपाल राय गाते हैं…
“झुमका झुलनी चूड़ी कंगन हार बनववनी
उपरा से निचवा से तहके सजवनी
सोनरा के सगरो दोकान लेबु का हो
काहें खिसियाईल बाड़ू जान लेबू का हो..”
तो मन करता है कि इसी खरमास में कोई बढ़िया दिन देखकर बियाह कर ले और तब इस गाने की अगली लाइन सुनें…!
इसमें कोई शक नही है कि..आज भी भरत शर्मा के साथ-साथ मदन राय, गोपाल राय,विष्णु ओझा भोजपुरी के सर्वकालिक लोकप्रिय गायक हैं…कोई स्टार बने या बिगड़े..न इनका महत्व कभी कम हुआ,न ही होगा…आज भोजपुरी संगीत में जो कुछ भी सुंदर हैं..इन्हीं जैसे गायकों की देन है।
लेकिन आइये इधर..नब्बे का दशक बीत रहा था। ठीक उसी उसी समय एकदम लीक से हटकर एक और गायक कम नेता जी आ गए।
वो थे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में बीपीएड की पढ़ाई कर रहे मनोज तिवारी ‘मृदुल’..दो शैली यहाँ हो गयी भोजपुरी में…एक भरत शर्मा व्यास वाली शैली थी…दूसरी थी मनोज तिवारी वाली शैली.
शर्मा जी वाली शैली में अभी भी गायत्री ठाकुर और व्यास शैली का प्रभाव था.लेकिन मनोज तिवारी ने लीक बदल दिया…
“लल्लन संगे खीरा खाली सुनें प्रभुनाथ गाली
घायल मनोज से बुझाली बगलवाली जान मारेली..”
गायकी के इस नए अंदाज नें युवाओं के बीच धूम ही मचा दिया। धीरे-धीरे इसमें स्टेज पर लेडिज डांसर के संग नृत्य का तड़का भी दिया जाने लगा। और ये क्रम लम्बा चला।
फिर साहेब आ जातें है सीधे 2002 में… मार्केट में आडियो और वीसीआर को चुनौती देने के लिए आ गया सीडी कैसेट। अब हाल ये हुआ कि टाउन डिग्री कालेज से मेलेट्री साइंस में बीए करके गाँव के मनोजवा,करिमना चट्टी-चौराहे पर सीडी की दुकानें खोलने लगे।
यहां तक कि चट्टी के गुप्त रोग स्पेशलिस्ट सुखारी डाक्टर के मेडिकल स्टोर पर भी फ़िल्म सीडी मिलने लगी। जहाँ सुविधानुसार हर तरह की फिल्में यानी लाल,पिली,नीली किस्म की फिल्में आसानी से मिल जातीं थीं।
मुझे याद नहीं कि नानी का गेंहू बेचकर भाड़े पर मिथुन चक्रवर्तीया और सनी देवला की कितनी फिल्में देखीं होंगी।
तब जिनके यहाँ गाँव में पहली दफा सीडी आई थी, उनके यहाँ बिजली आते ही मेला लग जाता था। इस माहौल को ध्यान रखते हुए उस समय भोजपुरी की म्यूजिक कम्पनियों ने एक नया ट्रेंड निकाला…वो था भोजपुरी म्यूजिक वीडियो सीडी…!
टी सीरीज तब भी इस मामले में नम्बर एक थी।
उसने मनोज तिवारी के सुपरहिट एल्बम बगल वाली,सामने वाली, ऊपर वाली, नीचे वाली, पूरब के बेटा, सबका वीडियो बना डाला..!
फिर हुआ क्या कि लोग जिसे आज तक आडियो में सुनते थे..और कैसेट के रैपर पर छपे गायक को बड़े ध्यान से देर तक देखते थे.. लोग उसे वीडियो में नाँचते-और झूमते देखने लगे।
इसी चक्कर में टी-सीरीज ने भरत शर्मा और मदन राय के तमाम पुराने गीतों का इतना घटिया फिल्मांकन कर दिया,जिसकी कल्पना आप नहीं कर सकते हैं.. वो घटिया इस मामले में कि गाने का भाव कुछ और तो वीडियो में कुछ और दिखाया जाने लगा।
तब तक आँधी की तरह असम से आ गई कल्पना..
“एगो चुम्मा ले लs राजाजी.. बन जाई जतरा..”
बिहार के भूतपूर्व संस्कृति मंत्री बिनय बिहारी जी के इस गीत ने मार्केट में तहलका मचा दिया और करीब एक साल तक इस गीत का जबरदस्त प्रभाव रहा।
इसी क्रम में…डायमंड स्टार गुडडू रंगीला,सुपर स्टार राधेश्याम रसिया और सुनील छैला “बिहारी” को याद करने के लिये मुझे अलग से लिखना पड़ेगा।
लेकिन आतें हैं..जिला गाजीपुर के दिनेश लाल यादव “निरहुआ..” पर….
“बुढ़वा मलाई खाला बुढ़िया खाले लपसी
केहू से कम ना पतोहिया पिए पेपसी “
दिनेश लाल के इस खांटी नए अंदाज को जनता नें हाथो-हाथ लिया। फिर क्या था ? टी-सीरिज ने झट से इस मौके को लपका और मार्किट में आ गया उनका अगला एल्बम….
