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बिट्टी उसके बालों से खेल रही थी। ध्यान कहीं और था, उँगलियाँ कहीं और। निगाहें कहीं न थीं। वह उसकी छुअन से जान गया कि वह उसे नहीं सुन रही। वह अधिकांश समय नहीं सुनती थी। कई बार ऐसा होता था कि दोनों चुपचाप किचन में बैठे रहते थे। गरमाई में सिकुड़े हुए। बिट्टी की बरसाती में रसोई ही एक ऐसी जगह थी, जो इलाहाबाद की याद दिलाती थी।
बिट्टी सोचने लगती—और सोचने का मतलब होता—सचमुच सोचना, जैसे वह अपने भीतर के अँधेरे में बाहर का उजाला ढूँढ़ रही हो। एक छाया चेहरे पर बैठ जाती। उसने कभी किसी को ऐसे सोचते नहीं देखा था। न माँ को, न बाबू को! वह सहम-सा जाता और अपना मुँह मोड़ लेता।
गुम्बद के ऊपर दो चीलें उड़ रही थीं, दुपहर के सन्नाटे को गहराते हुए—एक चुप उड़ान—जो उसके भीतर एक कुआँ-सा खोदने लगती थीं।
उसे हमेशा बिट्टी पर आश्चर्य-सा होता था। पता नहीं, कौन-सा गुस्सा उसके भीतर दबा रहता था, जो ज़रा-सा छूते ही मवाद की तरह बहने लगता था…
हवा में एक तीखी गन्ध उठ रही थी, जिसमें गीली मिट्टी और भुनते मांस का मिला-जुला स्वाद चिपका था।
बस-स्टैंड, फायर ब्रिगेड की बिल्डिंग, स्टेट्समैन का चौराहा, जलती-बुझती ट्रैफिक लाइट…। बिट्टी चलती जा रही थी, और वह उसके पीछे भाग रहा था, हाँफ रहा था और तब उसे लगा, जैसे यह असली दुनिया नहीं है, यह कोई स्वप्न है, ये गीली सड़कें, ये भीड़, ये बारिश के चहबच्चे, बारहखम्भा रोड के पेड़…कुछ भी वास्तविक नहीं था। सिर्फ हाँफती हुई साँसें सही हैं, बिट्टी की सिसकियों से बँधी हुई, जिन्हें वह कीचड़ में भागते हुए अपने साथ घसीटे ले जा रही थी…
ढाबे की उस रात के बाद उसमें विचित्र परिवर्तन हुआ था। वह कभी-कभी मुँडेर पर घंटों खड़ी रहती, और वह कमरे में बैठा उसे देखता। कुछ लोग अपने अकेलेपन में काफी सम्पूर्ण दिखाई देते हैं—उन्हें किसी चीज़ की ज़रूरत महसूस नहीं होती। किन्तु बिट्टी में कोई ऐसा मुकम्मिलपन नहीं दिखाई देता था—वह जैसे कहीं बीच रास्ते में ‘ठिठकी-सी’ दिखाई देती थी, जबकि दूसरे लोग आगे बढ़ गए हों। बीच में जो लोग ठहर जाते हैं, उनमें अकेलापन उतना नहीं, जितना अधूरापन दिखाई देता है—जैसे वे सड़क पर कुछ देख रहे हों और यह देखना भी चलने का ही हिस्सा जान पड़ता था।