Atul Kumar Rai's Blog, page 2
October 12, 2023
आई स्टैंड विद…..
दूसरों का झगड़ा-बवाल पूरे मनोयोग से देखने की ललक मनुष्य में कब पैदा हुई, ये आज भी व्यापक शोध का विषय है।
मामला अगर जूतम-पैजार तक चला जाए तो उसे देखने के लिए हर आदमी अपना काम-धाम खूंटी पर क्यों टांग देता है, इस पर भी मनोवैज्ञानिक चुप हैं।
आप कहेंगे, “झगड़ा- बवाल देखने में बड़ा मजा आता है गुरु…”
सच कहूं तो एक जमाने में मुझे भी झगड़ा-बवाल देखने में बड़ा मजा आता था।
बात यहीं कोई सातवीं-आठवीं क्लॉस की होगी।
वही हमेशा की तरह फ़रवरी का रंगीन महीना था।
पुरूवा हवा पूरे मनोयोग से देह को लग रही थी। शरीर नें शरीर के अंदर होने वालों रासायनिक परिवर्तनों से मोहब्बत कर लिया था।
बॉलीवुड से उड़कर मेरे रेडियो में गिरता मोहब्बत का हर नगमा जिगर में ऐसे घुसता जैसे सरसों के खेत में अभी-अभी मोर घुस रहा हो।
बस इसी रोमांटिक माहौल की एक सुबह मैं अपने एक दोस्त के साथ स्कूल जा रहा था। रास्ते में देखा, दो-चार बेरोजगार युवक बड़े ही मनोयोग से सिर नवाकर जमीन में कुछ रोजगार खोज रहें हैं।
लेकिन जमीन ने रोजगार देने से मना कर दिया है और अचानक कुछ ऐसा हुआ है कि चारों ने उठकर ले लात, दे लात, ले चप्पल, दे चप्पल करना शुरू कर दिया है।
मामला जब ले लात और दे लात से भी नहीं निपटा है तो बीच-बीच में एक दूसरे की मां-बहन का तेज-तेज स्मरण करने का फैसला किया गया है।
देखते ही देखते आसमान में जूते और गालियों के बीच मुकाबला हो उठा है।
लेकिन ये क्या ? मामला तो मेरी समझ के बाहर जा रहा है….मैंने दोस्त बबलुआ से पूछा है,
“बबलुआ..!”
“का रे…?”
“ई मार काहें होता ?”
“कुछ न भाई…पियरका शर्टवा वाला बुल्लूका शर्टवा वाला के मार देले बा…देख मजा आवता..”
“मजा आवता… आयं केने आवता ?”
“देख न मजा आवता..”
“कैसे गुरु, कहाँ मजा आवता..!”
“बबलुआ नें फिर कहा, “देख न मजा आवता..”
गुरु, डीह बाबा की कसम…बड़ी देर तक ध्यान से देखा लेकिन मजा कहीं से नहीं आया.. आया तो लाठी और डंडा और उसके साथ दस-बारह लोग.।
देखते ही देखते आसमान में लाठियों नें तड़तड़ाहट के साथ बरसना शुरु कर दिया..मजमा उमड़ पड़ा… बबलुआ नें फिर पूछा.. “बोल ,अब मजा आवता ?”
मैनें कहा, “हं यार, गुरु,अब त बहुत मजा आवता..”
फिर तो बबलुआ नें आंख बंद करके परम सुख की अवस्था में कहा, “अब रुक भाई, स्कूल की ऐसी की तैसी..अब ऊ पियरका शर्टवा वाला बन्दूक लेकर आएगा..फिर और आएगा मजा…।”
मैनें कहा, “भाई, लाठी-बन्दूक का झगड़ा देखने के चक्कर में प्रिंसिपल साहब छड़ी से मारेंगे बे..जल्दी चल…”
“उसनें कहा, कुछ नहीं करेंगे..मैं हूँ न..अब तो मार देखकर ही चला जाएगा।”
उस दिन डेढ़ घण्टा पूरे मनयोग से हमने मार होते हुए देखा। डेढ़ घण्टा ऐसा आनंद बरसा, जिसे शब्दों में व्यक्त करना अभी भी मुश्किल है।
उस दिन पता चला कि उस जमीनी खेल को जुआ कहते हैं और खेलने वाले खिलाड़ियों को जुआड़ी।
मामला बस इतना है कि आज खिलाड़ियों नें हार-जीत का फैसला खेल से नहीं बल्कि लाठी और डंडे से करने का प्रोग्राम बना लिया है।
लेकिन हमारा असली प्रोग्राम तो स्कूल जाने के बाद शुरू होगा।
हम सब स्कूल पहुँचे। प्रधानाचार्य जी नें हम दोनों को गौर से देखा। हम नहीं दिखे तो चश्मा निकाला और फिर देखा…
आखिरकार चश्मे से भी जब हम दोनों ठीक-ठीक दिखाई नही दिए तो उन्होंने गुलाब की छड़ी मंगाई औऱ दस मिनट तक लगातार हम दोनों को ठीक से तब तक देखा, जब तक कि हमारी आंखों से धुँधला न दिखने लगा।
आखिरकार मैनें अपने लाल हो चुके हाथों से लाल हो चुकी पीठ को सहलाते हुए बबलुआ से पूछा…, “का रे मजा आवता ?
बहुत मजा आवता कहने वाले बबलुआ नें आज तक कोई जबाब नहीं दिया है।
बस एक वो दिन और आज का दिन। मैं झगड़ा होते हुए नहीं देख पाता। यहाँ तक कि कोई मुझसे झगड़ा करना भी चाहे तो मैं सरक लेता हूँ, “भाई, किसी और दिन कर लेना, ऑनलाइन कर लेना..अभी मत करो।”
लेकिन इधर देख रहा, ट्विटर बोले तो एक्स खोलते ही माहौल एकदम मजा वाला हो चुका है।
न जानें क्यों ऐसा महसूस हो रहा है कि कुछ लोग ग़ज़ा पट्टी पर बमबारी का मजा ले रहे हैं।
दो प्रेमियों को आई लव यू बोलकर छोड़ देने वाली एक परिचित बेवफा ने अपने स्टेटस में आई स्टैंड विथ इजरायल के साथ लिखा है।
“मार-मार धुंआ-धुआं कर दे..”
बम मारके समतल कर दे…”
जिस लियाकत के अब्बा नें अभी उसकी अम्मी को तलाक दिया है उसनें भी आई स्टैंड विथ फिलिस्तीन का स्टेटस लगाया है।
उधार मांगकर काम चलाने वाले मेरे एक दोस्त नें आई स्टैंड विथ इजरायल के साथ शेयर किया है कि अमरीका नें इजरायल को गोला-बारूद भेज दिया है
मैनें किसी को जबाब नहीं दिया है। सोचता हूँ क्या ही कहूँ… कैसे कहूं कि वो बेवफा की फुआ..तुमने जिस रोहितवा के दिल का धुआं-धुआं करके उसके अरमानों का ग़ज़ा पट्टी कर दिया है, उसका क्या ?
कैसे उस उधारी दोस्त से कहूं कि अबे अमरीका इजरायल को गोला बारूद सब दे देगा लेकिन तुम काम-धाम छोड़कर कुछ दिन यूँ ही खड़े रहे तो पनवाड़ी तुमको पान भी उधार नहीं देगा बे, कुछ काम-धाम कर लो।
लियाकत को कैसे समझाऊं की भाई फिलिस्तीन के साथ खड़े होने के लिए समूचा अरबी जगत है..आपको अभी आपने अम्मी के साथ खड़े होने की ज़रुरत है मियां। लेकिन कैसे ?
कहने से बचता हूँ। शायद सोशल मीडिया नें हम सबको बबलुआ मोड में डाल दिया है।
बहुतों को इजरायल और फिलिस्तीन के बारे में कुछ कुछ नहीं पता..बस, मजा आ रहा है…तो मजा ले रहे हैं।
मैं जानता हूँ…इस साढ़े छह इंच की स्क्रीन नें दुनिया को इतना करीब ला दिया है कि हम सात समन्दर पार की एक छोटी सी घटना से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते।
ये तो फिर भी मिडिल ईस्ट की घटना है और एक बड़ी वैश्विक घटना है जो अगर लंबे समय तक चली तो हम सब इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाएंगे..
किसी के समर्थन में खड़ा होना बेहद ज़रूरी है.. लेकिन धर्म और इंट्रेस्ट देखकर बस भीड़ में खड़े होना भेड़िया बन जाना है।
इस विकट दौर में जहां जिंदगी रोज हम सबका गजा पट्टी से भी बड़ा इम्तेहान ले रही है…दैनिक सँघर्ष इजरायल की तरह बरस रहा है, वहां किसी के साथ इस दिखावे के लिए खड़े होने से पहले खुद के साथ मजबूती के साथ खड़ा होना सबसे ज्यादा जरूरी है।
वरना आदमी बने रहने की सारी संभावना नष्ट होते देर न लगेगी।
आख़िर दोनों तरफ के रोते-चीखते लोग मजा आने का साधन कैसे हो सकते हैं ? खुद से पूछें, एक विकसित चेतना परपीड़ा का ये सुख कैसे ले सकती है ?
