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by
Sadhguru
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May 24 - June 5, 2022
निर्वाण का अर्थ है अन-अस्तित्व या अस्तित्वहीनता। इसका अर्थ है कि आप अस्तित्व में होने के बोझ से मुक्त हैं।
आखिर मतलब क्या है?’ अगर आप इस प्रश्न को सबसे गहन तरीके से पूछते हैं तो मुक्ति के लिए आपकी तड़प असीम हो जाएगी।
महासमाधि का अर्थ है कि बिना किसी बाहरी साधन का इस्तेमाल किए, आप शरीर को अपनी इच्छा से छोड़ें।
महासमाधि का मतलब है कि व्यक्तिगत अस्तित्व समाप्त हो चुका है और आप जो हैं, वह अब अस्तित्व में नहीं है।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखें, तो अगर मृत्यु को समझदारी से संभाला जाए, तो एक तरह से, जो चीज जीवनकाल में नहीं हुई वह शायद मृत्यु के पल में हो सकती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अंतिम पलों में हर उस चीज की गाँठ को खोलना बहुत आसान होता है जो आपने जीवनकाल में इकट्ठी की थीं। लेकिन अगर आप तैयार नहीं हैं या इसे लेकर डरे हुए हैं, या आप जीवन के तरीकों से अनजान हैं, तो आप इसमें रुकावट पैदा कर देंगे और उस संभावना से पूरी तरह चूक जाएंगे।
मेरी यही इच्छा है कि अगर किसी कारणवश लोग आनंद से नहीं जी पाते, तो कम से कम उन्हें अच्छी तरह मरना जरूर चाहिए। लेकिन अगर कोई इस दिशा में प्रयास करता है तो और भी बहुत कुछ संभव है। यह संभावना केवल सिद्ध योगियों के लिए ही उपलब्ध नहीं है, बल्कि किसी ऐसे समझदार व्यक्ति के लिए भी है जो ऐसे निर्देशों पर अमल करने को तैयार है जो उसकी समझ से परे हैं।
इस शरीर को सचेतन रूप में छोड़ना और इसे बिना कोई नुकसान पहुँचाए इस तरह चले जाना, जैसे कोई अपने कपड़े उतारकर चला गया हो यही आपके जीवन की चरम संभावना है। अगर आपकी जागरूकता इस सीमा तक पहुँच गई है जहाँ आपको पता हो कि एक प्राणी के रूप में आप और आपके द्वारा इकट्ठा किया गया यह भौतिक शरीर कहाँ-कहाँ से जुड़ा हुआ हैं, तब आप सही समय आने आपको उससे अलग कर सकते हैं। यही वह चरम तैयारी है जो आप अपनी मृत्यु के लिए कर सकते हैं।
उस अंतिम पल में, जब आप जागे हुए से नींद की ओर बढ़ते होते हैं, अगर आप जागरूक रह सकें तो आप अपनी नींद में भी जागरूक रहेंगे। अगर आप इस जागरूकता को हासिल कर सकें तो आपके साथ कुछ जबरदस्त घटित होगा।
शून्य ध्यान में यही होता है आप जागे हुए होते हैं लेकिन आप सोते होते हैं। शरीर को लगता है कि आप सो रहे हैं, इसलिए वह रस-क्रिया (मेटाबॉलिज़्म) को धीमा कर देता है, लेकिन आप जाग रहे होते हैं। जब आप शून्य में बैठे होते हैं, तब अचानक, शरीर को लगता है कि आप जा चुके हैं और, आपके अनुभव में, आपके हाथ, आपके पैर, आदि गायब हो जाते हैं।
किसी स्वाभाविक घटना से डरना अस्वाभाविक है।
जिसे आप मृत्यु के रूप में जानते हैं वह बस थोड़ा शुद्धिकरण है।
अगर आपने सिर्फ शरीर को ही जाना है तब आपके साथ भी यही होगा। लेकिन अगर आपने अपने जीवन में ऐसा कुछ जाना है जो शरीर से कहीं बढ़कर है, तब आपके लिए शरीर छोड़ना कोई बड़ी बात नहीं होगी।
