आध्यात्मिक जीवन को एक खास तरीके से चलाने के पीछे यही सोच है कि व्यक्ति लगातार सक्रिय रहे, लेकिन यह स्वयं के बारे में नहीं हो। जिस पल यह स्वयं के बारे में होगा, कर्म बढ़ जाएंगे; उसी पल कर्म सतह पर चीजें जमा हो जाएंगी। उसकी सतह और मोटी होती चली जाएगी। जिस पल यह ‘मेरे’ बारे में होता है, तुरंत मेरी पसन्द और नापसन्द हावी हो जाती है — मैं यह कर सकता हूँ, मैं यह नहीं कर सकता; मैं इस आदमी से बात कर सकता हूँ, मैं उस आदमी से बात नहीं कर सकता; मैं इस व्यक्ति से प्रेम रखना चाहता हूँ, उस आदमी से मैं नफरत करना चाहता हूँ, इत्यादि। जिस पल यह मेरे बारे में होता है, इस तरह की चीजें मेरा स्वाभाविक हिस्सा बन
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