क्या एक मनुष्य के रूप में अभी और विकसित होने की सम्भावनाएं शेष हैं ?
सवाल कठिन है..लेकिन हं ये बहुत सरल है कि
आज इजरायल हो या फिलिस्तीन स्वयं के साथ खड़ा मनुष्य ही पूरी संवेदनशीलता से दूसरों के साथ खड़ा हो सकता है।
सादर..
अतुल
(अपनी खिड़की पर खड़े होकर…)
June 20, 2023
आदिपुरूष देखने के बाद हनुमान जी का इंटरव्यू !
हनुमान जी आदिपुरुष देखकर अभी सिनेमा हाल से निकले ही थे कि एक पत्रकार नें उन्हें पहचान लिया, “प्रभु, एक इंटरव्यू दे देते तो मेरा चैनल मोनेटाइज हो जाता..!”
हनुमान जी नें पत्रकार को गौर से देखा। आंखे बंद कर गहरी सांस ली..मन में जय श्रीराम का जाप किया और पूछा ,
“इसके पहले क्या करते थे ?”
“भगवन, एक राष्ट्रीय चैनल में पत्रकार था, दो महीने पहले निकाल दिया गया…अब यू ट्यूबर हूँ।”
“क्या नाम है, रवीश कुमार ?”
“नहीं..”
“अजीत अंजुम ?”
“नहीं-नहीं..!”
“पुण्य प्रसून बाजपेयी, अभिसार शर्मा ?”
नहीं,पवन सुत, मैं इनमें से कोई नहीं हूँ..”
” तब तुम कौन हो ? शकल से तो विनोद कापड़ी भी नहीं लगते.. ?”
“मैं मनोज हूँ प्रभु..एक सत्ता विरोधी पत्रकार.. ! “
सत्ता विरोधी सुनते ही हनुमान जी के माथे पर बल पड़ गया..जोर से पूछा,”कौन सी सत्ता के विरोधी हो..? “
ऐसा सवाल सुनकर पत्रकार खामोश हो गया। हनुमान जी नें कहा,
“बोलते क्यों नहीं ? कौन सी सत्ता के विरोधी हो ?”
“बस, सत्ता का विरोधी हूँ प्रभु..।”
“वही तो पूछ रहा, मोदी की सत्ता या केजरीवाल-ममता बनर्जी की सत्ता ? नीतीश, एम के स्टालिन की सत्ता ? या सिद्धारमैया,चंद्रशेखर राव और पिनराई विजयन की सत्ता..?”
किस सत्ता के विरोधी हो..?”
हनुमान जी के इस कठिन सवाल पर पत्रकार बगले झांकनें लगा..उसने गिड़गिड़ाते हुए पैर पकड़ लिया,
“प्रभु ऐसा सवाल करके मुझे धर्मसंकट में मत डालिये। हफ़्ते में एक दिन ट्विटर पर सबको गाली देकर निरपेक्ष रहने की पूरी कोशिश करता हूँ। फिर भी अर्निंग नहीं हो रही। ये चैनल न चला तो मर जाऊंगा, प्लीज एक इंटरव्यू दे दीजिए…!”
“तुम्हारा भी नाम मनोज है ?” हनुमान जी नें पूछा।
” जी प्रभु… मनोज मुंतसिर की कसम..मैं कल से ही कालीन बिछाकर सिनेमा हॉल के सामने आपका इंतज़ार कर रहा हूँ..बस एक इंटरव्यू..!”
हनुमान जी मनोज को इंटरव्यू देते इसके पहले ही उनके व्हाट्सएप पर अंगद का मैसेज आ गया।
“हे आंजनेय..सादर चरण स्पर्श..”
“कैसे हो अंगद..क्या समाचार ? “
अंगद नें इयरफोन निकालकर कहा,” प्रभु, एकदम चौचक चल रिया है। अभी बुआ के बगीचे में बैठकर आम खा रहा था तो आपकी याद आ गई।”
हनुमान जी चौंके, “ये कैसी भाषा बोल रहे हो अंगद, क्या तुमनें भी आदिपुरूष देख लिया ?”
” देख लिया…? हे पवनसुत, मुझे तो ट्विटर पर पॉजिटिव ट्विट लिखने के नौ हजार रुपये भी मिल रहे थे लेकिन लंका से रावण अंकल नें वीडियो कॉल करके सारा स्कीम खराब कर दिया…”
“क्या हुआ, रावण नें भी आदिपुरूष देख लिया ?”
“हं,फर्स्ट डे, फर्स्ट शो..”
“कैसी लगी उसको ? “
“प्रभु फ़िल्म देखने के बाद रावण कत्तई लोहार हो चुका है। दिन-रात लोहा पीट रहा है। कह रहा,अपने पापा बाली को भेजो, साझे में लोहे का बिजनेस करते हैं ।”
“अच्छा, ऐसा हो गया ?”
“हं,प्रभु…उधर विभीषण बो चाची नें तो मुम्बई से फैशन डिजायनर रितु कुमार को बुला लिया है।”
“अरे, उन्हें क्या हुआ ? “
“कह रही हैं, माई लहंगा शुड बी चेंज्ड नॉऊ..”
” उफ्फ…! घोर अनर्थ…”
“यही नहीं,अभी और सुनिये..
“अब क्या हुआ ?”
” हुआ ये है कि कुंभकर्ण और अक्षय कुमार नें मुम्बई से वीएफक्स वालों को बुलाकर अशोक वाटिका के सारे राक्षसों का मेकअप करवा दिया है। ऊपर से आज सुबह रावण नें पुष्पक विमान भेजकर अलाउदीन खिलजी को महल में आमंत्रित कर दिया..।”
“अलाउद्दिन खिलजी को… किसलिए ?”
“अपनी दाढ़ी बनाने के लिए ?”
” जय श्रीराम,जय श्रीराम, बस यही दिन देखना बाकी रह गया था अंगद ……”
“हं,प्रभु,लेकिन अगला समाचार सबसे बुरा है।
“अब क्या हुआ ? “
“अपनी वानर सेना के सारे वानर आदिपुरूष में अपना रूप देखकर सदमे में हैं..सबने विरार से लोकल पकड़कर अंधेरी की तरफ कूच कर दिया है। सबके हाथ में गदा है। अब ओम राउत और मनोज मुंतशिर की खैर नहीं, उन्हें आप ही बचा सकतें हैं प्रभु, प्लीज कुछ करिये…।”
इतना सुनते ही हनुमान जी चिंतित हो उठे।
” ठीक है अंगद,तुम चिंता न करो, मैं कुछ करता हूँ।”
इधर मनोज पत्रकार हनुमानजी को चैटिंग करता देख धीरज खो उठा।
“प्रभु, अब हो गई न चैटिंग, मेरे कुछ सवालों का जबाब दे दीजिए,आज सुबह से एक भी इन्टरव्यू नहीं किया…? “
इतना चिरौरी के बाद भी हनुमान जी नें पत्रकार की एक न सुनी। तुरन्त एक ऑटो वाले को हाथ दिया और मलाड से अंधेरी की तरफ चल पड़े… मनोज पत्रकार भी उचककर ऑटो में बैठ गया…
“तुम नहीं मानोगे ?” हनुमान जी ने फिर डांटा..
“प्रभु बस एक इंटरव्यू, बस एक..”
अगले ही पल मुम्बई के जाम नें हनुमान जी का हाल-बेहाल कर दिया। बढ़ते तापमान और गर्मी देखकर हनुमान जी से भी रहा न गया, उन्होंने कहा, “ठीक है, पूछ लो….”
” प्रभु, मनोज मुंतशिर नें कल टीवी पर कहा है कि हनुमान जी भक्त हैं, मैंने उन्हें भगवान बनाया है, आप क्या कहना चाहेंगे ? क्या आप क्रोधित हैं ?
“नहीं,बिल्कुल नहीं..मुझे तो बस उन पर दया आ रही है। मैं उनकी सद्बुद्धि की कामना करूँगा। शायद मनोज भूल गए हैं कि जनता नें ही उन्हें लेखक बनाया है।”
“प्रभु क्या भगवान राम पर इस फ़िल्म का कोई असर पड़ेगा, या आप पर ?”
” कैसी बात करते हो, जिस राम के पास आकर शील अपना श्रृंगार करता है। विनय विभूषित होता है। संस्कार, विवेक और ज्ञान शरण लेते हों। जो मेरे जैसे करोड़ो भक्तों के हृदय में बसते हों, उन पर एक फ़िल्म का असर पड़ेगा ?”
“फिर आप मनोज मुंतशिर से क्या कहना चाहेंगे ?”
” मैं यही कहूंगा कि मनोज जितना जल्दी हो सके अपने असिस्टेंट राइटर की तनख़्वाह बढ़ा दें…!”
“यू मीन ये सब असिस्टेंट राइटर नें लिखा है ?”
“तुम ही बताओ…एक आदमी स्वयं रियलिटी शो, डाक्यूमेंट्री होस्ट करेगा, जज भी बनेगा, फिर दिन भर हिन्दू राष्ट्र और सनातन की रक्षा करेगा तो कैसे लिख पाएगा.. ? प्रभावी लेखन एकांत की साधना है वत्स…..असिस्टेंट तो रखना पड़ेगा न ?
