एक चिथड़ा सुख
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Read between February 27 - March 15, 2025
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कुछ लोग अपने अकेलेपन में काफी सम्पूर्ण दिखाई देते हैं—उन्हें किसी चीज़ की ज़रूरत महसूस नहीं होती। किन्तु बिट्‌टी में कोई ऐसा मुकम्मिलपन नहीं दिखाई देता था—वह जैसे कहीं बीच रास्ते में ‘ठिठकी-सी’ दिखाई देती थी, जबकि दूसरे लोग आगे बढ़ गए हों। बीच में जो लोग ठहर जाते हैं, उनमें अकेलापन उतना नहीं, जितना अधूरापन दिखाई देता है—जैसे वे सड़क पर कुछ देख रहे हों और यह देखना भी चलने का ही हिस्सा जान पड़ता था।
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आधी नींद की बुड़बुड़ाहट में हम कितना कुछ पूछते हैं, खाली दीवारें उन सब प्रश्नों को सोख लेती हैं। दूसरे दिन—सुबह की चकमकाहट में—कुछ भी याद नहीं रहता; हम सोचते भी नहीं, पिछली रात कौन-से शर्म और पछतावे ने सिर उठाया था।
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रात की पार्टियों में हमेशा एक क्षण आता था, जब किसी को कुछ नहीं मालूम होता था, बाहर-भीतर क्या हो रहा है। बातों के झिलमिले में बाकी दुनिया झर जाती थी। सिर्फ एक हल्का-सा शोर अदृश्य लहरों-सा ऊपर उठता था, नीचे गिरता था, एक सफेद तलछट-सा छोड़ जाता था।
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वह चली गई, और वह चुप खड़े उस खाली जगह को देखने लगे, जहाँ कुछ देर पहले वह खड़ी थी, और तब उन्हें देखते हुए एक अजीब-सा डर उसके भीतर उठने लगा—वह उन्हें नहीं, बल्कि उसे देख रहा है, जो उन दोनों के बीच बीत चुका था और जिसे वह कभी नहीं जान पाएगा, न कभी उसे देख पाएगा, जो आनेवाला है क्योंकि जो कुछ होनेवाला है, वह पहले से ही कहीं घट चुका है, वह कहीं बीच में है, न इधर, न उधर,
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अँधेरे गढ़हों को लाँघते हुए, जो बीच में खुल जाते हैं, अगर दो दिन भी तुम एक-दूसरे के साथ न रहो। ऐसा हमेशा नहीं होता। सिर्फ कुछ रिश्तों में होता है। कुछ रिश्ते रेगिस्तान-से होते हैं—जिन्हें हर रोज़ लाँघना पड़ता है।
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थे—और वह रोना नहीं था—क्योंकि रोना वर्तमान में होता है, जबकि बिट्‌टी के आँसू किसी पुराने रोने के बासी अवशेष थे, जो इस क्षण बाहर निकल आए थे, बह रहे थे और वह उन्हें बहने दे रही थी।
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जैसे समय कोई ऊँचा पहाड़ है और सब लोग अपनी-अपनी पोटलियों के साथ ऊपर चढ़ रहे हैं—हाँफ रहे हैं, बिना यह जाने—कि ऊपर चोटी पर—वे सब हवा में गायब हो जाएँगे—और धूल में लदी-फँदी पोटलियाँ—पता नहीं, उनमें क्या भरा है, प्रेम, घृणा, निराशाएँ, दुख—नीचे लुढ़का दी जाएँगी, जिन्हें दूसरे लोग पकड़ लेंगे और फिर उन्हें पीठ पर ढोते हुए ऊपर चढ़ने लगेंगे…
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वह तब काफी छोटा था। वह आँखें फाड़कर देखता था। वह धीरे चलता था। दुनिया का जाद़ू अभी खत्म नहीं हुआ था। वह तेज़ी से जी रहा था।
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“डैरी, तुम क्या अब भी सोचते हो?” बिट्‌टी का स्वर बहुत कोमल हो आया था। “किसके बारे में?” “तुमने जो दिन वहाँ बिताए थे?” “वे दिन नहीं थे…वह मेरी उम्र थी।” डैरी ने कहा, “उम्र बीत भी जाती है, तो भी उसे ढोना पड़ता है!”
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“डैरी!” “क्या बिट्‌टी?” “कुछ नहीं—मैं सिर्फ तुम्हारी आवाज़ सुनना चाहती थी।” आँसुओं के बीच एक पीली-सी मुस्कराहट निकल आई, मानो यह उनके बीच कोई पुराना खेल हो, अच्छे दिनों के तिनके, जिन्हें पकड़कर वे डूबते दिनों में ऊपर आ जाते थे।
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कुछ चीज़ें हमेशा के लिए जीवित रह जाती हैं। समय उन्हें नहीं सोखता—वे खुद समय को सोखती रहती हैं।