मृत्यु पीड़ादायक नहीं होती, मेरा विश्वास कीजिए। यह बहुत अच्छी होती है। यह किसी खास वजह से नहीं होती। यह तो हर समय घटित हो रही है। केवल इतना है कि कभी लोगों को एहसास होता है कि यह उनके साथ हुई है, कभी उन्हें इसका पता नहीं चलता। शरीर का टूटना कष्ट दे सकता है। वह कष्टदायक हो सकता है, लेकिन मृत्यु नहीं।
जिस शून्य ध्यान प्रक्रिया में हम लोगों को दीक्षित करते हैं वह कोई प्रत्यारोपण नहीं है, लेकिन यह भी आपको मृत्यु की याद दिलाता है। हर रोज, जब आप शून्य ध्यान के लिए बैठते हैं, तो आप देखते हैं कि आपका व्यक्तित्व विलीन हो गया है और वहाँ बस एक मौजूदगी है। ध्यान के दौरान, वह हर चीज जिसे आप ‘मैं’ मानते थे, वह ‘कुछ-नहीं’ बन जाता है। यह ऐसा है मानो आप मर गए हों। जब आप अपनी आँखें खोलते हैं तो सब कुछ वहीं पर मौजूद होता है। तो हर रोज, दिन में दो बार आप सचेतन होकर मरते हैं। अगर आप इसे पूरी चेतना में करते हैं, तो जब सच में मृत्यु का समय आएगा तब वह कोई बड़ा मुद्दा नहीं होगा। यह आपको मृत्यु के डर से मुक्त कर
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अगर आप अपनी पुनर्यौवन प्रक्रिया का ठीक से ध्यान रखते हैं तो बुढ़ापा आपके जीवन का एक चमत्कारी हिस्सा हो सकता है।
जब आप परिवार के सदस्यों के बीच घर पर होते हैं तो दो चीजें होती हैं: आपका शरीर वहाँ मौजूद हर दूसरे शरीर से जुड़ जाता है। मैं शारीरिक या मानसिक संबंधों की बात नहीं कर रहा — वो चीजें तो वहाँ होंगी — उसके परे भी, आपका शरीर कुछ खास संबंध बना लेगा।
यह आपके लिए चीजों को छोड़ना बहुत मुश्किल बना देगा। इसके अलावा, अगर आप परिवार के बीच मरते हैं, तो आप बहुत अधिक लगाव की भावना के साथ मरेंगे, जो उसके बाद होने वाले चीजों के लिए अच्छा नहीं है।
अगर प्रकृति के बीच मरना संभव नहीं है, तो अगला सबसे अच्छा विकल्प है उन सबसे दूर हो जाना जिन्हें आप जानते हैं, विशेष रूप से रिश्तेदार और नजदीकी दोस्त। यह सबसे अच्छा है कि जो जीवन आपने जिया है, उसे याद दिलाने वाली कोई चीज आपके आस-पास न हो। अपने रिश्तों और सारे ऋणानुबंधों को एक ओर रख दीजिए; यहाँ तक कि देवी-देवताओं की भी जरूरत नहीं है क्योंकि वे भी ऋणानुबंध ही हैं — ऋणानुबंध वह रिश्ता होता है जो आप किसी से बनाते हैं। अगर आपने पर्याप्त जागरूकता बना ली है तो जाने का सर्वश्रेष्ठ तरीका यही है कि आपके पास कोई मौजूद न हो।
एक व्यक्ति पिचासी साल में भी काफी हृष्ट-पुष्ट और सक्रिय हो सकता है, वहीं दूसरे को सत्तर साल की उम्र में ही जाना पड़ सकता है — यह बहुत-सी चीजों पर निर्भर करता है। शरीर की आयु मानदंड नहीं है। इसे थोड़ी स्पष्टता से जानने के लिए व्यक्ति को एक खास मात्रा में साधना करने की या जीवन में अंतर्दृष्टि की आवश्यकता होती है। तब आप आती हुई दुर्बलता को जान लेंगे, आपको पता चल जाएगा जब आपका शरीर अस्थिर होने लगेगा, और आपको आभास हो जाएगा कि आपने अपने कर्म पूरे कर लिए हैं। नहीं तो, आप दुनिया में खुद को खोया हुआ महसूस करेंगे, जो दुर्भाग्य से अधिकतर आधुनिक व्यक्तियों की स्थिति है।
जिस तरह आप जीने के लिए प्रयास करते हैं, उसी तरह आपको मृत्यु की तैयारी के लिए भी प्रयास करने चाहिए। आपको तय करना चाहिए, ‘अगर मुझे मरना है, तो मैं इस तरह मरना चाहता हूँ।’