“वैसे,आजकल लेखकों की बाढ़ सी आ गई है..उनके के लिए कोई सलाह….”!
” सलाह तो यही है कि लेखक की जबान उसकी कलम है। जिस दिन कलम से ज्यादा जबान चलने लगेगी, उस दिन उसका यही हश्र होगा।”
“ओम राउत को क्या कहेंगे प्रभु…?”
” मैं यही कहूँगा, पर्दे पर राम को उतारने से पहले,कुछ महीने हृदय में राम को उतारते, तो ये हश्र न होता।”
“और बॉलीवुड के लेखकों-निर्देशको,कलाकारों को कोई मैसेज ?
” उनसे तो यही कहूंगा कि इस दौर में लोकप्रिय होना आसान है। लोकप्रियता बनाए रखना कठिन है। सफल होना आसान है,सफलता को बचाए रखना कठिन है। आज का सारा युद्ध इसी सफलता और इसी लोकप्रियता को बचाए रखने का युद्ध है
“ये लोकप्रियता और सफलता कैसे बचती है प्रभु..? “
“अहंकार रहित विनयशीलता के सतत अभ्यास और अपने कार्य पर एकाग्र होकर ध्यानस्थ होने से..! “
जय हे बजरंगबली..मैं धन्य हो गया।
तब तक मनोज पत्रकार की आंखें खुल गईं..सपने से जागा, तो बिजली जा चुकी थी।
©- atulkumarrai.com
May 28, 2023
डॉक्टर, ये देश बीमार है….!
वो छोटे शहर के बड़े नेता थे। अभी जनता नें उन्हें चुनाव जीताकर देश सेवा करने का मौका नहीं दिया था। इसलिए उन्होंने समाज सेवा करने का निर्णय लिया था।
फलस्वरूप वो रोज अस्पताल जाकर रोगियों को फल देते। फल की फोटो सोशल मीडिया पर शेयर करते और वाह-वाही को फलित होते देखते।
अचानक एक दिन ऐसा हुआ कि उनकी सांस तेज़ हो गई और वो खुद उसी अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में भर्ती हो गए।
देखते ही देखते उनके चार-पांच समर्थकों नें अस्पताल को बंधक बना लिया। डयूटी करके घर जा चुकी इकलौती नर्स को उसके किचन से उठाया गया।
नई-नवेली पत्नी के साथ लूडो खेल रहे इकलौते डॉक्टर को उसके बेडरूम से टांगकर लाया गया। फ़टाफ़ट सारी जांच कराई गई।
डॉक्टर नें नेता जी की समस्त रिपोर्ट चेक करके धीरे से पूछा, “सब कुछ तो नॉर्मल है नेताजी, क्यों परेशान हैं आप ?”
नॉर्मल सुनते ही नेताजी का पारा गर्म हो गया, वो चिल्लाए..
“मूर्ख, जब इस देश में कुछ भी नॉर्मल नहीं,तो मैं कैसे नार्मल हो सकता हूँ, ये बताओ ?”
डॉक्टर की बीपी बढ़ गई। उसनें कहा,”नेताजी मैं आपकी तबियत की बात कर रहा हूँ, देश की नहीं.”
नेताजी चिल्लाए..”बेवकूफ, जब इस देश की तबियत ठीक नही रहेगी तो मेरी तबियत कैसे ठीक रहेगी ? किस निकम्मे नें तुमको डॉक्टर बनाया ?”
डॉक्टर सोच में पड़ गया। समूचे कैरियर में अपनी तरह का पहला मामला आज उसके सामने था। आख़िरकार डॉक्टर की हालत देखकर नर्स से रहा न गया। उसनें डॉक्टर के कान में एक मंत्र फूंका।
मंत्र का तत्काल असर हुआ। डॉक्टर नें आँख बंद करके नेताजी के पेट में थर्मामीटर घूसा दिया औऱ जोर से पूछा, “आपनें अपना आखिरी भाषण कब दिया था ?”
” एक महीने पहले…”
“अंतिम बार मंच पर माला कब पहनी थी ?
“डेढ़ महीने पहले।”
डॉक्टर को पसीना आने लगा। उसनें कहा,”सर..तुरन्त चार-पांच माला पहनें और तुरंत जाकर कहीं भाषण दें..अगर धरना प्रदर्शन करते हैं तो अति उत्तम..स्वास्थ्य लाभ जल्दी होनें की फूल गारंटी..।”
धरना का नाम सुनते ही नेता जी के एक कट्टर समर्थक से रहा न गया, उसने डॉक्टर की कॉलर पकड़ ली,…”ई बताओ, इस गर्मी में धरना देनें से हमारे नेता की जान चली गई तो..? कौन जिम्मेदारी लेगा..? अबे कोई साधारण इलाज़ बताओगे या दूँ एक घूसा..”
डॉक्टर की सांस अटक गई। उसनें अपनी समूची इज्जत बचाते हुए कहा,” तब तो सर एक ही उपाय है बस..लेकिन गारंटी है कि तुरन्त आराम मिलेगा।”
“तो जल्दी बताओ न…. देर हो रही है।”
“जी,आजकल रीजल्ट का मौसम है। अगर परीक्षा पास कर चुके किसी गरीब विद्यार्थी को माला पहनाकर उसकी फ़ोटो सोशल मीडिया पर डाली जाए तो तबियत को तुरंत आराम मिल सकता है।”
नेताजी के समर्थक उछल पड़े..क्या बात कही डॉक्टर…देर किस बात की..अरे भाई आज ही तो यूपीएससी का रीजल्ट आया है। शहर की एक लड़की आईएएस बन गई है। अभी हम उसका माल्यार्पण करते हैं।
चलो जवानों..नेताजी की तबियत ठीक करने का इससे ज्यादा बड़ा मौका कुछ नहीं हो सकता।”
लेकिन इलाज की इस विधि से नेताजी चिंतित हो उठे।जैसे-तैसे बेड से उठे और बड़ी देर तक सोचकर बोले..
“मूर्खों..क्या वो लड़की अपनी जाति की है ?
एक समर्थक नें मायूस होकर कहा,” नहीं,अपनी जाति की तो नहीं है।
“तो क्या लड़की का बाप रिक्शा चलाता है ?”
” बिल्कुल नहीं…पैसे वाले लोग लगते हैं।”
नेताजी मायूस हो गए.., “तब रहनें दो।।मेरी तबियत ठीक नहीं हो सकती..इससे पूछो इसको किसनें डॉक्टर बनाया ?”
समर्थकों नें डॉक्टर का कॉलर पकड़ लिया…डॉक्टर पसीने-पसीने हो गया। इस बार नर्स नें फिर मोर्चा संभाला।
“रुकिए नेताजी..लड़की के पिताजी ऑफिस से पैदल ही घर जाते हैं, मैनें अपनी आंख से देखा है…!”
नेताजी उचककर खड़े हो गए,” बेवकूफ़ तब यही बात पहले बताना था। लड़की का बाप तो भारी कर्जे में है। चलो चलकर उनका सम्मान करें। तुम सब जल्दी सोशल मीडिया पर एक भावुक पोस्ट लिखो।”
झट से फूल-माला और मिठाई मंगाया गया। नेताजी और उनके सारे समर्थक यूपीएससी क्वालिफाई कर चुकी लड़की के दरवाजे पर पहुँच गए। एक समर्थक नें पोस्ट भी लिख ली। अब बस फ़ोटो खींचनें और शेयर करनें की बारी थी।
लेकिन लड़की के घर जाते ही ग़जब हुआ। नेताजी धम्म से जमीन पर बैठ गए। उनकी सांस इस बार और तेज़ हो गई। धड़कन आटा चक्की से भी तेज चलने लगी।
खुद को औऱ अपने समर्थकों को कोसने लगे। कहने लगे,”मुझे अस्पताल ले चलो..जल्दी करो..
समर्थक कहने लगे,”पहले लड़की को माला तो पहना दीजिये..उसके बाप के साथ एक तस्वीर तो ले लें..
” नेताजी जी चिल्लाए…नहीं..नहीं वो देखो…. उस तरफ देखो..
सारे समर्थक उस तरफ देखने लगे।
सामने एक नायाब मंजर था… यू ट्यूबरों की लाइन लगी थी।
विरोधी पार्टी का एक युवा नेता आईएएस बन चुकी लड़की को माला पहनाकर एक पत्रकार को इंटरव्यू दे चुका था।
अन्य पार्टियों के नेता भी माला लेकर लाइन में खड़े थे।
आस-पड़ोस के हर व्यक्ति का इंटरव्यू हो चुका था।
विधायक और मंत्री सोशल मीडिया पर लड़की के पिताजी के साथ एक घण्टे पहले ही फोटो भी पोस्ट कर चुके थे।
और तो और नेताजी से पांच सौ वोट कम पाने वाला एक नेता नें अपनी पोस्ट में लड़की के पिताजी को अपने बचपन का मित्र और लड़की को अपनी सगी बेटी बता चुका था।
ये मंजर देख नेताजी रोने लगे…”बताओ..अब है कोई फायदा है, माला पहनाने और फ़ोटो खींचवाने से…? जल्दी मुझे अस्पताल ले चलो।”
निराश समर्थकों नें उनको टांग लिया। रस्ते में नेताजी जी और तेज रोने लगे, “मूर्खो..तुम्हारे जैसे समर्थको की बजह से मैं आज तक हार रहा हूँ। इस देश का कुछ नही हो सकता।”
समर्थकों नें नेताजी को अस्पताल के उसी बेड पर लाकर पटक दिया।
डॉक्टर ने पूछा,” क्या हुआ,आपकी तबियत ठीक हुई ?
