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Kindle Notes & Highlights
इतिहास शास्त्र में वर्णन से अधिक मूल स्रोत को दरशाना ही अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है।
इतिहास लिखते समय उसका केवल वर्णन लिखने से उसकी समुचित कल्पना प्रस्तुत करना संभव नहीं होता या उसका उद्गम उसके निमित्त कारण तक ही खोजकर लौट आने से भी उसका यथार्थ स्वरूप ज्ञात नहीं होता। अतः जिसे सत्य, पक्षपात-रहित और मर्मस्पर्शी इतिहास लिखना हो, उसे उस घटना और उस क्रांति की ज्वाला की नींव के कारणों का, उसके मूल में क्या तत्त्व थे, उसके प्रधान कारण क्या थे—इन सबका पर्यालोचन अवश्य करना चाहिए।
हेतु से जैसे कृत्य की परीक्षा सामान्य व्यवहार में की जाती है उसी तरह इतिहास में भी व्यक्ति या राष्ट्र के हेतु से उसके कृत्य का स्वरूप निश्चित होता है। यह कसौटी यदि छोड़ दें तो एक व्यक्ति द्वारा दूसरे को मारना या किसी एक सेना द्वारा दूसरी सेना को मारने में कोई भेद नहीं रहेगा।
अंग्रेज इतिहासकार और अंग्रेजों की कृपा पर पले-बढे़ एक देसी ग्रंथकार कहते हैं—कारतूसों में गाय और सूअर की चरबी लगाई जाती है, केवल इतना सुनकर ही मूर्ख लोग भड़क गए। सुनी हुई बात सच है या झूठ, इसकी खोज किसी ने नहीं की। एक ने कहा, इसलिए दूसरे ने कहा और दूसरा बिगड़ गया इसलिए तीसरा बिगड़ गया। ऐसी अंधपरंपरा चली जिससे अविवेकी मूर्खों का समाज जमा हुआ और विद्रोह हो गया।
फौजी और सामान्य जन, राजा और रंक, हिंदू और मुसलमान—इन सबको एक साथ आवेशित करनेवाली बातें क्षुद्र नहीं होतीं, उसके मूल में होते हैं तात्त्विक कारण।
जैसे सीता-हरण रामायण का केवल निमित्त है और मुख्य या प्रधान कारण उसके मूल में छिपे तत्त्व ही हैं।
सन् १८५७ की क्रांति के प्रधान कारण जो दिव्य तत्त्व थे वे थे—स्वधर्म व स्वराज्य।
विदेशी और स्वार्थी इतिहासकारों ने इस दिव्य हिंद का चित्र चाहे कितने ही गंदे रंगों से भरा हो, फिर भी जब तक हमारे इतिहास के पृष्ठों पर से चित्तौड़ का नाम पोंछा हुआ नहीं है, सिंहगढ़ का नाम मिटा नहीं है, प्रताप आदि का नाम मिटा नहीं है या गुरु गोविंद सिंह का नाम पोंछा नहीं गया है, तब तक ये स्वधर्म और स्वराज्य के तत्त्व हिंदुस्थान के रक्त-मांस में जमे रहेंगे। उनपर क्षण भर गुलामी के भ्रम के बादल चाहे आएँ—सूर्य पर भी बादल आते हैं—परंतु वह क्षण समाप्त होते-न-होते उस तप्त सूर्य की उष्णता से वे पिघल जाएँगे, इसमें शंका नहीं।
स्वराज्य के लिए हिंदुस्थान ने कौन सा प्रयास नहीं किया और स्वधर्म के लिए हिंदुस्थान ने कौन सी दिव्यता अंगीकार नहीं की।...‘‘सूरा सो पचाजिए जो लढ़े दीन के हेत, पुरजा-पुरजा कट मरे तबहु न छोड़े खेत।’’ (गुरु गोविंद सिंह) इस रीति से स्वधर्म के लिए रण-मैदान में टुकड़े-टुकड़े हो जाने पर भी जो हटते नहीं—वीरों की ऐसी घटनाओं से भारतभूमि का संपूर्ण इतिहास भरा हुआ है।