“निरहुआ सटल रहे”
इस कैसेट के आते ही समूचे भोजपुरिया जगत में धूम मच गई..और हाल ये हुआ कि कुछ दिन पहले महज कुछ हजार लेकर घूम-घूम बिरहा गाने वाले दिनेश लाल यादव रातों-रात स्टार हो गए।
ठीक उसी समय कुलांचे भरने लगा आरा जिला का एक और सीधा-साधा सा गायक। जिसकी आवाज किसी निमोनिया के मरीज की आवाज की तरह लगती थी।
आज दुनिया उसको पवन सिंह के नाम से भले जानती है,लेकिन पवन अपने शुरुवाती दिनों में सबसे मरीज किस्म के गायक हुआ करते थे।
शायद ईश्वर की कृपा..कुछ ही सालों में पवन की आवाज में निखार और भाव आना शुरू हुआ और वो मार्किट में टी सीरिज से वीडियो सीडी लेकर आ गए..
“खा गइलs ओठलाली”..
एकदम आर्केस्ट्रा के अंदाज में.. मूंछो वाले दुबले-पतले पवन सिंह एक्टिंग और डांस के नाम पर दाएं और बाएं हाथ को हिलाते हुए..गाते कि..
“रहेलाs ओहि फेरा में बहुते बाड़ा बवाली..”
तो हम जैसे सात में पढ़ने वाले लड़कों को भी इस बेचारे गायक पर तरस आता.. लेकिन “निरहुआ सटल रहे” की ऊब के बाद पवन ने मार्केट में एक नए किस्म का टेस्ट दे दिया..उनका एल्बम तब बजाया जाता,जब लोग “निरहुआ सटल रहे” दो-चार बार सुनकर ऊब जाते..
उधर समय बदला निरहुआ स्टार होकर फिल्मों में चले गए मनोज तिवारी स्टार हो चुके थे.. एक के बाद एक उनकी फिल्में सुपरहिट हो रहीं थीं..तब तक पवन सिंह फिर आ गए..
“कमरिया करे लपालप लॉलीपॉप लागेलू”
ज़ाहिद अख़्तर के लिखे इस एक गीत ने मार्केट में धूम मचा ही दिया…सिर्फ राष्ट्रीय नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ये आज भी भोजपुरी का सर्वाधिक लोकप्रिय गीत है, जिस पर हमें समझ नहीं आता कि गर्व करें या शर्म करें…!
लेकिन ठीक इसी गीत से शुरु हुआ भोजपुरी संगीत का “पवन सिंह युग उर्फ़ लॉलीपॉप युग”….जो लगातार पांच साल तक अनवरत चला।
देखते ही देखते पवन ने म्यूजिक का ट्रेंड ही बदल दिया।
एकदम बम्बइया सालिड डीजे टाइप का म्यूजिक…और हर एल्बम में हर वर्ग के लिए हर किस्म के गाने गाए..
ये दौर ऐसा चला कि नवरात्र हो या सावन,होली हो या चैता। जहाँ भी जाइए बस पवन सिंह,नही तो पवन सिंह टाइप के गानें….
हाल ये हुआ कि भोजपुरी मने पवन सिंह हो गया।
पवन ने कुछ साल तक एकक्षत्र राज किया और झट से फिल्मों में मनोज तिवारी, निरहुआ के बाद तीसरे गायक अभिनेता हो गए औऱ उनकी फ़िल्म आई..
“रंगली चुनरिया तोहरे नाम”
इसके बाद पवन की स्टाइल में कुछ बाल गायक भी पैदा हुआ…जैसे कल्लू और सनिया….
“लगाई दिही चोलिया में हुक राजा जी…और ओही रे जगहिया दांते काट लिहले राजा जी”.. ये एक साल तक खूब बजा..!
जिसका असर ये हुआ कि बड़े-बड़े लोग अपने बेटे-बेटी को पढ़ाई छुड़ा के अश्लील गायक बनाने लगे। खेत बेचके एल्बम की शूटिंग होने लगी।
क्योंकि लोगों के दिलो में ये बात समा गयी कि एक बार बेटा चमक गया तो हम जीवन भर बैठकर खाएंगे।
इधर पवन के फिल्मों की तरफ जानें के बाद कुछ ही साल में आ गए सिवान के खेसारी लाल यादव…एकदम देशी अंदाज.. शादी ब्याह में औरतों के गाए जाने वाले गीतों की धुन…उन्हीं के अंदाज में।
बस जरा अश्लीलता की छौंक और गवनई का तड़का..
अब जो पवन सिंह ने भोजपुरी को धूम-धड़ाका और डीजे में बदल दिया था..उसे खेसारी लाल ने एकदम देहाती संगीत यानी झाल, ढोलक, बैंजो,क्लीयोरनेट वाले युग की तरफ़ मोड़ दिया..
इस मुड़ाव के बाद हुआ क्या कि पांच साल से रस-परिवर्तन खोज रही जनता ने इसे भी हाथों-हाथ ले लिया.
कौन ऐसा भोजपुरिया कोना होगा “संइयाँ अरब गइले ना” नहीं बजा होगा..”
कौन ऐसा रिक्शा, ठेला, जीप, बस, ट्रक वाला नही होगा जो खेसारी के गीतों से अपनी मेमोरी को फूल न कर लिया होगा..
इधर कुछ सालों में फिर समय बदला है..मनोज तिवारी, निरहुआ, पवन सिंह के बाद खेसारी लाल यादव,राकेश मिश्रा,रितेश पांडेय,कलुआ सब फिल्मी दुनिया के हीरो हो गए हैं।
और इस ट्रेंड नें स्ट्रगल कर रहे भोजपुरिया गायकों के दिमाग एक बात भर दिया कि “गायकी में हीट तो फिलिम में फीट” अब हर भोजपुरी गायक खुद को गायक नहीं हीरो मानने लगा है।
इधर आडियो गयावीडियो सीडी गया.. हाथों-हाथ आ गया स्मार्ट फोन.. पेनड्राइव, लैपटाप, डाऊनलोड और डिलीट।पन्द्रह सेकेंड के शॉर्ट्स वीडियोज और रील का जमाना..
