जब हम जनता होकर जनता का साथ नहीं देते हैं, उसकी तकलीफ़ से हमें फ़र्क़ नहीं पड़ता तो हमारे बोलने का असर किसी पर कैसे होगा? जिस तरह आप किसी और के वक़्त चुप थीं, उसी तरह कोई और आपके वक़्त चुप है। इसीलिए कहता हूँ कि आवाज़ उठाने का अभ्यास कीजिए। कोई दूसरा भी बोले तो उसके लिए बोलिए और उसके बोलने के अधिकार की रक्षा कीजिए। वह जनता बनता है आवाज़ उठाने से, और जब भी कोई व्यक्ति जनता बने, उसका हौसला बढ़ाइए। भले ही उसके प्रयास से आपकी असहमति हो, मगर इस हद तक तो उसका साथ दीजिए कि उसे बोलने दिया जाए, उसे सुना जाए। नहीं सुनना भी एक तरह से नहीं बोलने देना

