Vivek Tariyal's Blog

November 19, 2017

ज्ञान के नए स्रोत : WhatsApp और Facebook

बात बहुत ज़्यादा पुरानी नहीं है, लोगों को ऑरकुट का चस्का लग ही रहा था और लोग इंटरनेट पर रिजल्ट दिखने के साथ-साथ ईमेल आईडी भी बनाने लगे थे। साइबर कैफ़े खोलना नया एंट्रेप्रेनुएरियल आईडिया बन के उभर रहा था और युवा प्ले स्टेशन की दुकानों को छोड़ कर साइबर कैफ़े में 15-30 रूपए घंटा देकर इंटरनेट की दुनिया के लुत्फ़ ले रहे थे। नोकिआ का मॉडल 1160 स्टैण्डर्ड का नया प्रतिमान बन रहा था और लोग कॉलिंग पैक डलवाने के साथ-साथ मैसेज पैक भी डलवाने लगे थे।


लेकिन कहते हैं कि समय कभी एक सा नहीं रहता, निरंतर बदलते रहना उसका स्वभाव है। ऑरकुट के दिन फिरे और उसकी जगह फेसबुक ने ले ली और ट्राई ने एक दिन में 100 मैसेज भेजने की सीमा निर्धारित कर दी। ऑरकुट तक तो ठीक था लेकिन सिर्फ 100 मैसेज भेज पाने का दंश लोगों की सहनशीलता की परीक्षा ले रहा था। लोगों को अभी कुछ समय और इंतज़ार करना था और इसके अलावा उनके पास कोई चारा न था। दिल पे पत्थर रख और बेकार मैसेजेस को फॉरवर्ड न करके किसी तरह सिर्फ 100 मैसेजेस में ही प्रियतम और प्रियतमा अपने मनोभावों को अभिव्यक्त कर रहे थे।


अचानक प्रौद्योगिकी की दुनिया में एक नया सूरज चमका, मोबाइल कंपनियों का एक ऐसा दौर शुरू हुआ जो अभी तक जारी है। “हर हाथ मोबाइल” का नारा किसी भी अन्य नारे की अपेक्षा सबसे ज़्यादा फलीभूत हुआ। सभी लोगों ने प्ले-स्टोर के साथ व्हाट्सएप्प का दिल से स्वागत किया। मैसेज भेजना जैसे बंद ही हो गया और एक नया दौर शुरू हुआ जिसे हम सभी सोशल मीडिया का दौर कहते हैं।


90 के दशक में जन्मा हर व्यक्ति बदलाव की इस लहर का साक्षी है। विकास की दौड़ में व्हाट्सएप्प और फेसबुक ने हमारा बड़ा साथ निभाया है। और यह मैं इसलिए कह रहा हूँ कि कम से कम सोशल मीडिया पर तो विकास के मॉडल का खूब बोलबाला है। ये दोनों हमारे ज्ञान के नए स्रोत हैं, इनसे कम समय में सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति की जा सकती हैं। हालाँकि इन सभी के बीच मिलने वाले ज्ञान की वैधता की कोई गारंटी नहीं है। लेकिन सिर्फ एक खामी की वजह से तो हम सोशल मीडिया जैसे अतुल्य ज्ञानार्जन केंद्र को त्याग तो नहीं सकते न। आपका क्या विचार है?


