Ashtavakra Geeta / अष्टावक्र गीता (Hindi Edition)
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कोई जगत के समस्त पदार्थों का उपार्जन करके अधिक-से-अधिक भोग प्राप्त कर सकता है, परन्तु सबका परित्याग किए बिना कोई सुखी नहीं हो सकता।
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तुम्हारी कमियाँ नहीं तुम्हें दुःख दे रहीं, तुम्हारी उपलब्धियाँ तुम्हें दुःख दे रहीं हैं। उससे नहीं हैरान-परेशान हो जो अभी न मिला, उससे आक्रान्त हो जो पकड़ लिया है, जिसे घर ले आए हो, जिसे माथे पर बैठा लिया है।
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अष्टावक्र का सुख से आशय है – दुःख नहीं।
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सिर्फ़ सुनो, बुद्धि मत चलाओ, अर्थ मत करो। सुनने मात्र से जो घटना घटनी है, वो घट ही रही है, बिना तुम्हारी अनुमति के। तुम उसमें भागीदार नहीं हो सकते।
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तुम्हें क्या लेना-देना है? तुम हो कौन इस अवस्था में? तुमने मान लिया है कि तुम ये सब कुछ हो।
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स्थितियों ने आपको जैसा बना दिया है, उसके टूटने के लिए तैयार रहिए। स्थितियाँ अगर बना सकती हैं तो तोड़ेंगी भी।
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अकस्मात मिले हुए को अपना जान लेना ही दुःख है। संयोग को सत्य जान लेना ही दुःख है। जिसने संयोग को संयोग जान लिया, वो जान जाता है कि जो कुछ हो रहा है, वो संयोग ही तो कर रहा है। वो फ़िर संयोग को करने देता है। उसी को कहते हैं कर्म का परित्याग।
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जिसने दुःख को दुःख कहना जान लिया, वो ये भी जान जाएगा कि मेरा होना ही दुःख है, मेरा कर्तत्व ही दुःख है।
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जिसने स्वीकार लिया, जो अपनी स्थिति के सामने निर्भीक, रूबरू खड़ा हो गया, उसको जो दिखता है, वो बड़ा शोचनीय होता है। लेकिन जिसने शोचनीय को देख लिया निडर होकर, वो शोक से मुक्त भी हो जाता है।
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तुम डर को देखने से जितना कतराओगे, उतना डरे हुए रहोगे। जिसने डर को देख लिया, वो डर से मुक्त हो गया। जिसने शोक को देख लिया, वो शोक से मुक्त हो गया। जो उत्तेजना का दृष्टा हो गया, वो उत्तेजना से हटकर खड़ा हो गया।
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जो कुछ भी तुम्हें प्रतीत होता हो, वो तुम्हें प्रतीत हो रहा है। तुमसे बाहर कुछ नहीं है। और तुम ये माने बैठे हो कि तुमसे बाहर सत्य है, तुम ये माने बैठे हो कि यथार्थ तुमसे बाहर है। धोखा खाओगे, चोट लगेगी। आज ऐसा लग रहा है, कल वैसा लगेगा। आज लाल लग रहा है, कल नीला लगेगा, परसों पीला लगेगा और उसके बाद अदृश्य भी हो सकता है। तुम इसी भरोसे में रह गए कि लाल है तो धोखा खाओगे, चोट लगेगी, जीवन दुःख से भर जाएगा।
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जब रूपों को बदलता देखो तो मुस्कुरा देना, कहना, "रूप है, और करेगा क्या? रूप के पास और विकल्प क्या है बदलने के अलावा? तू और करता क्या?"