इसी चक्कर में भोजपुरी की म्यूजिक इंडस्ट्री भी एकदम से बदल गयी है। कई छोटी म्यूजिक कम्पनियां बिक गयीं।
कारण बस ये कि आज हर जिले में एक दर्जन म्यूजिक कम्पनी हैं तो डेढ़ दर्जन रिकॉर्डिंग स्टूडियोज, जिनमें हर जिले के हज़ारों भोजपुरी गायक गा रहे हैं, तो क़रीब लाख अभी रियाज कर रहें हैं।
हर गांव में पच्चीस गायक अभिनेता हैं.. जो एक घण्टे में हिट होकर मनोज,निरहुआ, पवन और खेसारी की तरह मोनालिसा के कमर में हाथ डालना चाहतें हैं।
इस हीरो बनने के चक्कर में इनके गाने सुनिए तो वो सीधे सम्भोग से शुरू होते हैं और सम्भोग पर ही आकर खत्म हो जातें हैं.. यानी “तेल लगा के मारम, त पीछे से फॉर देम, त तहरा चूल्हि में लवना लगा देम, त सकेत बा ए राजा अब ना जाइ.त खोलs की ढुकाइ….!
ये छोटी सी बानगी भर है…. यू ट्यूब खोलिये तब आपको पता चले कि जो जितना नीचे गिर सकता है.. उतना ही वो सुपरहिट है..

इसका बस एक ही कारण है..वो है “व्यूज”
आज भोजपुरी में सफलता का मानक मिलियन व्यूज बन गया है। किसका कौन सा गाना कितनी देर यू ट्यूब इंडिया की टाइम लाइन पर ट्रेडिंग में हैं.. ये तय कर रहा है।
किस गीत पर कितने मिलियन शॉर्ट्स वीडियोज और रील बन रहे हैं… ये कर रहा है।
और इस मिलियन व्यूज की सत्ता उन लोगों के हाथ मे चली गई है जो सामान्यतः अनपढ़ हैं..
इन्हें न भोजपुरी की लोक संस्कृति का ज्ञान है,न ही संस्कारों का…न ही अपने घर से डर है,न ही समाज से।
इनके लिए हर हाल में व्यूज महत्वपूर्ण है।
इस खेल में पहले सिर्फ टी सीरीज और वीनस थी,अब बड़े बड़े कारपोरेट इसमें कूद पड़े हैं। सबको हर हाल में व्यूज चाहिए।
इनको हर हफ़्ते गाने बनाने हैं…हर हफ्ते चैनल के इंगेजमेंट बढाने हैं..
तो हर हफ़्ते नया मसाला चाहिए…
इसलिए अब सारी बड़ी कंपनीयाँ उसी गीत-संगीत में पैसा लगाना चाहतीं हैं जो इंटरनेट पर जल्दी-जल्दी पापुलर हो जाए। जिसको अपना यू टयूब चैनल बड़ा करना है..उसकी जरूरत ये भोजपुरी स्टार पूरी करते हैं..
आज एक-एक गीत गाने के तीन से पाँच लाख रुपये मिल रहे हैं..
म्यूजिक कम्पनियो की चांदी का समय अब आया है।
इस कम्पटीशन में एक-एक गाने पर दस-दस लाख रुपये खर्च हो रहें हैं…
यू ट्यूब पर ताजा आया खेसारी का गीत “चाची के बाची” और “खेसरिया के बेटी” इसी व्यूज के भेड़ियाधसान से निकली एक घटना है।

भोजपुरी के एक लाख गायक जो स्टार बनने का सपना पाले हुए हैं.. वो यही काम कर रहें हैं..
व्यूज लाने के लिए कुछ भी गाने का काम..
जिसे सुनकर आप कहेंगे कि हाय ! ये महेंद्र मिसिर, भिखारी ठाकुर.. भरत शर्मा और शारदा सिन्हा मदन राय और गोपाल राय की भोजपुरी को क्या हो गया ?
लेकिन समाधान कैसे होगा ?
जी समाधान तो तब होगा,जब इन्हीं के अंदाज में इन्हीं के हथियारों से इन्हीं के खिलाफ इनसे लड़ा जाएगा..लेकिन लड़ाई होगी तो कैसे.. महज दो-चार लोग.. इन लाखों का सामना कैसे करेंगे..?
ये भी हो सकता था।
लेकिन कौन समझाने जाए,हर जनपद में बने उन भोजपुरी अस्मिता के तथाकथित संगठनों को,जिनमें दूर-दूर तक कहीं एकता नहीं है। कोई किसी के प्रयास को बर्दास्त नहीं कर सकता है।
दरअसल इनकी गलती भी नहीं है। भोजपुरी के नाम पर बने ये संगठन छठ घाट पर भोजपुरी की अस्मिता से ज्यादा व्यक्तिगत राजनीति चमकाने वाली दूकान बनकर रह गए हैं।
भोजपुरी बुद्धिजीवियों और भोजपुरीया अनपढ़ गायकों की संयुक्त मार से आहत है।
बुद्धिजीवी ये समझते हैं कि समस्त भोजपुरी बेल्ट की जनता उनकी तरह ही बुद्धिजीवी हैं..ये अनपढ़ ये समझते हैं..की सब लोग मूर्ख हैं… चाची के बाची में क्या बुराई है ?
अब चाची के बाची वालों ने अपनी बर्बादी की तरफ कदम रख दिया है।
लेकिन उनको रिप्लेस कौन करेगा… कैसे होगा ?
