* Publisher: Dharampal Shodhpeeth, Directorate of Swaraj Sansthan, Bhopal
* Publication: 31 March 2022
* Page count: 372
* Format: Paperback
* Description: अपनी कालजयी कृति संस्कृति के चार अध्याय के उपसंहार में महाकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कहा है, कि प्रत्येक सभ्यता, प्रत्येक संस्कृति अपने आप में पूर्ण होती है। उसके सभी अंश और सभी पहलू एक दूसरे पर अवलम्बित और सबके सब किसी केंद्र से संलग्न होते हैं और इन में जब भी परिवर्तन आता है तो केवल बाहरी अभिव्यक्तियां बदलती हैं, किंतु उनका मूल नहीं बदलता, विचार की पद्धति नहीं बदलती और जीवन को देखने का दृष्टिकोण नहीं बदलता। इस प्रकार हम देखते हैं कि संस्कृति एक आंतरिक अनुभूति है , और यदि कला की बात करें तो विविध कला रूपों के माध्यम से, संस्कृ ति स्वयं को अभिव्यक्त करती है । इस अर्थ में कला, संस्कृति के लिए एक अघोषित प्रवक्ता की भूमिका का निर्वहन करती है। परंतु संस्कृति और अंततः कला पर सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों का प्रभाव निश्चित रूप से होता है। प्रस्तुत पुस्तक भारतीय परिप्रेक्ष्य में सामाजिक और आर्थिक विकास के साथ, संस्कृति और कला पर प्रभाव और उनके परस्पर अंर्तसंबंधों का विश्लेषण करती है। यह पुस्तक जहां समाज की भारतीय अवधारणा से लेकर इसकी संरचना और सामाजिक विकास के सोपानों की विकास यात्रा को बताती है, साथ ही भारत के विविध कालखंडों में आर्थिक विकास और तदुनरूप होने वाले परिवर्तनों की तर्कपूर्ण व्याख्या करती है। यह पुस्तक भारतीय इतिहास, संस्कृति और कला पर सूक्ष्म दृष्टि डालने के साथ ही साथ, पाठकों को विषय की नवीन अंतर्दृष्टि भी प्रदान करने में सफल होगी, ऐसी आशा है।
* Author: Narmada Prasad Upadhyaya
*Editor: Santosh Kumar Verma
* ISBN: 939180604X, 978-9391806040
* Publisher: Dharampal Shodhpeeth, Directorate of Swaraj Sansthan, Bhopal
* Publication: 31 March 2022
* Page count: 372
* Format: Paperback
* Description: अपनी कालजयी कृति संस्कृति के चार अध्याय के उपसंहार में महाकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कहा है, कि प्रत्येक सभ्यता, प्रत्येक संस्कृति अपने आप में पूर्ण होती है। उसके सभी अंश और सभी पहलू एक दूसरे पर अवलम्बित और सबके सब किसी केंद्र से संलग्न होते हैं और इन में जब भी परिवर्तन आता है तो केवल बाहरी अभिव्यक्तियां बदलती हैं, किंतु उनका मूल नहीं बदलता, विचार की पद्धति नहीं बदलती और जीवन को देखने का दृष्टिकोण नहीं बदलता। इस प्रकार हम देखते हैं कि संस्कृति एक आंतरिक अनुभूति है , और यदि कला की बात करें तो विविध कला रूपों के माध्यम से, संस्कृ ति स्वयं को अभिव्यक्त करती है । इस अर्थ में कला, संस्कृति के लिए एक अघोषित प्रवक्ता की भूमिका का निर्वहन करती है। परंतु संस्कृति और अंततः कला पर सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों का प्रभाव निश्चित रूप से होता है। प्रस्तुत पुस्तक भारतीय परिप्रेक्ष्य में सामाजिक और आर्थिक विकास के साथ, संस्कृति और कला पर प्रभाव और उनके परस्पर अंर्तसंबंधों का विश्लेषण करती है। यह पुस्तक जहां समाज की भारतीय अवधारणा से लेकर इसकी संरचना और सामाजिक विकास के सोपानों की विकास यात्रा को बताती है, साथ ही भारत के विविध कालखंडों में आर्थिक विकास और तदुनरूप होने वाले परिवर्तनों की तर्कपूर्ण व्याख्या करती है। यह पुस्तक भारतीय इतिहास, संस्कृति और कला पर सूक्ष्म दृष्टि डालने के साथ ही साथ, पाठकों को विषय की नवीन अंतर्दृष्टि भी प्रदान करने में सफल होगी, ऐसी आशा है।
* Language: Hindi
*Link: https://www.amazon.in/%E0%A4%95%E0%A4...