हमारी स्वधर्म की कल्पना स्वराज्य से भिन्न नहीं है। ये दोनों साध्य नाते से संलग्न हैं। स्वधर्म के बिना स्वराज्य तुच्छ है और स्वराज्य के बिना स्वधर्म बलहीन है।
‘स्वधर्म के लिए उठो और स्वराज्य प्राप्त करो’—इस
स्वधर्म एवं स्वराज्य—इन दो पवित्र कारणों से जो क्रांतियुद्ध लड़ा गया उसकी पवित्रता पराजय से भंग नहीं होती। गुरु गोविंद सिंह के प्रयास तादृश रीति से विफल रहे, इस कारण उसका दिव्यत्व कम नहीं होता।
सन् १८५७ के क्रांतियुद्ध का कारण अंग्रेजों के ‘अच्छे शासन’ या ‘बुरे शासन’ में न होकर केवल ‘शासन’ में है।
अच्छा या बुरा का प्रश्न गौण है, मुख्य प्रश्न ‘शासन’ है।
संधिपत्र, वचन, दोस्ती आदि शब्दों का डाकेजनी के शास्त्र में स्थान नहीं होता, इतना ध्यान में रखा जाए तो फिर इतिहास बहुत सी असंगतियों से बच जाएगा। फिर वॉरेन हेस्टिंग्स ने नंदकुमार को न्याय से मारा या अन्याय से और उस वॉरेन हेस्टिंग्स को अंग्रेजों ने निरपराध मानकर क्यों छोड़ दिया, यह तय करने के लिए कागजों के ढेर खराब करने की आवश्यकता नहीं होगी।
अज्ञानी लोग अपने भोले स्वभाव के अनुसार संधिपत्रों की सूचियाँ लेकर, उनकी तिथियाँ देकर, धर्मशास्त्र के वचन देकर, तर्कों के ताने-बाने रच या पिछली परंपराओं के आधार देकर, अपने घर पर आक्रमण करने के लिए आए डाकुओं में परावृत्ति या सहानुभूति उत्पन्न करने का भ्रमपूर्ण प्रयास भले ही करें; परंतु धूर्त लोग इन निष्फ ल, बाँझ प्रयासों पर हँसे बिना नहीं रहेंगे। डाकुओं पर लागू ये सारी बातें डलहौजी की डकैतियों पर तो विशेष रूप से लागू होती हैं, अतः उसके शासनकाल में घटित कृत्यों में न्याय-अन्याय निश्चित करने का प्रयास करना मूर्खता है।
जिन्हें यह ज्ञात रहा कि अंग्रेज हमसे द्वेष करते हैं वे बच गए। परंतु जिन्होंने भी यह माना कि अंग्रेजों से हमारा स्नेह है, उनकी गरदन मीठी छुरी से कटी।
डलहौजी किसी परिस्थिति का परिणाम है। वह परिस्थिति जब तक बनी हुई है तब तक एक डलहौजी जाए तो उसकी जगह दस डलहौजी आएँगे।
जब सारा इंग्लैंड मधुमक्खी का छत्ता है तो डलहौजी नामक एक मधुमक्खी पर सारा गुस्सा उतारने से क्या लाभ? जब तक यह छत्ता बना हुआ है तब तक ये मधुमक्खियाँ हिंदुस्थान के फूलों से मधु ले जाकर उसके बदले में विष भरे डंक मारती ही रहेंगी। उस छत्ते को सीने से चिपकाए रखें और उसमें से मधु लेने के लिए आनेवाली मधुमक्खियों को गाली-गलौज करें कि ये डंक बहुत मारती हैं तो इसमें कोई तुक नहीं। यह मूर्खतापूर्ण कल्पना और यह अभागी अंधता सन् १८५७ के नेताओं की दृष्टि को स्पर्श न कर सकी। यही उस क्रांतियुद्ध का मुख्य रहस्य है। उसका हेतु (साध्य) अमुक कानून रद्द करो या अमुक डलहौजी हटाओ, यह न होकर कानून बनाने की या उस डलहौजी को
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तेरे पड़ोसी के घर का सामान अव्यवस्थित है, इसलिए उसके घर में घुसकर उसे बाँधकर वह घर अपने कब्जे में लेने का अधिकार तुम्हें कैसे मिला?