किसी को पता नहीं… ये अलग विषय है,जिस पर एक अलग से लेख लिखूँगा…
बस आपको और हमको..सबको मिलकर बेहतर और साफ़-सुथरा कंटेंट प्रमोट करना पड़ेगा..क्योंकि आज भी अच्छा सुनने वालों की कमी नहीं है…
वरना भोजपुरी तो अश्लीलता का पर्याय बन ही चुकी है…
आज नही तो कल, संविधान की आठवी अनुसूची में भी शामिल हो हो जाएगी,लेकिन फायदा क्या होगा जब भोजपुरी में भोजपुरी गायब हो जाएगी।शरीर से आत्मा ही निकल जाएगी.और रह जायेगा मृतक शरीर के रूप में अश्लीलता.सिर्फ अश्लीलता…!
( इसमें बहुत कुछ छूट रहा है.अगले भाग का इंतज़ार करें.. )
©- atulkumarrai.com
June 1, 2021
कैम्पस एक बगीचा है,जिसमें हमें सींचा जाता है..!
कॉलेज का पहला दिन ! आसमान में धूप और बादलों की जंग जारी है,लेकिन इधर तो खुशी बिन बादल के बरस रही है।
एक देहात के स्कूल से पहली बार केन्द्रीय विश्वविद्यालय का छात्र होना,कितना आह्लादित कर रहा है। ये हमारे क़दमों की चाल देखकर समझा जा सकता है।
लेकिन ये क्या ? अभी हमारी सारी खुशी बीएचयू का नक्शा समझने में ही समाप्त हो रही है। आज फीस जमा करने की आखिरी तारीख़ है और घड़ी बारह बजाने को आई है।
देख रहा अपने संकाय के कार्यालय में मेरे जैसे दर्जनों विद्यार्थी अपने हाथों में ज़रूरी कागज़ातों को लेकर किसी खूबसूरत मुज़रिम की तरह लाइन में खड़े हैं। एक बंगाली कम बनारसी दादा केशव का पान मुँह में घुलाकर फोन पर बतियाए जा रहें हैं…
“ए,दादा,हटो-हटो.. आमरा एती कोरबो ना ?”
“अरे! दादा, कम से कम मेरा काम तो कर दीजिए…!”
दादा हैं कि फोन रखने का नाम नही ले रहें हैं। उनकी भौहें उनके शरीर के बढ़ते तापमान की गवाही दे रहीं हैं..!
इधर नवोदित छात्रों के चेहरे पर प्रसन्नता किसी छप चुके अख़बार की तरह साफ़-साफ़ पढ़ी जा सकती है।
“रे शिवमवा, ई पियरकी शूटवा वाली अइसे ही खड़ा रहेगी तो साला आज क्या रे ,हम तीन साल तक लगातार रोज फीस जमा करते रहेंगे…!
“रे! रे! चुप ससुर डीन सर,सामने हैं..समझ नहीं आता..बकलोल की तरह कुछु बके जाते हो..?”
“बाप रे! ई डीन हैं..?
“तब क्या तुमको नहीं पता ?”
“नहीं रे,इनके सर पर तो सिंग नहीं दिख रहा है,पशु अस्पताल में दगवा दिए हैं क्या बे ?”
“चुप-चुप उधर देखो…!”
इधर लिपिक जी बेचारे !…. अपने सर के ऊपर बढ़ती भीड़ से परेशान हो रहें हैं। सामने मेज पर रखा पान का दूसरा बीड़ा खाए जानें का इंतज़ार कर रहा है। लेकिन अब उनके पास समय नहीं है।
अचानक उनका गुस्सा बढ़ जाता है…फलस्वरूप अब ठेठ बंगाली टोला वाली बनारसी उनके जबान पर टपक पड़ी है।
“हमरे मथवा पर लिखल हौ ?”
“नहीं सर!”
“कहाँ घर है जी तुम्हारा ?”
“बलिया जिला सर !”
“बलिया जिला हौ त,जिए न देबा ?”
” तनी एहर हो जा भाय, गर्मी देखत हवा..”
उनके बगल में बैठे रामनगर के क्लर्क समझा रहें हैं…!
“फीस कहाँ जमा होगा सर ?”
“सेंट्रल ऑफ़िस !”
“यहां जमा नहीं होगा ?”
“नहीं, कितना बार समझाए एक्के बात…? एकदम मूर्ख हो क्या ?”
“सर,हम पहली बार बीएचयू में आएं हैं…!”
पसीने में भीगा लिपिक दादा अब बन्द पड़ी एसी की तरफ देखकर भड़क जाते हैं..
” तो हई लोग का अपने बाबूजी के ससुरारी आइल हौ ?”
“ही ही ही…”
लौंडों की वही हँसी.. लड़कियाँ बेचारी मुंह छिपाकर अलग हंस रहीं हैं।
लेकिन ई देखो शिवम जरा फर्जीवाड़ा..
दादा उनसे तो ऐसे बात कर रहें हैं,जैसे अपनी सगी बेटी हो और हम लड़को में कौन सा कांटा लगा है ?
अब हमें डाँट पड़ रही है।
इधर एक दूसरे बुजुर्ग हो गए लिपिक की तीखी बातें लंका की चचिया वाली कचौड़ी और गाली से कम करारी नहीं लग रही है।
दिन के एक बजने को हैं…हम बाहर निकल आए हैं…!
“अब बड़ी समस्या तो ये है कि साला ये सेंट्रल ऑफिस कहाँ है यार ? “
“होगा कहीं इसी में यार..!”
मने, मालवीय जी भी गजबे आदमी थे गुरु ! फिरी का जमीन मिल गया तो हेंगा लेकर जोत दिए…घर बनवाए यहां और किचन और स्टोर रूम बनवा दिए दो किलोमीटर दूर…! दौड़ते रहो केतली लेकर…”
“इतना बड़ा कहीं कॉलेज होता है यार ? “
“एक ऑफिस यहां,एक ऑफिस लन्दन..”