नेताजी का फिर पारा गर्म हो गया उन्होंने चिल्लाकर फिर पूछा, “ये बताओ तुमको डॉक्टर किसनें बनाया?”
डाक्टर नें कहा, “जिसनें आपको नेता बनाया।”
“इस देश नें ?”
डाक्टर नें कहा, “जी..”
“तब ये देश बीमार है डॉक्टर..जल्दी से मुझे भर्ती करो..!”
डॉक्टर नें कहा, “माला पहनकर लेट जाइये सर..बिजली नहीं है।”
©- अतुल कुमार राय
March 2, 2023
हँसी-खुशी हो ली…
January 7, 2023
अश्लील हरकतें ना करें……!
चढ़ाई बहुत लंबी हो। रास्ता गुमनाम हो। दूर-दूर तक कोई आता-जाता दिखाई न दे। बड़ी मुश्किल से कुछ दिखाई भी दे तो वही बिसलेरी की बोतलें,फटे जूते,चिप्स के वही पैकेट… बियर के वही खाली केन।
तो इसका आशय यही होता है कि आप जिस पहाड़ को इम्तियाज अली का सिनेमा समझकर चढ़ रहे हैं,उसे तुरंत अनुराग कश्यप का सनीमा हो जानें में अब तनिक भी देर नहीं है। इसलिए यहाँ सावधान हो जाना ज़रूरी है।

सच कहूं तो नैनीताल से दूर चाँपी नामक उस गुमनाम सी जगह के खूबसूरत पहाड़ों और झरनों के बीच कहीं खोए दिल तक इस सावधानी की सूचना पहुँची ही थी, तब तक एक गैर सरकारी सूचना पर नज़र चली गई।
उस सूचना में किसी शारीरिक विज्ञान के लेखक नें बड़े मनोयोग से लिखा था,… “नदी में अश्लील हरकतें ना करें।’
मैं जब तक अपने द्वारा की गई हरकतों को ऊपर नीचे कई बार देखता और मुतमईन होता कि मैं कत्तई अश्लील हरकत नहीं कर रहा हूँ,तब तक हमारे सहयात्री आलोक भइया बोल पड़े,”ये सब साले पहाड़ों को ओयो बना दिए हैं।”

इतना सुनने के बाद जब अश्लीलता के सार्वभौमिक अर्थ की तरफ़ मेरा दिमाग गया तो मैं वहीं बैठ गया और सोचने लगा कि ये कौन लोग हैं,कहाँ से आते हैं…?
जिनको इतने सुंदर पहाड़,ये न जाने कितनी दूर से आते झरने..ये ठंडी हवाएं,ये पक्षियों की चहचहाहट सुनाई नहीं देती।
ये पहाड़ों के शांत से प्यारे लोग दिखाई नहीं देते। बल्कि दिखाई भी देता है तो सिर्फ और सिर्फ दारू,गांजा, सिगरेट,बियर और सेक्स।
लेकिन क्या करेंगे…किसी प्रसिद्ध जगह और किसी स्थान के साथ अगर पर्यटन स्थल और पिकनिक स्पॉट जुड़ जाए तो उसका खामियाजा उस जगह को भुगतना ही पड़ता है।
आज पहाड़ इसका खामियाजा भुगत रहे हैं।
आज जून से लेकर क्रिसमस और नए साल की छुट्टियों पर मनाली और शिमला के रस्तों पर कई किलोमीटर गाड़ियों के लंबे जाम हों या गर्मियों में केदारनाथ यात्रा के ट्रैक पर भीड़ में दबकर कई लोगों की मौत हो…!
ये सब बताने के लिए काफी हैं कि हमारे पर्यटन स्थल उस भीषण अनियंत्रित और गैर जिम्मेदार भीड़ का शिकार हो चुकें हैं। जिसे इसका तनिक भी अंदाजा नहीं है कि कहाँ कब क्या करना चाहिये, कहाँ कब क्या नहीं करना चाहिए।
ऊपर से सरकार की जिद है कि भविष्य में इस आने वाली भीड़ को किसी प्रकार की दिक्कत न हो। एकदम नेशनल हाइवे की तरह लाइट से जगमग चिक्कन सड़क मिले। जगह-जगह आमोद-प्रमोद के लग्ज़री साधन हों..ताकि यात्रा मनोरंजक बन जाए।
सुविधा इतनी हो कि एक यात्री एक रोड पर चलना शुरू करे तो उसे रोड छोड़ने की ज़रूरत न पड़े, एक ही साथ चारो धाम की यात्रा कर ले।
ये जिद प्रथमदृष्टया अच्छी ही थी। एक यात्री कहीं से आता है तो आठ लोगों को रोजगार देता है। कौन सरकार नहीं चाहेगी और कौन नागरिक नहीं चाहेगा कि उनके यहाँ लोग न आएं और स्थानीय लोगों को रोजगार न मिले ?
लेकिन प्रकृति की प्रकृति के साथ खिलवाड़ की शर्त पर इस जिद को पालने के नुकसान का अंदाजा भी तो होना चाहिए न?
वो भी तब, जब आप दो हजार बारह जैसी भयानक विपदा देख चुके हैं।
आज से छह महीने पहले बद्रीनाथ जाते समय देखा था कि इस अनियोजित जिद नें पहाड़ो के हृदय चीरकर रख दिया है।
जोशीमठ से पहले रात-रात भर पहाड़ों को चीरते पोकलेन इतना डराते हैं कि लगता है कि कहीं गाड़ी के ऊपर कोई चट्टान न गिर जाए..कहीं हम दब न जाएं… लेकिन रास्ता चल रहा,हम इस उम्मीद में खुश हो रहे कि अगली बार तो नेशनल हाइवे की तरह सड़क बन जाएगी। कितना मजा आएगा।
लेकिन तब क्या पता था कि आने वाले छह महीने बाद इसी जोशीमठ के वो पच्चीस हज़ार लोगों के घरों के ऊपर बिजली गिर जाएगी और उन्हें इस भयंकर ठंड में अपना-अपना घर खाली करनें की सूचना पकड़ा दी जाएगी…!

आज जोशीमठ की हालात ये है कि जमीन से लेकर घरों तक दरारे पड़ चुकी हैं। लोग स्खलन के डर से हलकान हैं। हजारों लोगों ने टेंट के बने घरों में शरण लिया है।
चारधाम परियोजना को वहां तत्काल प्रभाव से रोक दिया गया है। केंद्र सरकार नें इसकी जाँच के लिए अलग समिति का गठन किया है। राज्य सरकार अलग…सीएम साहब आज मिलकर लोगों को सांत्वना देने पहुँचे हैं।
लेकिन न हमें उनके दुःख का अंदाजा होगा न ही सरकार के नीति नियंताओ को होगा..
कि ये अचानक जमीन और घरों पर उग आई दरारें सिर्फ़ जमीन पर नही हैं बल्कि पच्चीस हज़ार चेहरों पर हैं,जिन्हें पता है कि अपना पैतृक घर हमेशा के लिए छोड़ना कितना दुखदायी होता है।
वो एक घर,महज ईंट, सीमेंट छड़ और बालू का नहीं बना होता है बल्कि वो खूबसूरत भावनात्मक स्मृतियों का वो स्थायी ठीहा होता है,जिसकी ऊर्जा आदमी को ताउम्र एक भावनात्मक संबल से बांधे रखती है।
न जाने क्यों जोशीमठ के लोगों को टीवी पर देखकर एक अपराधबोध सा घिर आता है।
ऐसा लगता है कि शायद इस अश्लीलता के जिम्मेदार हम सभी हैं। लेकिन पहाड़ के पहाड़ जैसे हृदय वाले लोग हमें माफ करें….
शायद देवभूमि के देव आपकी परीक्षा ले रहे हैं। और मुझे चांपी के पहाड़ पर लिखी वो सूचना फिर याद आ रही है,जिस पर किसी नें लिखा है कि यहां अश्लील हरकत न करें…
मेरा बस चले तो मैं जाकर अभी लिख आऊं कि यहां अश्लील हरकतें न करें,वरना पहाड़ रोते हैं,नदियां कलपती हैं।
आखिर ये धरती जितनी इंसानों की है,उतनी ही पशु, पक्षी, जंगल,नदी और पहाड़ों की भी तो है।
आदमी को हक़ नहीं,पर्यटन ने नाम पर किसी का हक मारने का…
वो तो भला हो जैन समाज के लोगों का,जिन्होंने बड़े ही शांतिपूर्वक सम्मेद शिखर जी को पर्यटन स्थल बनने से लगभग बचा लिया है। एक अश्लीलता से बचा लिया है।
बस,सरकारों से यही निवेदन है कि जब तक इस देश की भीड़ को पर्यटन स्थल और धार्मिक स्थल में अंतर करने की योग्यता नहीं आ जाती, तब तक पर्यटन स्थल के नाम पर इस अनियोजित विकास पर लगाम लगाकर ही रखें।
धार्मिक यात्रा इस भीड़ के लिए जिस दिन लग्जरी हो जाएगी, धर्म उसी दिन जोशीमठ के दरारों की तरह फटने लगेगा।
सादर
अतुल
July 30, 2022
एक माइल्ड सा दर्द !