मैं हमेशा कहता हूँ कि व्यक्ति में जीवन में सर्वोच्च के लिए जूनून होना चाहिए, सबके लिए करुणा होनी चाहिए और खुद के लिए अनासक्ति होनी चाहिए।
अगर आपको अच्छी तरह मरना है, तो आपको अपनी मृत्यु के प्रति एक खास मात्रा में अनासक्ति विकसित करनी होगी। नहीं तो व्यक्ति रोता-चिल्लाता हुआ, संघर्ष करता हुआ जाएगा, जो आगे आने वाली चीजों के लिए अच्छा नहीं है।
जब आपका शरीर छूट जाता है, तो आपकी भेद करने की क्षमता भी चली जाती है। सारी स्मृति और मन अभी भी मौजूद होता हैः केवल भेदकारी प्रक्रिया समाप्त हो जाती है। उस पल में, अगर आप थोड़ी-सी भी अप्रसन्नता पैदा करते हैं, तो वह अप्रसन्नता लाखों गुना बढ़ जाएगी। अगर आप थोड़ी-सी प्रसन्नता पैदा करते हैं, तब वह प्रसन्नता लाखों गुना बढ़ जाएगी।
देहमुक्त होने की इस प्रक्रिया के दौरान, अगर आपमें सुख का भाव बढ़ जाता है, तो हम कहते हैं कि आप स्वर्ग में हैं। और अगर आपमें अप्रसन्नता बढ़ जाती है, तो हम कहते हैं कि आप नर्क में हैं। स्वर्ग और नर्क कोई भौगोलिक स्थान नहीं, बल्कि मनुष्य के अनुभव हैं।
सिर को उत्तर की ओर ही क्यों रखा जाना चाहिए? भारत में, पारम्परिक रूप से कहा जाता है कि आपको उत्तर की ओर सिर करके नहीं सोना चाहिए। यह तब लागू होता है जब आप उत्तरी गोलार्ध में हों। अगर आप दक्षिणी गोलार्ध में, मान लीजिए ऑस्ट्रेलिया जाएँ तो आपको अपना सिर दक्षिण की ओर नहीं करना चाहिए। इस शरीर को इस तरह से बनाया गया है कि अगर आप सीधे खड़े हों तो यह आदर्श स्थिति है। अब आपका दिल आपकी कुल लम्बाई के तीन-चौथाई ऊपरी भाग पर स्थित है, क्योंकि खून को ऊपर पंप करना कठिन है और उसे नीचे धकेलना सरल है, और सारी धमनियाँ और नसें जो दिल से ऊपर की ओर जाती हैं वे बहुत पतली हैं। नीचे जाने वाली रक्तशिराएँ तुलना में बहुत
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आयरन आपके रक्त का एक महत्त्वपूर्ण घटक है।
उत्तरी ध्रुव का पृथ्वी के बाकी हिस्सों पर बहुत ही शक्तिशाली चुम्बकीय आकर्षण है। अब, अगर आप अपने सिर को उत्तर की ओर करके लेटेंगे तो यह आपके रक्त को उसी दिशा की ओर खींचेगा, जिससे आपके मस्तिष्क में रक्त प्रवाह बढ़ जाएगा। यह बहुत ज़्यादा तो नहीं है, लेकिन आपके सिस्टम को प्रभावित करने के लिए काफी है।
जब कोई व्यक्ति मर रहा हो तो आपको उसका सिर उत्तर की ओर रखना चाहिए क्योंकि यह शरीर से प्राणी के अलग होने की प्रक्रिया को सहज बनाकर उसमें सहायता करता है।
अगर आप दोनों पैरों के अंगूठों को साथ मिलाएंगे तो पाएंगे कि हमेशा आपके गुदा द्वार और मूलाधार चक्र कसकर बंद हो जाएंगे। अगर मूलाधार चक्र बंद नहीं है तो प्राण का बचा हुआ पहलू उस चक्र से निकलता है, जो अवांछनीय है। इसके अलावा, अगर मूलाधार चक्र और गुदा द्वार खुले हैं तो प्राणी के शरीर में फिर से प्रवेश करने के लिए यह एक निम्न स्तरीय मार्ग बन जाता है। यह
अगर आप पैरों के अंगूठों को साथ नहीं बाँधते, तो मृत्यु होने पर पैर स्वाभाविक रूप से अलग होकर फैल जाते हैं। एक बार शव के अकड़ जाने पर, आप उन्हें साथ नहीं रख पाएंगे और शव को संभालना मुश्किल हो जाएगा और यह अजीब भी लगेगा। तो अंगूठों को साथ बाँधना शव को विकृति से भी बचाता है।