चलो पैदल…. !
सब पैदल चल रहे हैं..आज बाइक और साइकिल रखने वाला हमें प्राइवेट जेट के मालिक जैसा लग रहा है।
कुछ सीनियर लौंडे श्रृंगार करके खड़े हैं कि कोई नई कन्या आकर कह दे कि भइया ये सेंट्रल ऑफिस कहाँ है.. और वो उसे बाइक पर बिठाकर फीस जमा करवा आएं… !
उनको देखकर हमें गुस्सा आ रहा है..कभी-कभी अपने लड़के होने पर भी लड़को को तरस आती है यही बात एक लड़का समझा रहा है। काश हम सुंदर लड़की होते….!
“अरे ! चलो आ गया यार…ई बुझ लो ,सेंट्रल ऑफ़िस बीएचयू के टॉवर ह! उ न रही त सब टॉवर के खूँटी भाग जाई…!
अब भइया पीठ पर बस्ता लेकर हम सब मुँह लटकाए टॉवर की तरफ चले जा रहें हैं। इधर पियरका शूटवा वाली हरियरका शर्ट वाले के साथ बाइक पर बैठकर किधर गई किसी को कुछ पता नहीं…!
हमारे करेजा पर सांप लोट रहा है।
हमें तो अभी कुल जमा दो दिन आए हुए हैं.. न साइकिल है,न मोटरसाइकिल..न कोई दोस्त,न मित्र…! जुलाई की सड़ी हुई गर्मी में पैदल चले जा रहें हैं..चले जा रहें हैं.. इधर सेंट्रल ऑफिस जो है कि आनें का नाम नही ले रहा है।
“किधर है सेंट्रल ऑफिस ?”
“आ गया, ये रहा..!”
“अरे! बाप रे! इतना बड़ा !”

वहां गए तो पता चला पहले से ही चार सौ लोग लाइन में खड़े हैं..
“आप भी लाइन में खड़ा हो जाइए शर ?”
“अरे शर हमारा शर पकड़ लिया… रे साला शर नहीं, सर!”
“तहार कपार..हई भीड़ देखत हवा…”
“आ ही जाएगा नम्बर, सबका आता है,आपका भी आएगा।”
“लग जाइये,लग जाइये… !”
अब भइया, लाइन में खड़े खड़े आपका नम्बर आया तो पता चला की हो गई एक और आफ़त।
“का हुआ जी ?”
“अरे! साला,अब एक सर्टिफिकेट का फ़ोटो स्टेट कम है! “
“अब लो बढ़ गया न काम..अब फ़ोटो स्टेट कहाँ होई गुरु !”
“वीटी होई गुरु..!”
“अब ई वीटी कहा है ससुर…?”
“यहां से करीब दो ढाई सौ मीटर सीधे पैदल…”
“अरे! बाप हो.. “
अब माथा चकरा रहा है..! डेढ़ बजने को हैं…
लेकिन फ़ोटो स्टेट तो कराना है…फीस तो जमा करनी है।
आख़िरकार फ़ोटो स्टेट हो रहा है। यहां भी भीड़ है।
लेकिन साला वीटी भी क्या अद्भुत जगह है यार.. हाथ जुड़ रहें हैं, बाबा की तरफ.. ख़्याल रखियेगा बाबा, हम लोग इस अखाड़े के नए बछरु हैं….!

साला क्या माहौल है यार..उ पियरका सूटवा वाली तो लग रहा कि फीस जमा करने के बाद आइसक्रीम खा रही है।
“चलो-चलो…”
आख़िरकार,फीस जमा हो गई। रसीद मिल गई। लग रहा स्वर्ग का एंट्री कॉर्ड है।
“इसे सम्भालकर रखना..बहुत काम आएगा..!”
“रखा है सर, !
“आज तक रखा है।”
कैसे कहूँ सर कि दस साल बाद भी सम्भालकर ऐसे ही रखा है,जैसे अभी-अभी फीस जमा किया हो…
आपको पता है ?
एक किसान के लड़के का यूनिवर्सिटी में छात्र हो जाना उसके सत्तरह-अठारह साल की उम्र का सबसे बड़ा दिन होता है। वो कैसे नहीं संभालेगा?
मुझे याद है जब ये सारी प्रक्रिया हो गई.. और मैं अपनी स्टूडेंट आईडी पहली बार हाथ में पकड़कर उसे छूने लगा,तो ऐसा लगा जैसे सारी गर्मी और सारी थकान गायब हो गई हो।
उस छोटे से पीले कार्ड में अपना नाम,पता और नम्बर देखकर लगा कि अरे अब तो हमारी दुनिया ही बदल गई। महामना नें हमें एक नई पहचान दे दी..!
तभी तो रोज पढ़नें जाते समय उनकी प्रतिमा की तरफ अपने आप हाथ उठ जाते थे। आज भी कहीं उनकी तस्वीर दिख जाती है..तो दिल श्रद्धा से झुक जाता है।
“हे,महामना, आप ग़जब थे। आप न होते तो ये सर्व विद्या की राजधानी कहाँ होती और हम कहाँ होते ?”
आपको पता है..सिर्फ मैं ही नहीं। सिर्फ़ बीएचयू ही नहीं..
किसी भी विश्वविद्यालय में एडमिशन लेने वाले विद्यार्थी की खुशी उसके जीवन के सबसे यादगार दिनों में से एक होती है।
औऱ जैसे बीएचयू में पढ़ने वाला विद्यार्थी अपने कैम्पस को लेकर भावुक होता है,ठीक वैसे ही अन्य यूनिवर्सिटी का विद्यार्थी भी होता है।
ये एक भावनात्मक रिश्ता है जो बिना किसी क्लास,बिना किसी सिलेबस के हमारे अवचेतन में बस जाता है।
लेकिन आज…!