सब्जी की दुकान पर खड़ा होते ही एक मीडिल क्लास आदमी सबसे पहले इकोनॉमिस्ट बन जाता है। ग़लती से दो-चार सौ की सब्ज़ी आपने ले ली तो महंगाई की तरह आपकी बीपी बढ़ने लगती है और कुछ ही देर में रुपये की तरह कमज़ोर पड़ते हुए आपको ये एहसास हो जाता है कि धनिया तो फ्री में लेना था,वो तो मांगा ही नहीं।
मैनें देखा है। मुम्बई में लोग बीएमडब्ल्यू से उतरते हैं और दस रुपये पाव वाली सब्जी को कहते हैं,”जरा कम लगाकर धनिया डाल दो भाई !”
सब्जी वाला भी गर्दन हिलाकर कम लगाते हुए धनिया डाल ही देता है। क्योंकि वो भी जानता है कि अक्खा मुम्बई में कम लगा देने की सारी संभावनाएं सिर्फ सब्जी बेचने वाले के पास ही मौजूद हैं, किसी कार बेचने वाले के पास नहीं।
इधर मैंने एक अरसे से महसूस किया है कि चाय की दुकानों को भी ठीक इसी कैटेगरी की सुविधा प्राप्त है।
कुल्हड़ में एक चाय लेते ही हर आदमी की सुसप्त राजनीतिक चेतना जाग्रत हो जाती है और गाहे-बगाहे आदमी को लग ही जाता है कि भाजपा और कांग्रेस के अलावा इस दुनिया में सबको पता है कि पॉलिटिक्स कैसे करनी चाहिए।
लेकिन आज की ये ताजा तरीन हसीन सी घटना न सब्जी के दुकान पर घटी है, न ही चाय की दुकान पर…ये घटना एक बस स्टॉपेज पर घटी है।
सर्व विदित है कि मुम्बई की बारिश जुलाई में जवान होती है।
इसी जवानी के दिनों में छाता लेकर भीगते हुए एक लेखक हाथों में कुछ साहित्य की किताबें लिए बस स्टॉपेज पर जीवन का उद्देश्य क्या है टाइप खालिस बौद्धिक विषय पर चिंतन कर रहा है। तभी नेपथ्य से भीगते हुए एक सुकन्या का आगमन होता है।
सुकन्या को देखते ही निराशा की गहन कोठरी में उत्साह के नव नूपुर बज उठते हैं। सारा अस्तित्ववादी चिंतन छायावादी चिंतन में तब्दील हो जाता है। आरडी बर्मन और मजरूह सुल्तानपुरी के नगमे जहाँ कहीं भी हों,आँखे खोल लेते हैं। मन के आकाश में सौंदर्य की माया घेरने लगती है।
रुप लावण्य देखकर प्रतीत होता है कि वो अभी-अभी किसी आडिशन से “नाट फिट” की पारम्परिक आवाज़ सुनकर लौट रही हैं। कायदे से मेकअप भी नहीं उतरा है या मेकअप इतना ज़्यादा है कि बारिश भी उसका बाल-बांका नहीं कर सकी है।
बालों को बड़े ही बाँकपन से संवारते हुए वो लेखक की हाथों में क़िताबों को गौर से देखने के बाद पूछती हैं,”एसी वाली बस कब आएगी ?”
लेखक उनके चेहरे से टपकते सावन को भीतर तक महसूस करते हुए कहता है…
“जी अभी तो गई है।”
“अच्छा-अच्छा आप भी उसी तरफ जा रहे हैं..?”
“जी नहीं,मुझे कहीं नहीं जाना..!”
“तो बस स्टॉपेज पर क्यों खड़े हैं..?”
“जी,मैं कहीं नहीं जाना चाहता हूं..!”
“क्या मतलब इसका ?”
“जी,कभी-कभी कहीं नहीं जाने के लिए भी कहीं जाना पड़ता है।”
लेखक की बात सुनकर मोहतरमा का चेहरा जीएसटी की तरह पेचीदा हो जाता है। अपने सुर्ख गुलाबी गालों से पेच-ओं-खम हटाकर मुस्कराते हुए कहती हैं..
“क्या मतलब…कुछ समझी नहीं…!”
“जी इसका मतलब ये है कि मैनें आज हिंदी साहित्य की एक दर्जन अस्तित्ववादी कविताएं पढ़कर दो ईरानी फिल्में देख ली हैं। मुझे लग रहा है कि मैं इस दुनिया का आदमी नहीं हूं…मैं कोई और हूँ..!
“ओ,माय गॉड… ही ही..”
मोहतरमा की हंसी से दिल की किताब के सारे पन्ने फड़फड़ा रहे हैं। हंसते हुए बड़े ही आश्चर्य से देखती हैं। मानों थार के मरुस्थल में किसी साइबेरियन पक्षी को देख रहीं हों।
“ओ, तो आप लेखक हो..?”
लेखक का मुंह चौड़ा हो जाता है।
“जी-जी बस थोड़ा सा ही, लिख लेता हूँ..!”
“हाउ फनी, थोड़ा क्यों, पूरा क्यों नहीं ?”
लेखक का दार्शनिक मन जागता है।
“जी..ये शहर खुद एक जिद्दी लेखक है,जो आपको-हमको थोड़ा-थोड़ा करके टुकड़ों में लिख रहा है,इसकी लेखनी के आगे सारे लेखक फेल हैं।”
“ओह,गॉड…! साउंड्स गुड..!”
तारीफ़!
लेखक एक बनावटी मुस्कान के साथ इस तारीफ़ को अस्वीकृत करनें का नाटक करता है। लेकिन मोहतरमा हैं जो मानती नहीं है।
“अच्छा हुआ जो आप अभी आधे ही राइटर हुए हो…वरना यहाँ मुम्बई में हर आदमी एक्टर,डाइरेक्टर और प्रोड्यूसर है। और जो कुछ नहीं है वो कम से कम एक राइटर है,जिसके पास एक धांसू कहानी है,जो किसी के पास नहीं है।
जो यहां कुछ नहीं कर रहा है वो एक फ़िल्म बना रहा है और आप पहले ऐसे आदमी हो जो फ़िल्म नहीं बना रहे हो,वरना मुझे देखते ही हर आदमी एक फ़िल्म बनाने लगता है।”
मोहतरमा ये कहते हुए न जाने कौन सी भाषा की हंसी हंसती हैं।उनकी बातें दिल के उमस भरे कोनों को तसल्ली देती हैं। लेखक मुस्कराता है।
“जी मैं तो खुद फ़िल्म बन चुका हूं…! आज का सीन आपके साथ था… शायद ख़तम हो गया….आपकी बस आ गई।”
बस स्टॉप पर चहल-पहल बढ़ गई है। विदा की बेला करीब है। बैकग्राउंड में एक करूण संगीत बज रहा है। लेखक को आज पता चलता है,ओह ! जाना हिंदी की सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया क्यों है।
मोहतरमा बस पर सवार हैं। बस का ड्राइवर एक दर्जन बार हॉर्न बजा चुका है। उसका उत्साह चरम पर है। समझ नहीं आता कि ये ड्राइवर बम्बई में एसी बस चला रहा या बलिया से हल्दी रोड पे टेम्पू चला रहा है।
बस अपने गंतव्य स्थान की तरफ बढ़ रही है। मोहतरमा नें अपने बालो को सँवारकर कानों में ईयरबड्स खोंस लिया है। हाथ हिलाकर बाय करती हैं,मानों अब हम कभी नहीं मिलेंगे।
“सुनिये…
“हं जी”
“वो मैं भी एक लेखक हूँ..! गूगल पर सर्च करिएगा…”
इतना कहकर झट से ओझल हो जातीं हैं।
गूगल का नाम सुनकर लेखक की दशा याहू जैसी हो रही है।
दिल श्रीलंका की अर्थव्यवस्था की तरह बैठ रहा है। हाथ में रखे प्रेम कविताओं की किताबों में बैठे कवि चीख रहे हैं।
हाथ नहीं उठता है। सामने आसमान में सावन के बादलों को चीरकर तपता हुआ सूरज निकल आया है। दिल उस मतवाले घोड़े जैसा हो चुका है जो अपनी चाल भूल गया है। तब तक मोबाइल बज उठा है.. उधर से एक दूसरे लेखक की आवाज़ आ रही है।
“सुनो न, एक माइल्ड सिगरेट लेते आवो यार..बस एक सीन बचा है,ख़त्म कर दूं नहीं तो साला प्रोड्यूसर बहुत गरियाऐगा !”