अगला काम वे शरीर को पानी से नहलाने का करते हैं।
उद्देश्य केवल शरीर को साफ करना ही नहीं है बल्कि शरीर से जीवन के संपूर्णता से निकलने को सुगम बनाने के लिए भी है, क्योंकि बहते पानी में शरीर से कई पहलुओं को साफ कर देने की क्षमता होती है।
तो एक सफेद कपड़ा, केवल एक चादर शरीर को ढंकने के लिए इस्तेमाल की जाती है। लेकिन सफेद कपड़ा ही क्यों? सफेद रंग सारी रोशनी और अधिकांश गर्मी को परावर्तित कर देता है — ये दो बातें, कोशिकाओं की विघटन प्रक्रिया में तेजी ला सकती हैं।
जो लोग हर समय खाते रहते हैं, भले ही वे एक बार में कम खाते हों, उनके सिस्टम की अखण्डता ठीक नहीं होती। सेक्स, भोजन और यहाँ तक कि बार-बार पानी का घूँट भरते रहना भी शरीर को विभिन्न प्रभावों की ओर खोल देगा, जो आपके लिए सकारात्मक रूप से हमेशा काम नहीं करेंगे।
आपको पता ही है कि बाल पर स्थैतिक विद्युत (स्टैटिक) जमा हो जाती है। जिन लोगों के बहुत सारे बाल होते हैं उनमें स्टैटिक होती है — कभी-कभी किसी विशेष मौसम में चटचटाहट भी हो सकती है। बालों में यह क्षमता होती है। इसी तरह, अगर आप उस घर में गए हैं जहाँ मृत्यु हुई है या अगर आप उस व्यक्ति से संबंधित रहे हैं, तो आप मृत्यु की आभा को बटोर लेते हैं, खास तौर पर अपने बालों में। यह आपके चारों ओर रहती है। तो अगर आपके बहुत बाल हैं तो आप उन्हें साफ कर लेते हैं जिससे कि वह आभा चली जाए। यही कारण है कि लोग नवजात शिशुओं का भी मुंडन कराते हैं। जब आप माँ के गर्भ में होते हैं तो आप उस आभा को समेट लेते हैं। जन्म के बाद,
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दाह-संस्कार के बाद, अगर आप राख को एक स्थान पर रखते हैं तो प्राणी में उसे तलाश करने की प्रवृत्ति होती है। इसलिए उसे नदी में बहा दिया जाता है जहाँ वह वास्तव में बिखर जाती है। इस तरह उसे खोजा नहीं जा सकता। प्राणी को यह समझाने का हर संभव प्रयास किया जाता है कि अब सब समाप्त हो चुका है।
आमतौर पर, गुह्य विद्या के साधक जब कोई उस तरह का अनुष्ठान करना चाहते हैं तो वे हमेशा श्मशान भूमि से राख इकट्ठी करते हैं, जहाँ उनका उद्देश्य किसी देहमुक्त जीव को अपनी ओर आकर्षित करना होता है।
हमारी पाँच इंद्रियाँ जिस चीज के भी संपर्क में आती हैं, किसी न किसी रूप में, जाने-अनजाने, सचेतन रूप से या अचेतन रूप से, हम उसके साथ एक निश्चित बंधन स्थापित कर लेते हैं। हम ऐसा केवल अपने आस-पास के लोगों के साथ ही नहीं करते, बल्कि जिस धरती पर हम चलते हैं, जिस हवा में हम साँस लेते हैं और जो कुछ भी हम देखते, सुनते, चखते और स्पर्श करते हैं, उन सभी के साथ हम एक बंधन बाँध लेते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि एक निश्चित मात्रा मे ऊर्जा का निवेश किए बिना इनमें से कोई भी चीज नहीं होती। आप तब तक किसी चीज को नहीं देख सकते जब तक आप उसमें कुछ ऊर्जा का निवेश न करें। आप
ऋणानुबंध का अस्तित्व इसलिए है क्योंकि शरीर की अपनी स्मृति होती है। यह एक प्रकार की भौतिक स्मृति होती है जिसे आप अपने भीतर रखते हैं।
