Indra  Vijay Singh

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बिट्‌टी सोचने लगती—और सोचने का मतलब होता—सचमुच सोचना, जैसे वह अपने भीतर के अँधेरे में बाहर का उजाला ढूँढ़ रही हो। एक छाया चेहरे पर बैठ जाती। उसने कभी किसी को ऐसे सोचते नहीं देखा था। न माँ को, न बाबू को! वह सहम-सा जाता और अपना मुँह मोड़ लेता।
एक चिथड़ा सुख
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