लेखक मन ही मन फोन के उस पार बैठे लेखक को गरियाता है..।
“अबे,यहाँ तो सारा सीन ख़तम हो गया…!
“क्या..?”
“हं भाई…दिल में माइल्ड-माइल्ड दर्द हो रहा और तुमको माइल्ड सिगरेट की पड़ी है।”
atulkumarrai.com
April 26, 2022
भारतीय बुद्धिजीवी और ऑरगेज्म का बाज़ार !
आजकल महुआ,आम,लीची ही रस से आच्छादित नहीं हैं..फेसबुक टाइमलाइन भी रसमय होकर फीमेल प्लेज़र और आर्गेज्म से आच्छादित हो चुका है।
एक पक्ष अपने मदन छतरी में सुख को अनुभूत करने के लिए उद्दत हो चुका है। एक जनता इसके आगे नैतिकता की तलवार लेकर खड़ी हो चुकी है।
इस धूप भरे दिन में छतरी लगाकर जब भी फेसबुक स्क्रॉल करता हूँ तो देखता हूँ,कोई न कोई बौद्धिक शीघ्रपतन का शिकार हो चुका है।
इधर दो दिन से एक भाई कह रहा,” आप क्यों नहीं लिखते अतुल .? इस संवेदनशील विषय पर आप जैसे युवा को लिखना चाहिए।
मैं कहता हूं,यही सब लिखवाएंगे हमसे..? मैं वैलिड नही हूँ…! लिख दूँगा तो घर वाले अगले दिन कह देंगे,गांव आकर घेंवड़ा की खेती करो..बम्बई रहने की जरूरत नही है।
फिलहाल मैं तो इसी चिंता में मरा जा रहा कि मेरी फ़िल्म की स्क्रिप्ट कब पूरी होगी ?
तीन दिन पहले गेंहू दँवा गया। अनाज घर आ गया लेकिन भूसा अब तक खेत से घर क्यों नहीं आ पाया..? ! आज ही रात को अगर आंधी-पानी आ गया तो दो गाय, एक बछिया क्या खाएंगी ?
इसलिए मेरे लिए ऑर्गेज्म फिलहाल भूसा हो चुका है… !
मैं देख रहा कि मेरे एक जानने वाले मित्र के लिए सबसे बड़ा ऑरगेज्म फिलहाल नौकरी बन गई है क्योंकि वो बहन की शादी में लिये गए लोन की emi और घर के खर्च से तबाह हो चुके हैं।
इधर कोविड में अपने पिता को खोकर आज तक रोने वाले एक दोस्त के लिए किसी अग्रज का वात्सल्य भरा स्नेह ही सबसे बड़ा ऑर्गेज्म बन चुका है।
अपनी माँ के कैंसर और आर्थिक अभाव से लड़ती एक परिचित लड़की के लिए मां के स्वस्थ हो जाने से बड़ा चरम सुख कुछ नहीं लगता।
एक बेरोजगार के लिए नौकरी,प्यासे के लिए पानी,भूखे के लिए भोजन और बीमार के लिए स्वास्थ्य से बड़ा ऑरगेज्म तो कुछ नही लगता।
ध्यान से देखिये तो ये ऑरगेज्म बड़ा ही सब्जेक्टिव मामला लगता है।
अपने आस-पास हैरान-परेशान लोगों की एक पूरी समानांतर दुनिया है। जिनके लिए सेक्स और ऑरगेज्म से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ और है।
ये लोग कितने प्रतिशत हैं। इसका डाटा न who के पास है न भारत सरकार के पास तो durex और मैनफोर्स के पास क्या होगा ?
लेकिन न जाने क्यों हम अपने सुविधावादी कोटरो में बैठे लोग अपनी इच्छा,अनिच्छा को एक सिद्धांत बनाने पर तुल जाते हैं। और इसके लिये हमें आंकड़ा भी मिल जाता है।
उन आंकड़ों में उलझकर हम नहीं जानते कि आंकड़े बाजारवाद के लिए एक टूल हैं… हमें असंतुष्ट करके खरीदार बनाने की साजिश हैं।
आप देखिये 70% महिलाओं को ऑर्गेज्म नहीं मिलता ये कौन कह रहा है..? एक कंडोम बनाने वाली कम्पनी न ? उसके टीवी एड देखिये।
वही कम्पनी कह रही है कि एक्स्ट्रा डॉटेड कंडोम का जमाना गया। अब और एक्स्ट्रा ribbed कंडोम लीजिये… ये नया intence महंगा वाला पैक लीजिये,इससे आपके फीमेल पार्टनर को ज्यादा प्लेजर मिलेगा।

इधर ब्यूटी प्रोडक्ट बेचने वाले कह रहे हैं..देश में अस्सी प्रतिशत लोग स्किन केयर करना नही जानते। कोई भी क्रीम लगा ले रहे हैं..कैसे गोरे होंगे भला ?
तो इसके लिए दिन में दो बार फेस क्लींजिंग करिये..? उसके लिये 300 का सालिसीलिक एसिड वाला क्लींजर लीजिये… उसके बाद टोनर लगाइये। तब मॉइस्चराइजर लगाकर सन स्क्रीन लगाइये…!फिर आपको पार्टनर मिलेगा और तब न ऑर्गेज्म मिलेगा ?
हवा बेचने वाले कह रहे हैं। ये कौन सा एसी लगा दिये गुरु ? एयर प्यूरीफायर वाला नया एसी लगाइये जो एलेक्सा और गूगल असिस्टेंट से कनेक्ट होता है…नहीं तो आपके बेडरूम की 70-% हवा जहर बन जाएगी।
अब बताइये, ये जहरीली हवा अंदर लेकर अगर बेडरूम में आर्गेज्म आपको मिल भी गया तो आप अंदर से कितने बीमार हो जाएंगे ? आपको पता है..?
साबुन वाले कह रहे हैं,अस्सी प्रतिशत लोग हाथ ठीक से नहीं धोते। फिर आपको ऑर्गेज्म मिल भी गया तो सेक्सुअल ट्रांसमिटेड डीजीज होने का खतरा कम होगा क्या ? सेक्स से पहले हाइजीन का ज्ञान जरुरी है।
पानी बेचने वाले बता रहे हैं..कितना प्रतिशत गंदा पानी हम पी रहें हैं। ऐसा गंदा पानी पीकर सेक्स करेंगे आप ?
आटा, चावल, तेल,मसाला,कोल्डड्रिंक,कपड़ा,जूता, साबुन और सेंट बेचने वाले अपने-अपने डाटा के साथ तैयार हैं।
लेकिन इन आंकड़ों से बाज़ार चलता है जीवन नहीं। जीवन में बहुत कुछ ऐसा है,जो इन बाजारू आंकड़ों से ऊपर है।
मैं बहुत ऐसे लोगों को जानता हूँ जो दर्जनों अवैध सम्बंध बनाकर डिप्रेशन और एंग्जायटी से भरी लाइफ जी रहें हैं। सैकड़ों हजारों लोग ऐसे भी हैं,जो जिस हाल में हैं, प्रसन्न हैं।
उनको देखकर लगता है कि खुशी स्टेट ऑफ माइंड है। प्रसन्नता और संतुष्टि खोजने वाला एक आदमी के साथ भी खुश रह लेगा,न रहने वाला दर्जनों उन्मुक्त सम्बंध बनाकर भी फ्रस्ट्रेट रहेगा।
क्योंकि शारिरिक हो या मानसिक इंसान की ख्वाहिशों का अंत नही है।
अब देखिये…जिन पश्चिम देशों की महिलाओं के उन्मुक्त सेक्स जीवन को हमारे यहां आदर्श बताया जाता है। और मेट्रो सिटी में धुँआधार फॉलो क़िया जाता है। वहां आजकल ‘स्प्रिचुअल सेक्स’ और ‘स्लो सेक्स’ की बातें की जा रही हैं।
हमारे यहां ऑर्गेज्म पता नहीं। सेक्स ट्वॉय,जी स्पॉट, ए स्पॉटऔर क्लीटोरल स्ट्यूमलेसन जैसी बेसिक बातें जनता जानती नही,उधर वो कह रहे हैं कि महिला के लिए ऑर्गेज्म से ज्यादा intence फीलिंग तो squirting होता है।
ब्रिटेन की एक स्प्रिचुअल लेखिका और सेक्स एक्पर्ट का मैं एक दिन एक ब्लॉग पढ़ रहा था ,वो कह रही थी उन्मुक्त सम्बन्धो नें इंसान को मतलबी बनाकर असंतुष्ट बना दिया है।
अगर सुख महसूस करना है तो सबसे ज्यादा सुखदायी है orgasmic meditation
यानी संभोग को मेडिटेशन की तरह करिये,इससे आप परम आनंद को प्राप्त होंगे। फिर आपकी प्यास ख़तम हो जाएगी।
कुछ नें तो बकायदा इस आर्गेज्मिक मेडिटेशन को स्लो सेक्स का नाम देकर किताब भी लिख मारी है। कुछ नें ये सब सिखाने के लिए बाकायदा कोर्स लांच किया है।
इसमें ऑरगेज्म की तलाश में भटकते लोग शामिल हो रहें हैं।
भारत में लोग इसका नाम भी नही जानते। जानते तो झट से कहते,अबे बन्द करो, ये आर्गेज्मिक मेडिटेशन कुछ और नही, बल्कि ये तो संभोग के परिप्रेक्ष्य में विज्ञान भैरव तंत्र का वही सूत्र है जो शिव नें मां पार्वती को दिया था। ये तंत्र है। भारत की आध्यात्मिक विरासत।


लेकिन अज्ञानता हमारी। बेसिक बात जानते नहीं,तंत्र सेक्स क्या खाक जानेंगे।
बात वही है कि तरह-तरह के आंकड़े, रिपोर्ट और सर्वे मौजूद हैं। आपको खुश करने वाले,आपको दुखी करने वाले। आपको सन्तुष्ट करने वाले और असंतुष्ट करनें वाले।
किसको पकड़कर जीवन चलाना है आपके ऊपर है।
सेक्स जीवन है या जीवन ही सेक्स है। किसी एक के साथ प्रेम और सहयोग,सामंजस्य जरूरी है या किसी के साथ सम्बंध। ये आपके ऊपर है।
जीवन किसी एक फार्मूले और एक सर्वे और एक आंकड़े से नही चलता।
ऑरगेज्म भी मनुष्य का दैहिक अधिकार है। लेकिन उससे कहीं ज्यादा जीवन में प्रेम,संवाद,सामंजस्य और सहयोग जरूरी है। बिना उसके सब बेकार है।
लेकिन दिक़्क़त यहां इसी बात की है कि हम पोर्न देखकर सेक्स करना सीख रहे हैं और सिनेमा देखकर प्रेम करना।
atulkumarrai.com
March 5, 2022
कहीं न जाने वाले रास्तों पर !