किसी भी भौतिक पदार्थ के साथ हुई किसी भी तरह की निकटता को आपका शरीर याद रखता है। यही कारण है कि भारत में, पारम्परिक रूप से लोग हाथ जोड़कर एक दूसरे का अभिनंदन करते हैं क्योंकि वे अतिरिक्त ऋणानुबंध नहीं चाहते, जो बंधन पैदा कर सकता है और उनकी मुक्ति प्रक्रिया में बाधा डाल सकता है।
वास्तव में, जिन्हें आप ‘व्यक्तिपरक जीवन’ कहते हैं, वे स्मृति के छोटे-छोटे बुलबुले हैं — स्मृति के विभिन्न स्तर विभिन्न प्रकार के जीव बन गए हैं। इन जीवों में, मनुष्य की स्मृति सबसे जटिल होती है। स्मृति की जटिलता के कारण क्षमताओं में वृद्धि हुई है और कष्टों की भी वृद्धि हुई है। मनुष्यों की तरह, दूसरे जीव अपनी स्मृति की पीड़ा नहीं सहते। कभी-कभी वे एक अकेली स्मृति से पीड़ित होते हैं। कुछ पक्षी और जानवर केवल एक खास याद से पीड़ित होते हैं — शायद उनका साथी मर गया हो या शायद कुछ और हुआ हो — वे उदास हो जाते हैं। उन्हें बस वही एक चीज याद रहती है और उससे दुखी होते हैं। लेकिन मनुष्य ऐसा नहीं है। वह लाखों
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अगर मृत्यु संस्कार किए जा रहे हैं तो वे गर्भवती महिलाओं को वहाँ उपस्थित होने की अनुमति नहीं देते। अगर एक स्त्री गर्भवती नहीं है और बच्चे को स्तनपान नहीं भी करा रही है, तो भी वह अपने मासिक चक्र में हो सकती है, जो फिर से उसे असुरक्षित बना देता है। यही कारण है कि स्त्रियों को श्मशान भूमि से दूर रखा जाता था। लेकिन अगर वह इन सभी परिस्थितियों से मुक्त है, तो उसके द्वारा इन संस्कारों को करने में कोई समस्या नहीं है।
वैसे, मैंने खुद कहा है कि मेरे भौतिक रूप से चले जाने के बाद, अस्सी सालों तक मैं यहाँ रहूँगा और मेरी मौजूदगी अभी से बहुत बड़ी होगी, और मैं यह सुनिश्चित करूंगा कि हर कोई जो यहाँ है उसे किसी न किसी रूप में पार लगाया जाए।
एक आध्यात्मिक साधक के लिए लक्ष्य, न तो ईश्वर होता है और न ही स्वर्ग — केवल मुक्ति होती है।
सारे प्राणी समय, स्मृति और ऊर्जा का एक मेल होते हैं। इन तीन में से, समय आपके हाथ में नहीं है, लेकिन जिस तरह आप अपना जीवन जीते हैं, उसी के अनुसार यह निर्धारित होता है कि आप कितनी स्मृतियाँ इकट्ठी करेंगे या नष्ट करेंगे।
वे अपनी आनुवांशिक स्मृति को खोजना चाहते हैं। तो वे उन्हीं जगहों पर भटकते रहते हैं जहाँ वे स्मृति मौजूद होती हैं। लेकिन क्या उनका इरादा आपको नुकसान पहुँचाना है? बिलकुल नहीं। इन प्राणियों की अपने आप में किसी मनुष्य के मिलने-जुलने करने की कोई प्रवृत्ति नहीं होती। उनके पास चुन सकने की भेद-बुद्धि नहीं होती कि ‘मैं इस व्यक्ति या उस व्यक्ति के साथ संपर्क या मिलना-जुलना करना चाहता हूँ।’ ऐसा आपकी अपनी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया से होता है।
ऐसा कहना तार्किक रूप से पूरी तरह सही नहीं होगा, लेकिन यह ऐसा कहने जैसा है जैसे मनुष्यों के मानवीय प्रेत होते हैं, उसी तरह कुछ नाग प्रेत भी होते हैं जो किसी मनुष्य पर हावी भी हो सकते हैं।
हमें यह बात समझ लेनी चाहिए कि एक देहमुक्त प्राणी का अपना कोई प्रयोजन नहीं होता। वह उद्देश्य रखने में असमर्थ है, लेकिन उसकी प्रवृत्तियाँ होती हैं। तो जब आप उसके संपर्क में आते हैं, तो वह आपको प्रभावित कर सकता है।