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नित्यता तुम्हें व्यक्ति, रूप, संसार, वस्तुएँ, विचार आदि न दे पाएँगे। नित्यता जहाँ मिलती है, वहाँ जाओ। उस जगह को कहते हैं, ‘ना-जगह’।
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तो जो मिले, उसी को जान लेना कि ये ही दुःख देता है। जो दिखाई दे, जो मन पर छाए, उसी को जान लेना कि यही दुःख है। अभी सुख लग रहा है क्योंकि कम दुःख है, अभी सुख लग रहा है क्योंकि बाकी सब बहुत दुःख देते हैं, ये कम दुःख देता है।
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हम दुखों से मुक्ति का एक ही तरीका जानते हैं – कोई और बड़ा दुःख पैदा कर लो।
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वास्तव में जो भी कुछ है, जब तक वो है, वो दुःख मात्र ही है।
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जब तक आपके पास पैसा नहीं था, तब तक आपको ये बुरा ही नहीं लगता था कि आपके घर का पेंट कहीं-कहीं उधड़ा हुआ है। तब ज़्यादा बड़ा दुःख था कि अभी तो पैसा ही नहीं है। अभी तो हो सकता है खाने-पीने में ही दिक़्क़त आ जाती हो। अब ज़रा पैसा आ गया तो अब घर में ये जो चितकबरे धब्बे हैं, ये बड़ा दुःख देंगे।
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बड़े दुखों से मुक्त होओगे, नीचे वाले दुःख उत्पन्न होते जाएँगे, होते जाएँगे, होते जाएँगे। जो कुछ भी अच्छा लगता था, वो भी अंततः दुःख रूप में ही सामने आना है। कुछ ऐसा है नहीं जो हो और दुःख न हो। अष्टावक्र सबको कहते हैं, न मल, न ये, न वो। तुम उसमें सब जोड़ लो, न मल, न तल, न कल, न आज।
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जो बहता देखें, समझ लीजिए कि कल्पना है। तुम बहाव में न बह जाना।
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आत्मा तुम्हारे भीतर नहीं है। भीतर-बाहर सब जगह है, तुम्हें घेरे हुए है, तुम्हें पकड़े हुए है। उसकी जकड़ से कभी तुम मुक्त नहीं हो सकते।
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मुक्त तुम हो ही। हाँ, अपनी मुक्ति का प्रयोग करके अपने-आपको अमुक्त घोषित करो, वो तुम्हारी मर्ज़ी है,
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अब वहाँ पीछे कोने में बैठकर बीड़ी पीनी है। साथ बोलो, "ब्रह्म हूँ।" तो कुछ मेल तुम्हें दिखाई नहीं देता। बीड़ी और ब्रह्म एक साथ चलते ही नहीं, तो इसीलिए कहते हो, “ब्रह्म अभी हूँ नहीं, ब्रह्म मुझे होना है। अभी तो क्या हूँ? अभी तो मैं बीड़ीखोर हूँ।”
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तुमने अपनी मर्ज़ी से राह छोड़ी थी, तुम अपनी मर्ज़ी से अपनी राह बनाओगे।
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किसको चाहिए मुक्ति और किसको चाहिए शांति? और किसको होना है निर्मल? तुम्हें मलिन कर कौन सकता है? मलिनता तुम्हारी मौज है। विकार और वृत्तियाँ तुम्हारी दासियाँ हैं। जिस दिन तक तुमने इन्हें आज्ञा दे रखी है, जिस दिन तक तुमने इन्हें सिर पर चढ़ा रखा है, ये उछल-कूद रहे हैं। तुम्हारी अनुमति से आए हैं, तुम्हारी अनुमति से पीछे हट जाएँगे। तुम्हारा ही रूप है, तुम्हारे ही अनुचर हैं।
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आत्मा ही ब्रह्म है और भाव-अभाव कल्पित हैं, ऐसा निश्चय होते ही निष्काम ज्ञानी फिर क्या जाने, क्या कहे, क्या करे।
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इससे बड़ा कोई सूत्र होता नहीं, क्या? मन ही तो है। छोटा है या बड़ा है, मन ही तो है। विस्तीर्ण है, संकुचित है, मन ही तो है। खट्टा है, कि मीठा है, मन ही तो है। बस मन ही तो है, और क्या है?