मौसम अब हथेली की तरह गर्म होने लगा है। सुबह का सूरज खिड़की पर आकर जगा जाता है। दोपहर भी कहती है,रुकना नही है लेकिन साँझ आते-आते मन किसी छोटे बच्चे सा बेचैन हो जाता है।
इधर गंगूबाई काठियावाड़ी देखने के बाद अचानक ही बेगम अख्तर से प्रेम बढ़ गया है। उन पर लिखी यतीन्द्र मिश्र की किताब मुझे नाराजगी भरी नजरों से देख रही है। बेगम साहिबा की ग़ज़लें रोज सुन लेता हूँ लेकिन कुछ किताब पढ़ने को भूल जाता हूँ।
तीन दिन से ये भी सोचता हूँ कि अपने सोसायटी के सिक्योरिटी गार्ड से कहूंगा,आपकी नई टोपी सुंदर है,इसमें आप किसी मेजर साहब से कम नहीं लगतें हैं, मुझे आपको सैल्यूट करने का मन होता है।
किसी दिन नीचें बरगद के पास जूते सिलने वाले से बताऊँगा कि आप हंसते हैं तो मुझे मेरे एक बाबा की याद आती है। लेकिन डर जाता हूँ कि कहीं जूते वाले नें हंसना रोक दिया तो?
इधर चलती राह मुझे रोककर जूस वाला मुझसे अपनी हालात बयां करता है। उससे भी आज तक कह नहीं पाता कि बीबी से झगड़ा न किया करे। प्रेम वो फल है,जिसका जूस कभी ख़तम नहीं होगा। लेकिन मैं डर जाता हूँ कि वो कहीं ये न कह दे कि शादी हुई होती तो आप ये ज्ञान नहीं देते।
इधर आजकल वो बड़ी शान से बताता है कि एक लेखक मेरी दुकान पर जूस पीते थे,आजकल वो बीएमडब्ल्यू से आते हैं,लेकिन गाड़ी से नीचें नही उतरते। इसके बाद उसकी भौहें चढ़ जाती हैं।
मानों मन ही मन वो कह रहा हो कि आप भी बड़े आदमी बनकर मुझे भूल न जाईयेगा। कल मैंनें उससे कहा, मैं ऑटो से आऊंगा आपके यहाँ। वो हंसता रहा था बड़े देर तक और कुछ देर तक भूल गया था, अपने सारे दुःख और गम।
इधर बड़ी दिन सोचने के बाद कल एक प्यारी सी लड़की से कह पाया,”सुनों,तुम अच्छा डांस करती हो। लड़की नें कहा,सच में ? और देर तक खुश रही थी पगली। अभी उससे कहना बाकी है कि तुमको नज़र न लगे पर नहीं कह पाया।
एक लड़का,जो मुझे रोज फोन करके पूछता है कि भैया मैं ऐसा क्या लिखूँ कि सबकी नजर में चढ़ जाऊं ? मैंनें उससे कहना चाहा है कि जो नज़र में चढ़ने के लिए लिखते हैं,वो बहुत जल्दी नज़र से उतर जाते हैं। तुम बस पढ़ो, लिखना अपने आप होता है। पर उससे भी कह नहीं पाया। शायद बहुत कुछ होता है,जो चाहकर भी कहना नहीं हो पाता।
इधर आज बड़े दिन बाद मैनें अपना ब्लॉग देखा है, ब्लॉग रो रहा है। उपन्यास क्या लिखा,दो हजार बाइस में एक भी नई पोस्ट नहीं आई है। ब्लॉग के पन्ने आहत हैं,ठीक वैसे ही,जैसे नई गाड़ी आने के बाद पुरानी गाड़ी आहत हो जाती है अपनी उपेक्षा से।
लेकिन कल ब्लॉग से कहा है कि तुम मेरा पहला ठौर हो,पहला ठिकाना। जल्दी आऊंगा, लिखूंगा वो सब,जो कह नही पाऊंगा किसी उपन्यास में,न ही किसी फिल्म में,न ही किसी अख़बार के कॉलम में।
पर कैसे ? इन दिनों ऐसा लगता है,ज़िंदगी किसी रिपीट मोड में बज रहे गाने जैसी हो गई है। हम रोज एक ही गाना सुन रहे हैं और खुश हो रहें हैं उन्हीं पुनरावृत्ति से जिनसे निजात पाने के लिए सारी जंग जारी है।
ऐसा लगता है इस जंग में हम खुद हथियार बन गए हैं। जहां,कई बार लगता है सब सुंदर तो है..पर उस वांछित सौंदर्य से मोहभंग भी हो जाता है। सोचता हूँ..कुछ दिन के लिए कहीं चला जाए..बहुत दूर। जहां रहने के लिए धरती हो,ताकने के लिए आसमान।
लेकिन कहाँ..मेरे सामने मेरी जिम्मेदारीयों का पहाड़ पूछ पड़ता है ? जावोगे कहाँ कितना दूर ? कहाँ जाऊंगा यही सोचते-सोचते रोज दूर तक जाता हूँ और जाकर लौट आता हूँ। वो दूर अब तक खोजा नहीं जा सका है।
December 16, 2021
स्मृतियों में बाबूजी :
और तब मेरी धड़कन रुक जाती,जब बाबूजी बताते कि एक रात वो जब वो मकई के खेतों में अकेले सोए थे। आसमान चटक चाँदनी से नहाया हुआ था। हवा सनसना रही थी। ठीक तभी सामने वाले खेत से किसी के आने की आहट हुई थी।
बाबूजी नें टॉर्च जलाना चाहा था। टॉर्च तो जल न सका था लेकिन एकाएक कुछ अनजाने हाथ उनके सामने बढ़कर पूछ बैठे थे,” खैनी बा हो ?”
तब बाबूजी नें बिना उनकी शक्ल देखे,अपनी चुनौटी की डिबिया उन हाथों में रख दी थी और सुबह गांव में निकलते हुए पाया था कि गांव के दक्षिण टोले के एक घर से चोरों नें लाखों का सामान निकाल लिया है।
और वो चोर कोई और नहीं हैं,बल्कि वहीं थे,जो कल रात उनसे खैनी मांगकर खाते हुए,हंसते हुए, किसी धुएं की तरह हज़ारों एकड़ में फैले मकई के खेतों में अदृश्य हो गए थे।
बाबूजी को ये भी मालूम था कि ददरी मेले में सबसे महंगा बैल उन्होंने कब बेचा। सबसे बढ़िया भैंस उन्होंने कब खरीदी।
कार्तिक की बुवाई से समय निकालकर ददरी मेले में जाने से पहले अपने गाय-भैंस,बैल को कैसे तैयार किया था कि मेले में उनकी तारीफ़ की झड़ियाँ लग गई थीं।
हां,सबसे रंगबाज घोड़ा जिले में किसने रखा था। सबसे जातीय नस्ल की गाय जिले में किसके पास आज भी है।
मकई किसकी सबसे बरियार लगी है,आलू की फसल में कौन सबसे मुनाफा कमाएगा।
और तो और बाबूजी नें भिखारी ठाकुर को बुढ़ौती में गाते हुए देखा था।
मैं जब भी उनके पास बैठता। जानबूझकर पूछ देता था।
बाबूजी खड़े होकर भिखारी के मंच पर आने और गाने का आंखों देखा हाल इस अंदाज में सुनाते कि स्वयं भिखारी हो जाते थे और मैं चार किलोमीटर दूर से भिखारी की नाच देखने आया दर्शक…!