कहते हुए अच्छा तो नहीं लगता लेकिन हम सभी मूर्खता की सभी पराकाष्ठाओं को पार कर चुके होने के सभी रेकॉर्डों को ध्वस्त करते जा रहे हैं। व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी में दाखिले के बाद अपने सोचने समझने की शक्ति का भी हमने त्याग कर दिया है। हम क्यों इतनी आसान बात नहीं समझ पा रहे कि कुत्सित मानसिकता से ग्रस्त लोग अपने प्रोपगैंडा को फ़ैलाने हेतु हमें इस्तेमाल कर रहे हैं। दूसरों की छवि को खराब कर, दूसरे धर्मों के प्रति द्वेष फैलाकर, दोषारोपण की राजनीति करके, परिवारवाद को बढ़ावा देकर और स्वार्थपरक राजनीति की मंशा से ऐसे लोग हमें बेवक़ूफ़ बना रहे हैं और उससे भी बड़ी बात यह की हम बेवक़ूफ़ बन भी रहे हैं। सिर्फ कुछ कार्टून या चित्र देखकर हम दूसरों के प्रति अपनी सोच का निर्माण कर रहे हैं जो कि न केवल हमारी सोच को बल्कि समाज को दूषित करता है। आपको जानकार आश्चर्य होगा कि किस प्रकार राजनीतिक दल अन्य उम्मीदवारों की छवि ख़राब करने हेतु करोड़ों रूपए खर्च करके उन्हें सोशल मीडिया पर बदनाम करने का अभियान चलाते हैं। लोगों का एक बहुत बड़ा जत्था ऐसे कार्टून या वीडियो तैयार करता है और सोशल मीडिया पर शेयर करता है। ऐसे अभियानों की पहुँच बढ़ाने के लिए पेड कैंपेन (पैसा देकर विज्ञापन) चलाए जाते हैं जिसके शिकार हम जैसे लोग हो जाते हैं।


सभी पाठकों से एक ही गुज़ारिश है कि सिर्फ ऐसी पोस्ट पढ़कर ही किसी व्यक्ति, समुदाय या घटना के प्रति अपनी सोच का निर्माण न करें। तथ्यों को वैध स्रोतों से जानने का प्रयास करें। उत्तेजक पोस्ट को लाइक, शेयर या फॉरवर्ड करने से पहले सुनिश्चित कर लें कि कहीं आप किसी के प्रचार प्रोपेगेंडा का शिकार तो नहीं हो रहे।




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Published on November 19, 2017 08:40

November 9, 2017

रौशनी से डर लगता है ! (भाग – १)


आँखें मूंदे बैठे हैं हम, अंधेरों में खोज लिया है सहारा,

रौशनी से अब लगता है डर, रहने दो यह अँधियारा।

(विवेक तड़ियाल “व्योम “)



उपर्युक्त पंक्तियाँ शायद आपको हतोत्साहित करने वाली लगी होंगी। लेकिन साहब क्या करें आज के समाज की यही स्थिति है। कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि हमें हर स्थिति में प्रेरणादायी विचार रखने चाहिए (जो कि सही भी है), लेकिन जिस प्रकार बीमारी का इलाज उसकी जड़ पर काम करने से होता है उसी प्रकार समाज उत्थान का कार्य भी जड़ पर काम करने से ही फलित हो सकता है। प्रेरक विचार और अच्छी सोच अपनी जगह पर अपना काम अवश्य करते हैं किन्तु वास्तविकता को आवरण से ढक कर उसे ठीक नहीं किया जा सकता।


इतने सालों की गुलामी ने कहीं न कहीं हमें मानसिक जंजीरों में बाँध दिया है। गुलामी का एक नया रूप आज सामने है “लोकतान्त्रिक गुलामी”। पढ़ने में कुछ अजीब लगता है कि लोकतंत्र है तो गुलामी कैसी? लेकिन फिर वही कहूँगा कि साहब आज के समाज की यही स्थिति है। ये लोकतान्त्रिक गुलामी मानसिक गुलामी है जिसके अंधियारे में लोग इतना सुखी महसूस करते हैं (या यूँ कहें कि उन्हें सुखी महसूस करवाया जाता है) कि अब उन्हें रौशनी रास नहीं आती बल्कि उन्हें उससे डर लगता है।


अब चूँकि लेख लोकतंत्र की तरफ बढ़ रहा है तो सम्भावना है कि पाठक शायद मुझे किसी राजनीतिक पार्टी का सिपाही समझ रहे हों, लेकिन यह स्पष्ट कर दूँ कि मुझे किसी पार्टी से कोई लगाव नहीं। यदि लगाव और चिंता है तो वह है समाज की और अपने देश की। राजनीति पर ज़ुबान खोलना या कलम चलाना बहुत ही संवेदनशील विषय है लेकिन जीवन में यह जोखिम लिया जा सकता है, देश के लिए और समाज के लिए।


अब मुद्दे पर वापस आते हैं, जिस मानसिक गुलामी की बात की जा रही है वह कहाँ से आई है। प्रश्न गूढ़ है और उत्तर बहुत ही सरल। “अंधविश्वास”, जी हाँ अन्धविश्वास ही इस गुलामी की जड़ है। अंधविश्वास जैसा शब्द अक्सर आध्यात्मिक गुरुओं से जोड़ा जाता है जिसके प्रत्यक्ष उदाहरणों की कोई कमी नहीं है। यही अंधविश्वास हमें मानसिक गुलामी देता है। इसपर अनेकों प्रश्न उठते हैं, आइये उन्हें जानने का प्रयास करते हैं।


प्रश्न संख्या १ : हमारा विश्वास जीतने के मायने और मापदंड क्या हैं?