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मिल गया तो भोग लिया, नहीं मिला तो सो लिए।
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रास्ता पता चल गया तो सीधी राह चल लेंगे। नहीं पता चला तो भटकने में क्या बुराई है? ये हैं अष्टावक्र।
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जब अष्टावक्र कहें कि न सुख है, न दुःख है, तो उसे पढ़िएगा कि न दुःख से विरोध है, न सुख की आशा है।
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जो तत्त्वज्ञ योगी स्वभाव से ही निर्विकल्प है, उसके लिए अपने राज्य में अथवा भिक्षा में, लाभ-हानि में, भीड़ में अथवा सूने जंगल में कोई अंतर नहीं है।
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कुछ है ऐसा जिसे आप कभी जान नहीं सकते, पर जिसके होने से आप सब कुछ जान जाते हो।
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जो कुछ पाया जाता है, उसमें कभी शांति नहीं मिलने वाली।
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अमूल्य में स्थापित होना हो तो मूल्यों से मुक्त हो जाओ। किसी भी विचार को, भाव को, वस्तु को, व्यक्ति को, संसार को मूल्य दो ही नहीं।
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जो वादा करे, उसी को बंधन जानना। जो आए, उसी को बंधन जानना। जिसका भी कोई नाम हो, उसे ही बंधन जानना।
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झूठ से मुक्ति नहीं चाहिए। झूठ को अगर जान लिया तो फिर झूठ ही मुक्ति है।
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जब करने के लिए कुछ विशेष नहीं होता, तब करने के लिए सब कुछ होता है। जिसके पास कुछ नहीं करने को, उसके लिए अब मैदान खुल गया। अब उसके पास सब कुछ है करने को। जब सब कुछ उपलब्ध हो जाता है करने को, उसको कहते हैं सृजनात्मकता।
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संसारमुक्त पुरुष को न कभी कहीं हर्ष होता है और न विषाद। उसका मन सर्वथा शीतल रहता है और वह विदेह के समान शोभायमान होता है।
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जो तुमने त्याग दिया, तुम उसके मालिक हो गए।
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जो धीर पुरुष अनेक विचारों से थककर अपने स्वरूप में विश्राम पा चुका है, वह न कल्पना करता है, न जानता है, न सुनता है और न देखता है।
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हम विश्राम क्यों नहीं पाते? क्योंकि बात विश्राम पाने की है ही नहीं, बात इसकी है कि हमें बेचैनी का बड़ा लालच रहता है, हमें बेचैनी की बड़ी कशिश रहती है।
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हमारे जीवन में जो भी कुछ दु:खरूप है, वह हमारी चाहत है। हम न चाहें, तो वो सब न हो।
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जो कुछ अनावश्यक है, उसको अनावश्यक जान लेना ही मुक्ति है।
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वह यह नहीं कह रहा कि मुझे अशांति के माहौल में मत डालो, वह कह रहा है कि ठीक है, माहौल तो प्रारब्ध की बात है, पर माहौल कैसा भी रहे, प्रारब्ध कुछ भी रहे, हमें बेचैन होना मंज़ूर नहीं है।
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आप बेवक़ूफ़ियों में पड़ते इसीलिए हो क्योंकि बेवक़ूफ़ियों से अभी आपकी उम्मीद बंधी हुई है, आपको भी वह ज़रा अच्छा लगता है।
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अवश्य, जो है ही, जिसके होने का कोई विकल्प नहीं, जिसके न होने की कोई संभावना नहीं, उसी में रहिए, और जो कुछ ऐसा हो कि न हो तो भी चलेगा, उसको नहीं होने दीजिए।
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आप मुक्त होते जा रहे हो, इसका एक प्रमाण यह होगा कि आपको व्यर्थ बातों का संकलन करने में रूचि नहीं बचेगी, कम होती जाएगी, कम होती जाएगी।
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जो होगा, वही उत्पात होगा; जो होगा, वही उपद्रव होगा। आत्मा इसीलिए न होने का नाम है।
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आँखें हमारी क्यों नहीं देख पाती संसार को साफ़-साफ़? क्योंकि हमने आँखों के साथ ‘मैं’ को, स्वार्थ को जोड़ लिया है। हमें लगता है आँखें जो दिखाएँ, उससे हमारी कुछ भलाई हो जाए। तो फ़िर हमारी आँखें आधा-अधूरा देखती हैं, हमारी आँखें बड़े धुँधले तरीके से देखती हैं।
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उद्वेग तो उठता ही तब है जब खालीपन हो, खोखलापन हो और उसको भर पाने की आशा हो, या उसको न भर पाने की निराशा हो। न हो ये सब तो आप क्यों होंगे उत्तेजित?
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प्रकृति में अगर वो असंतोष पाता है, मन में अगर वो असंतोष पाता है, तो जानता है कि इससे उसका कोई गहरा नुकसान नहीं हो जाने वाला।