उनकी क़िस्मत के भरोसे चैनल और एंकर मौज कर रहे हैं। वे पत्रकारिता नहीं करते हुए भी पत्रकारिता का चेहरा बने हुए हैं। उनकी जवाबदेही समाप्त हो चुकी है। बस, शाम को टीवी पर आना है, दो वक्ताओं को बुलाकर आपस में लड़ा देना है और असली ख़बरों को दबा देना है। अब यह विकार इतना व्यापक हो चुका है कि इसमें नैतिकता और अनैतिकता के बिंदु खोजने का कोई मतलब नहीं रहा। ख़राब पत्रकारिता की विश्वसनीयता इतनी कभी नहीं थी।