हां, जिले में हिंसा का इतिहास हो या राजनीति का। समाज सेवा का हो या धर्म का। वो पैंसठ सालों के चलते-फिरते दस्तावेज़ थे।
वो दस्तावेज़ जिसको किसी कॉलेज नें नहीं,बल्कि ज़िंदगी नें बैठाकर अपने हाथों से पढ़ाया था।
उनकी आंखें उसी में पढ़ाई से चमकती थीं और मुझे बताती थी कि मुझे गांव में किससे सतर्क रहना चाहिए,कौन अपना है,कौन पराया। किसनें मेरे बाबा, मेरे परबाबा के साथ कब कैसा व्यवहार किया है।
वो कहते कि मैं इसका हिसाब रख लूं। आगे जीवन में बड़ा काम आएगा।
लेकिन अफसोस कि मुझे इन गंवई हिसाबों में कभी रुचि उतपन्न नहीं हुई। मेरी रुचि हमेशा बाबूजी को बैठकर सुनने में थी।
अब लगता है गलती किया। इतनी तस्वीरें खींचता हूँ मैं। इतने विडियो बनाता हूँ। बाबूजी को बोलते हुए क्यों न बना सका ?
वो जब उदास होते तो क्यों न कभी उनको गले लगाकर कह सका कि बाबूजी मैं हूँ न,चिंता मत करियेगा।
लेकिन क्या कहूँ, मुझे क्या पता था कि इतना जल्दी उनके गोरे रंग,और रौबदार चेहरे में सजे मटके के लंबे कुर्ते,धोती, गमछे और सदरी में लिपटा उनके शानदार व्यक्तित्व हमेशा के लिए चला जाएगा।
उन्होंनें मेरा नामकरण किया था। वो मेरे पापा के बड़े भाई थे। उनका नाम रामजी था। पापा का नाम शत्रुघ्न है।
आज हाल ये है कि रामजी के जाने के बाद शत्रुघ्न रो पड़ते हैं.. जब भी घर से फोन आता है,मैं अपने पापा को अपने बड़े भाई के लिए यूँ रोता देखकर असहाय सा हो जाता हूँ।
हिम्मत नहीं होती घर पर बात करनें की। घर को याद करने की, न ही घर जाने की।
सोचता हूँ, क्या लेकर जाऊंगा। बाबूजी से क्या कहूँगा। आज तीन महीने से सोच रहा था कि बढ़िया लिट्टी-चोखा खाए कितने दिन हो गए..अबकी गांव जाऊंगा तो बाबूजी से लिट्टी-चोखा लगवाऊंगा। दोस्तों को बुलाऊँगा।
अभी तो बाबूजी के लिए मटके का कुर्ता खरीदना था। एक गाड़ी खरीदनी थी। और न जाने क्या-क्या करना था।
लेकिन कसक यही है कि जब जीवन में पहली बार उनके लिए कुछ करने की हालात में आ रहा था,तो बाबूजी अपनी सांसों से जीवन की अंतिम लड़ाई लड़ रहे थे।
उनको पता नही था कि मैं क्या करता हूँ। क्या होती है म्यूजिक की पढ़ाई। राइटिंग,नॉवेल! फ़िल्म…
उनको बस इतना पता था कि मैं जो कर रहा हूँ, एक न एक दिन कुछ बड़ा करूँगा… ! और एक दिन लोग उन पर गर्व करेंगे कि आपके भतीजे नें तो गरदा कर दिया रामजी बाबू!
मन उदास हो जाता है ये सब सोचकर… जीवन में इतना भावनात्मक संघर्ष आज तक कभी महसूस नहीं किया है मैनें।
बस बाबूजी के सपनों को पूरा करूँ… ईश्वर से यही कामना है।
ढ़ेर सारे आंसूओ के साथ..
अतुल
November 9, 2021
छठ पूजा- दुःख का ढंग अलग है लेकिन रंग एक है।
रात के साढ़े नौ बज रहे हैं। अंधेरी में हुई आठ घण्टे की एक लंबी सीटिंग के बाद आँखों के सामने अब अंधेरा छानें लगा है। जाना तो आरामनगर भी था। लेकिन देह को आरामनगर जाने से ज्यादा कमरे पर जाकर आराम करने की जरूरत महसूस होती है। मन होता है कि जल्दी से जाकर, नहाया जाए और कुछ खाकर बस सो लिया जाए।
इधर ओला के ड्राइवर साहब कह रहे हैं,”भइया,बस दो मिनट रुकिये मैं आता हूँ,कैंसिल मत करियेगा प्लीज!”
मेरे मुंह से अचानक निकल जाता है, “जल्दी आवा मरदे, ना त हम सुत जाइब, रोडवे पर”
उधर से वो हंसते हैं। इधर मैं ड्राइवर का नाम पढ़ता हूँ। नाम से ऐसा लगता है,जैसे कोई अपनी तरफ का आदमी होगा। बलिया,मऊ, छपरा,सिवान, गोपालगंज या आरा का कोई चालीस-पचास साल का आदमी।
लेकिन थोड़ी देर में ड्राइवर साहब आते हैं। नाम बुजुर्गो का है लेकिन उम्र ज्यादा नहीं है। मुझे देखते ही मास्क को सरकाते हैं,थोड़ा मुस्कराते हैं, मैं हड़बड़ी में बैठ जाता हूँ…चलिए…
“ओटीपी बताइये भइया,तब न..!
ओटीपी देने के थोड़ी देर बाद जाम के ताम-झाम से लड़ाई शुरू हो जाती है। समझ नही आता है ये गाड़ियों की लाइन कब ख़तम होगी। तभी धीरे से आवाज़ आती है…!
“फिलिम लाइन में हैं का भइया आप ?”
मैं हँसता हूँ, “ना भाई,लाइन में नहीं हैं,अभी क्रॉसिंग पर खड़े हैं..”
ड्राइवर साहब फिर हँसते हैं,”नहीं, मतलब हम कहे कि इधर तो उहे सब लोग रहता है।”
मैं क्या कहूँ समझ नहीं आता है। धीरे से पूछता हूँ, “छठ में घरे काहें ना गइनी ह ?’
ड्राइवर साहब फिर स्पीड स्लो कर देते है। उन्हें आश्चर्य है कि कोई भोजपुरी में इतने सम्मान से कैसे बोल सकता है।
वो थोड़ी देर तक जबाब नहीं देतें हैं। पहले वो मेरा गांव कहाँ है ये पूछते हैं, फिर मैं यहां कहाँ रहता हूँ और क्या करता हूँ इसकी जानकारी लेते हैं।
इसके बाद बताते हैं कि भइया बलिया जिला से ही नकल मारकर हम दस पास किये हैं और तबसे छह साल दूसरा काम किये, उसके बाद से ऑटो चला रहे हैं। जेतना लोग फिलिम लाइन में है न,उनको हम देखते ही चिन्ह जाते हैं।”
मैं फ़िर दोहराता हूँ…”छठ में घरे ना गइनी ह का ?”
ड्राइवर साहब फिर बात काट कुछ और बात करने लगते हैं।
इधर मेरी आँख झपकने लगी है कि तभी कानों में आवाज़ जाती है।
“होखी न सहाय छठी मइया..”
मेरी नींद खुल जाती है। मैं देख रहा ड्राइवर साहब नें गीत बजा दिया है। अभी भी जाम ही लगा हुआ है। लेकिन आस्था के इस महापर्व पर गाये जाना वाला ये गीत चित्त में लगे जाम को ख़तम कर रहा है।
ड्राइवर साहब स्टेयरिंग पर ही ताल दे रहें हैं।
मैं उनको कैसे कहूँ कि ये ताल दीपचन्दी है गुरु, आप जहां ताली लगा रहे हैं..वहां खाली आती है।
लेकिन लोक मानस शास्त्र का इतना ख़्याल नही करता। उसका यही अनगढ़पन तो उसका वास्तविक सौंदर्य है।
मैं धीरे से फिर पूछता हूँ, “छठ में घरे काहें ना गइनी ह ?’
“अब का कहीं भइया, पन्द्रह दिन बाद बहिन के बियाह बा, सोचतानी कुछ और पैसा जुटा ली..”
ये कहने के बाद उनके चेहरे पर एक अजीब किस्म की पीड़ा है,निराशा है। मैं फिर कुछ नहीं पूछता। जाम खुलने का इंतज़ार करता हूँ।
मैनें तबसे किसी से नहीं पूछा कि छठ में आप घर नहीं गए का ?
मुझे उस ओला ड्राइवर का जिम्मेदारीयों के जाम में फंसा चेहरा याद आता है।
लगता है दुःख के ढंग अलग हो सकते हैं, रंग हमेशा एक ही होता हैं…
छठ माई जाम में फंसे इन जैसे तमाम लोगो के दुःख दूर करें।
इसी मंगल कामना के साथ छठ पूजा की हार्दिक शुभकामनाएं…!
अतुल