दुःख तो इस बात का है कि मेरे जिस भाई-बहन नें सन दो हजार बीस में एमए और बीए में एडमिशन लिया है,वो इस ख़ुशी से वंचित रह गए हैं।
उनके साथ कोरोना नें सबसे ज़्यादा ज्यादती की है। उनके साथ सबसे बुरा बर्ताव हुआ है। जीवन के सफर में ये दो साल,जो एक बड़े से कैम्पस में हमारे अंदर बरगद के बीज डालनें वाले थे,वो कुम्हलाए से हैं..!
सब कुछ ऑनलाइन हो रहा है। ऑनलाइन परीक्षा,लेक्चर,
सेमिनार और न जाने क्या-क्या !
लेकिन मैं देख रहा कोई खुश नही है। न गुरू न ही छात्र!
बड़े-बड़े दावे किए जा रहें हैं कि आने वाले समय मे इस एप पर पढ़ाई होगी। सारा काम एप पर होगा.. ये देखो बायजुस और अनएकेडमी में कितना फॉरेन इन्वेस्ट हो रहा। बायजूस का मालिक रवीन्द्रन कुछ दिन में टाइम के कवर पेज पर आने वाला है। ये बड़े-बड़े संस्थान बन्द होने वाले हैं..!
अरे! ये अपनी बकवास बन्द करिये यार..! एकदम बकलोल हैं क्या जी ?
आपको क्या लगता है कि कॉलेज और यूनिवर्सिटी केवल इमारते भर हैं..?
ये केवल इमारतें होती तो दो हजार बीस में यूजी और पीजी में एडमिशन लेकर दिन भर ऑनलाइन क्लास लेने और देने वालों के चेहरे इतने उदास होते ? नहीं होते…!
यूनिवर्सिटी तो एक क्रियेटिव ऊर्जा का उदगम स्थल है,जहां का वाइब्रेशन हमें बिना किसी कॉपी-किताब के बिद्यार्थी बना देता है।
लाख ऑनलाइन क्रांति हो जाए…वो वाइब्रेशन हमें नहीं मिल सकता है।
हमारी संस्कृति में गुरु और शिक्षक का सम्बंध एक परस्पर भावनात्मक सम्बंध है। गुरु को देवता से ऊपर समझने वाली चेतना को बायजूस और अनएकेडमी के सालाना सब्सक्रिप्शन पूरी नही कर सकतें हैं।
ये एक खूबसूरत विकल्प हैं..समाधान नहीं! विकल्प कभी समाधान नही होता।
ये प्लास्टिक के गुलाब हैं..जिनके मुलायम कांटे भी दो साल में चुभने लगे हैं।
कैम्पस एक बगीचा है,जिसमें हमें सींचा जाता है.. और दुनियादारी के खुले संग्राम में मजबूती के साथ खड़े होने का प्रशिक्षण दिया जाता है।
ये बगीचा अब खुलना चाहिए,…
खुलना चाहिए।
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March 28, 2021
बिरला हॉस्टल की होली : स्मृतियों के चटक रंग
काशी हिंदू विश्वविद्यालय में मेरा वो पहला साल था। खपरैल और टीन शेड के स्कूल से निकलकर एक केंद्रीय विश्वविद्यालय का छात्र होने की प्रसन्नता मेरी आंखों में उसी मात्रा में चमक रही थी,जितनी आज नवोदित छात्रों के आंखों में चमकती है।
फ़र्क बस यही था कि तब ज़िंदगी इतनी स्मार्ट नहीं हुई थी,न ही इतनी ऑनलाइन।
तब हम मैत्री जलपान गृह में ग्यारह रुपया में नास्ता कर लेते थे और अठारह में भोजन। वीटी के छोले समोसे का वही शाश्वत स्वाद था,जो आज है।
वीटी तब भी डेटिंग का आदर्श स्थल था आज भी है।
लेकिन तब सयाजीराव गायकवाड़ लाइब्रेरी में कुछ लौंडे रोज पढ़ने जाते थे और बिना पढ़ाई किये शाम को चले आते थे।
और तय करते थे कि साला उस डबल चोटी वाली के चक्कर में लाइब्रेरी कौन जाएगा। मार्क जुकरबर्ग नें फेसबुक उसके लिए ही तो बनाया है,उस पर ही खोजते हैं।
तब आटा अठारह रुपया और डाटा का हाल ये था कि निन्यानबे में पाँच सौ बारह एमबी मिलता था। हीटर पर रोटी पकती थी और यूसी ब्राउजर में फेसबुक चलता था।
ले देकर एक-दो लाइक फेसबुक पर आता तो मन करता कि लाइक करनें वाले के घर जाकर उसे धन्यवाद दे आएँ और कहें कि सर जिसे मैं लाइक करता हूँ,वो तो कभी का अनलाइक कर चुकी लेकिन आपका लाइक करना,मुझे बार-बार ऑनलाइन आने के लिए मजबूर कर रहा है।
बहरहाल इसी ऑनलाइन होते साल में मेरे कुछ ऑफलाइन दोस्त बनें,जो म्यूजिक फैकल्टी में नहीं बल्कि आर्ट्स और सोशल साइंस फैकल्टी में पढ़ते थे।
इन मित्रों के पीछे मेरे एक सूत्रधार थे,वो थे ममेरे भाई थे सौरभ राय।
सौरभ आर्ट्स फैकल्टी में पढ़ते थे। एक कमरा लंका पर लिए हुए थे लेकिन पेशाब उनका बिड़ला में ही उतरता था।
आजकल मुखर्जीनगर में यूपीएससी से जूझ रहे होंगे।
एक और बचपन का दोस्त था विनीत राय ! आजकल स्टेट बैंक में शाखा प्रबंधक हो गया है। वो सोशल साइंस फैकल्टी में पढ़ता था और नरेंद्रदेव छात्रावास में रहता था।
इन दोनों के कारण मेरा बिड़ला और नरेंद्रदेव के कुछ लड़कों से दोस्ती हो गई। और आना-जाना लगा रहा।
उन्हीं दोस्तों में से एक थे जिला गोपालगंज के खाँटी रंगबाज, वेदांत मिसिर..