यदि घोषणाओं और वादों से, किसी जाति, धर्म, संप्रदाय विशेष को आरक्षण या विशेषाधिकार देकर, अच्छे दिन के सपने दिखाकर, दूसरे दलों पर दोषारोपण कर और स्वयं को सर्वोच्च बताकर कोई हमारा विश्वास जीत पा रहा है तो हमारे मापदंडों में ही दोष है। और सच्चाई भी यही है वरना आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी हमारी स्थिति ऐसी न होती। हमें नेता के चुनाव के मापदंडों को बदलना होगा, अन्धविश्वास बंद करना होगा।


प्रश्न संख्या २ : क्या हम अपने स्वार्थ से इस मानसिक गुलामी के शिकार हैं?

ये प्रश्न तो बहुत ज़रूरी है, और यह बात भी बहुत सच्ची है कि हममें से ज़्यादातर लोग स्वार्थी हैं और अपना सुख साधने हेतु किसी भी हद तक जा सकते हैं। अमुक व्यक्ति के नेता बनने से हमारा यदि कोई निजी फायदा होता हो तो हमें बाकी समाज की कोई फ़िक्र नहीं रहती। लेकिन जनाब आगे जलती हुई लकड़ी पीछे भी आती है। थोड़ा यदि समाज के लिए सोचें तो अपनी आने वाली पीढ़ी को बेहतर भविष्य दे पाएँगे।


प्रश्न बहुत हैं जिनको इस ब्लॉग पोस्ट के अगले भाग में सबके बीच रखेंगे। आपकी इस पोस्ट पर प्रतिक्रिया कमेंट कर अवश्य साझा करें।


 


सधन्यवाद।


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Published on November 09, 2017 08:02

November 4, 2017

स्वप्न ही शेष है !

भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ कलाम जी का कहना था, “स्वप्न वह नहीं जो हम सोते हुए देखते हैं, अपितु स्वप्न वह हैं जो हमें सोने नहीं देते” । सुनते ही आश्चर्य की सीमा न थी क्योंकि स्वप्न की ऐसी व्याख्या मैंने कभी सुनी नही थी । तभी स्वयं को मैंने कुछ अलग स्थिति में पाया, अपने स्वप्न हेतु नहीं अपितु उस स्वप्न हेतु जो भारतीय वीरों ने देखा था जिसमें हर भारतीय संपन्न था, सामजिक परिवेश बहुत अच्छा था, सब ओर शांति थी, साम्प्रदायिक सद्भावना थी । हर व्यक्ति दुसरे के सुख में सुखी और दुःख में दुखी था, समाज के रक्षक अपनी भूमिका बखूबी निभा रहे थे, वैज्ञानिक उन्नति के साथ वैचारिक उन्नति भी हो रही थी । स्वदेशी ही क्या विदेशी भी भारत के भूत व वर्तमान का महिमामंडन करते थकते न थे । इस स्वप्न में जो कुछ भी देखा गया वह शायद वर्तमान समाज के बिलकुल विपरीत था और इस प्रकार यह स्वप्न मात्र दिवास्वप्न बनकर रह गया ।


आज के भारत की स्थिति कुछ और ही है तथा इसका भविष्य भी दृष्टिगोचर हो रहा है । समाज विघटन की और बढ़ रहा है, हमारी सोच पर पर्दा पड़ गया है, वैचारिक शक्ति क्षीण होने लगी है, साम्प्रदायिक सद्भावना द्वेष में परिवर्तित हो गयी है, सामाजिक मायने कहीं खो गए हैं, मानस पटल पर पैसों ने विचारों की जगह ले ली है, वसुधैव कुटुम्बकम अपना अर्थ खोने लगा है, जगत में त्राहि-त्राहि मची हुई है, आँख के बदले आँख का विचार बल पकड़ रहा है, समाज के रक्षक; भक्षक का रूप लेने लगे हैं, मानव ने अपनी सभी सीमाएं लांघ दी हैं, मानव शरीर में तमोगुण की प्रधानता हो गयी है, समाज तीव्र गति से गर्त की और अग्रसर है और वह दिन दूर नहीं जब सम्पूर्ण मानव सभ्यता रसातल में पहुंच जायेगी ।