वेदांत नाटे कद के वो चिकने लौंडे थे जिनके मासूम चेहरे पर दाढ़ी-मूँछे आनीं अब शुरू हो रहीं थीं।
लेकिन वो हर जगह अपना रंग जमाने को बेताब रहते।
किसी नें उनको बताया कि गुरु बिड़ला की लंठई के इतिहास-भूगोल के मुताबिक रंगबाजी एक साल में नहीं जमती है। फर्स्ट ईयर तो बिड़ला का नक्शा समझने में ही व्यतीत हो जाता है।
बकौल शनिचर इस शिवपालगंज में आपको अपनी जोग्यता साबित करनी पड़ेगी।
बस उसी दिन वेदान्त जी नें प्रण कर लिया कि चाहें कुछ भी हो जाए जोग्यता पर जोग्यता ठेलकर मानेंगे.. भले स्वर्ग से बिड़ला आकर गोड़ पर गिर पड़े,लेकिन रंगबाजी करके रहेंगे।
बस उसी दिन मिसिर जी के नेता बनने की तैयारी शुरू हो गई।
अब तो आप जानते ही हैं कि अपने पूर्वाचल में नेतागिरी शुरू करने की पहली शर्त ये है कि या तो नाँच मंगवा दिया जाए या आर्केस्ट्रा।
नहीं तो किसी भोजपुरी गायक को बुलवा दिया जाए और हर गाने के अंत में भावी नेता जी की जय-जय करवा दी जाए।
बस इसी परम्परा को ध्यान में रखकर मिसिर जी नें बिड़ला में होली गायन का कार्य्रकम रख दिया।
और एक साँझ फोन करके कहा कि अतुल भाई हमने होली मिलन का कार्यक्रम रखा है,पूरा रीवा कोठी हॉस्टल बिड़ला में आमंत्रित है। आपको भी आना होगा..मेरी जोग्यता का सवाल है।”
हमनें कहा, ” एक तो करेला दूजे चढ़ा नीम पर ! यानी एक तो बिड़ला हॉस्टल,ऊपर से होली ! बिल्कुल आएंगे भाई।”
अगले दिन जल्दी-जल्दी ऑटो से बिड़ला पहुँचा तो देख रहा कि फगुआ गायन के साथ रंगबाजी अपने चरम सीमा पर पहुँच चुकी है। गायक महोदय अभी “हो” कहतें हैं ,तब तक सामने बैठे लौंडे “होली खेले रघुबीरा अवध में” गा देतें हैं।
तबला वाला समझ नहीं पा रहा कि सम कहाँ है और न बजाने की कसम कहाँ।
बीच-बीच में गालियों का कोरस भी एकदम सम पर गिर रहा है। और नमः पार्वतिपतये हर-हर महादेव! का पारम्परिक उदगार भी।
यानी मजमा जमा है। सब मौज छान रहें हैं।
तब तक हो गई हलचल…हुआ हल्ला, “का भइल रे?”
“कुछ न भइल ,होई कवनो भोसड़ीवाला, “गावा गुरु गावा…रुका मत…”
तब तक कोई चिल्लाया..
अरे! वार्डेनवा आ गइल रे.. !
इसको कौन फोन किया रे..?
पता न कौन ह..
मैं देख रहा। एक झटके में वार्डेन साहब सामने खड़े हैं। उनके माथे पर पसीना है। होठ सूख रहें हैं..और चश्मा निकालकर चिल्ला रहें हैं..
“किसने इजाज़त दी इस कार्यक्रम की ? कौन बोला कि ये कार्यक्रम किया जाए…?”
एक मिनट तक सब चुप रहे..
“इस कमरे में क्या है जी खोलो… ?”
अचानक एक सबसे शरीफ दिखने वाले छात्र नें कहा..
“बूटी की व्यवस्था की गई है सर! “
तब तक कहीं से आवाज़ आ रही..
“वार्डेनवा…”
दूसरे तरफ़ से आ रही है…
“भोसड़ी के…ss”
कहीं से कोई कह रहा..
“आ गइला मरवाए बुजरो के! चैन नाही मिलल तोहके ?”
देख रहा सब हँस रहें हैं.. वही लौंडई वाली हंसी..