क्या वास्तव में यह स्वप्न मात्र दिवास्वप्न बनकर रह जाने के लिए था? क्या हमारे वीरों और वीरांगनाओं ने ऐसे ही भारत की कल्पना की थी ? क्या हम आगे बढ़ने की होड़ में इतने पीछे रह गए हैं की अब न तो हमें आगे बढ़ने की समझ है और न ही हमारे पास पीछे मुड़ने का विकल्प ही शेष है? क्या यही मानवता है? क्या यही सद्चरित्र है? क्या हम यूँ ही मौन रहेंगे? क्या सभ्यता के ऊपर होते इस प्रहार का हमारे पास कोई जवाब नहीं? क्या हम अपना खून अपने ही हाथों नहीं कर रहे? क्या हमारा अस्तित्व हमारे ऊपर ही बोझ बनकर रह गया है? क्या हम इतना भी नहीं सोच पा रहे हैं की हम अपने ही पतन का कारण बनते जा रहे हैं? क्या हम पूरी सभ्यता को काल का ग्रास बनाना चाहते हैं? इन प्रश्नों की चीत्कार जब कानों में पड़ती है, मन सिहर उठता है, सब कुछ नियति के विपरीत होता दिखाई पड़ता है, मानव सभ्यता गर्त की ओर  बढ़ती दिखाई देती है और हमारे अस्तित्व के नाश का दृश्य आँखों के समक्ष तांडव करता प्रतीत होता है ।


सोचने का विषय यह है की युवा शक्ति के रहते यह कैसे संभव हो पाया? युवाओं के अंदर की वह आग कहाँ बुझ गई? क्या भोग और विलास के बीच, हमें उस समाज का कोई ख्याल नहीं जिसका हम खुद एक हिस्सा हैं?


यह समय है ज्ञान चक्षुओं को खोलने का, यह समय है सामजिक स्थिति को सुधारने का, यह समय है असामाजिक तत्वों को इस समाज से ही नहीं अपितु इस धरती से निकाल फेंकने का, यह समय है ऐसी रक्षक ढाल बनने का जिसे तमोगुण प्रधान विचार व सोच तोड़ नहीं सकते, यह समय है मन में यह प्रण करने का कि हम तब तक नहीं रुकेंगे जब तक इस पावन भूमि से ऐसी सोच को न मिटा दें जो आगे चलकर सामाजिक विघटन का कारण बन सकती है, यह समय है स्वयं को लोभ और मोह से इतना ऊपर उठाने का व इतना पवित्र बनाने का कि हमारे विचारों के आगे जो भी आए; हमारे तेज मात्र से समूल नष्ट हो जाए, स्वयं को मानसिक रूप से इतना बलिष्ठ बनाने का कि समाज में जो बहरूपिये बैठे हैं जो छिप कर गलत मनोवृत्तियों को बल देते हैं, वह हतोत्साहित हों और हमारी सोच मात्र से उनका पतन हो ।


और विचारों के मध्य मन के भवसागर में एक लहर उठी और यह प्रश्न दे गई कि यह सब कैसे संभव हो सकता है? क्या युक्ति लगाईं जाये की यह विचार सच हो जाए । मेरे पास एक ही उत्तर था, स्वयं में बदलाव, अपनी दिनचर्या में बदलाव । हम समाज को तभी बदल पाएंगे जब हम स्वयं में बदलाव लाएंगे । तो आइये आज ही यह प्रण लें कि  अपने अंदर समाई तमोगुण शक्तियों को अपने शरीर व मन-मस्तिष्क से दूर करेंगे और उस स्वप्न को “शेष” नहीं रहने देंगे, अपितु उसे सच कर दिखाएँगे ।


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Published on November 04, 2017 23:28