लेकिन जैसे ही गाली मेरे कान में पड़ी,मेरे कान खड़े हो गए। कान खड़े होने का कारण गाली नहीं था बल्कि वार्डेन के साथ भोसड़ी और बुजरो का जो क्रांतिकारी और लयात्मक प्रयोग था, वो था।
कारण ये भी था कि मैं बीएचयू के सबसे संस्कारी संकाय में पढ़ता था। जहाँ गुरु मतलब देवता है और वार्डेन मतलब प्रधानमंत्री है।
हमारे हॉस्टल में वार्डेन आज भी आते हैं तो सारे लौंडे हाथ बाँधकर अपने कमरे से निकल आतें हैं और उनका पैर छूकर तब तक पीछे हाथ बांधकर खड़े रहते हैं, जब तक कि वो चले न जाएं।
कभी-कभी तो डर लगता है कि ज्यादा देर तक रूक गए तो ये मासूम लड़के कहीं अगरबती जलाकर प्रसादी न चढ़ा दें और समूचे अस्सी घाट पर हल्ला कर दें कि आज वार्डेन पूजन था,प्रसाद खाइए।
इसलिए मेरे जैसे लड़के का बिड़ला का ये खुला माहौल देखना एक कल्चरल शॉक का लगना था।
कार्यक्रम तुरंत बन्द हो गया… सब लोग खड़े हो गए।
गालियाँ आसमान से बरसती रहीं।
लेकिन गाली सुनते हुए लौंडो को डांटना वार्डेन साहब नें उसी अंदाज में जारी रखा।
जब सारे लोग चुप हो गए.. अबीर-ठंडई, रंग,तबला हारमोनियम सब उदास हो गए,तब तक वार्डेन साहब का हृदय परिवर्तन हुआ.. और उन्होंने जोर से आख़िरी बार डाँटा,
“कार्यक्रम करना था, तो बताना था न, हम भी आते हम भी सुनते,ये क्या बात हुई..कोई बात होगी प्रॉक्टर ऑफिस से मुझे फ़ोन आएगा…कल अखबारों में न्यूज छपेगा..आप लोग तो घर चले जाएंगे..जबाब हमको देना होगा..
“चलो शुरू करो।”
इतना सुनते ही सारी मुर्दा शांति एक झटके में समाप्त हो गई..
बिड़ला ए से ही नहीं, बी और सी से भी हर-हर महादेव की आवाज आने लगी..
मुझे याद है,हमारे सहपाठी मित्र नें तुरंत हारमोनियम संभाला और गाना शुरू किया..
“हंगामा है क्यों बरपा..थोड़ी सी जो पी ली है..”
मेरे लिए अगला शॉक ये था कि जो वार्डेन साहेब गाली देकर गाली सुन रहे थे,वो ज़मीन पर बैठकर इस ग़ज़ल की आगे वाली लाइन गा रहें हैं..
” डाका तो नहीं डाला चोरी तो नहीं की है..”
और देखते ही देखते एक बदरंग होता माहौल फिर रंग में बंध गया। वार्डेन साहब को गाली देने वाले सारे लौंडों नें रंग लगा दिया..
वार्डेन साहब चले गए.. और हम भी बाहर आ गए..
बाहर आते ही एक लड़के नें बताया..
“भोसड़ी वाला,वार्डेनवा जब अपने जमाने में बिड़ला में रहकर पड़ता था,तब साला लुग्गा,ब्लाउज टँगा होता था इसके कमरे के आगे..आज आकर ज्ञान दे रहा.. “
हमारे हॉस्टल वाले खूब हँसे..
आज दस साल बाद जब मैं मुंबई में बनारस का अखबार खोलकर इस हफ़्ते का समाचार देख रहा हूँ तो न जानें क्यों हँसी आ रही है।
देख रहा कि बिड़ला वालों ने फिर एलबीएस वालों से होली खेलने के बहाने लाठी-डंडे निकल दिया है। वही गाली,वही गलौज और न जानें क्या-क्या !
मैं सोच रहा कि बिड़ला वालों ने होली में मार किया ये कोई समाचार है जी ?
समाचार तो उस दिन होगा जब ये लिखा जाएगा कि दस दिन से बिड़ला वालों नें कोई मार-पीट नहीं किया।
होली के दिन भी उदास रहा बिड़ला हॉस्टल। पेट्रोल बम बनाने की कला भूल गए विद्यार्थी.. नरेन्द्रदेव छात्रावास के छात्रों नें गले मिलकर माँगी माफी, आज के बाद कभी न लड़ने की खाई कसम।
रुईया वासियोंमें ख़ुशी की लहर..बिड़ला वाले नहीं फानेंगे चाहारदीवारी..
तब कोई समाचार होता.. ये भला कोई समाचार है ?
दिल से निकल रहा कि नज़र न लगे. तुझ पर बीएचयू..
आवो,एक काला टीका लगा दूँ। लोग कहते रहें कि सब हॉस्टलों में आवारा ही रहतें हैं।
लेकिन लोग नहीं जानते कि वो आवारापन एक उम्र विशेष से निकले उत्साह के अतिरेक का प्रवाह होता है। बिड़ला तो एक केंद्र है,जो इस शरीर में बह रहे स्थायी भाव का उद्दीपन स्थल बन जाता है।
ये सच है कि उसकी छवि लाख खराब होती है। लेकिन उससे निकलने वाले लड़के आज देश के उच्च पदों पर विराजमान हैं। जिसका कोई हिसाब नहीं है…
आज भी “मधुर-मनोहर अतीव सुंदर” सुनकर उनके रोएं खड़े हो जातें हैं।
आज भी बीएचयू की स्मृतियों का पन्ना उनके जीवन का सबसे रंगीन पन्ना है।
देख रहा, मुम्बई को पता नही की परसो होली है,तब बिड़ला के इस रंगीन पन्ने नें थोड़ी तसल्ली दी है।
मैं अब संतोष में हूँ। मुझे पूरा यकीन है कि कोविड के बाद दुनिया बदल जाएगी लेकिन बिड़ला हॉस्टल नहीं बदलेगा।
उसकी होली वैसा ही रहेगा जैसा आज है और हमेशा से थी..
सारी मौलिकता उसके न बदलने में हैं। उसकी दीवारों में,परिवेश में समाया जादू हर साल अपना एक वेदांत मिसिर पैदा कर लेगा और हर साल अपनी होली… !
( स्मृतियों के रंग से )
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