जो अन्यों को गुलाम बनाते हैं और जो गुलामी में रहते हैं, वे दोनों ही मनुष्य जाति को नरक की ओर धकेलते हैं।
इसलिए मनुष्य जाति को स्वर्ग की ओर ले जानेवाले सद्धर्म इस राजनीतिक गुलामी को नष्ट करने के लिए अपने अनुयायियों को बार-बार उपदेश देते हैं। उनका यह उपदेश अस्वीकार करनेवाले सारे लोग धर्मद्रोही हैं। दूसरों को गुलामी में ढकेलनेवाले अंग्रेज भले ही रोज चर्च में जाएँ, वे धर्मद्रोही ही हैं और परतंत्रता के नरक में सड़नेवाले भारतीय रोज शरीर पर भभूत मलते रहें तब भी वे धर्मद्रोही ही हैं। जो किसी भी तरह की दासता में रहते हैं वे सारे हिंदू धर्मभ्रष्ट हैं और वे सारे मुसलमान भी धर्मभ्रष्ट हैं, फिर वे चाहे रोज हजार बार संध्या-वंदन कर रहे हों या हजार बार नमाज पढ़ रहे हों।
अफ्रीका और अमेरिका में वहाँ के निवासियों को ईसाई धर्म की दीक्षा देने के काम में मिली सफलता से बहके हुए पश्चिमवासियों को अफ्रीका की भाँति ही हिंदुस्थान में भी सारे लोगों को ईसाई बना डालने की भारी आशा थी। वेद और प्राचीन हिंदू धर्म तथा ईसाइयत की पीठ पर नृत्य करते इसलाम के जड़-मूल कितने गहरे हैं, इसका उन्हें जरा भी ज्ञान नहीं था।
हिंदुस्थान में पाश्चात्य शिक्षा-पद्धति प्रारंभ करनेवाला मैकाले अपने एक निजी पत्र में लिखता है—अपनी यह शिक्षा प्रणाली ऐसी ही बनी रही तो तीस वर्ष में पूरा बंगाल ईसाई हो जाएगा।
सद्धर्म स्वर्ग में रहता है और गुलामी में पड़े लोग नरक में रहते हैं। अतः यदि उन्हें धर्म चाहिए तो उन्हें गुलामी की गंदगी अपने और अपने शत्रुओं के रक्त से धोकर साफ करनी चाहिए।
स्वतंत्रता के बिना धर्मरक्षण असंभव है, यह मर्म जानकर हजारों धर्मगुरु इस राजनीतिक जिहाद का आह्वान करने आगे आए। यह हिंदुस्थान के इतिहास के लिए हमेशा-हमेशा के लिए अभिमान की बात है।
विराट् जनसमूह के मन में एक ही इच्छा उत्कटता से उत्पन्न करने और उसकी अक्षय मुद्रा उनके हृदय पर अंकित करने के लिए कविता जैसा उत्तम साधन नहीं है। मार्मिक शब्द और आकर्षक पद्धति से पद्य में गुँथा हुआ सत्य जनता के हृदय में बहुत तेजी से अंकुरित होता है। इसीलिए राष्ट्रगीत की महत्ता बहुत मानी जाती है।
वस्तुस्थिति में क्रांति करनी हो तो सबसे पहले मनःस्थिति पर विजय पानी चाहिए।
यह मनःक्रांति संपादित करने के लिए मन की ओर जो भी रास्ते जाते हैं उन सारे रास्तों पर क्रांति की चौकियाँ स्थापित करनी चाहिए। मानव मन सहज ही उत्सवप्रिय होता है, अतः सामान्य जनसमूह को वश में करने के लिए उत्सव के अतिरिक्त दूसरा राजमार्ग नहीं दिखता। इन उत्सवों को शक्कर में घोलकर सिद्धांतों की गोली दी जाए तो समाज का बालमन उसे रुचि से गटक लेता है और उससे रोग भी ठीक हो जाते हैं। ऐसे
सन् १८५७ के क्रांतियुद्ध के इतिहास में एक आश्चर्यजनक बात थी उसकी परम गोपनीयता।
सन् १८५७ में हिंदुस्थान के स्वतंत्रता बीज में अंकुर फोड़ने के लिए मंगल पांडे ने अपना उष्ण रक्त सबसे पहले अर्पित किया। उस स्वतंत्रता की फसल आगे-पीछे कभी लहलहा उठी तो उसके पहले नैवेद्य का अधिकारी मंगल पांडे है।
मुसलमानों की परतंत्रता पर जिस शूर और स्वाभिमानी जाति को इतना गुस्सा आया था कि सौ वर्ष तक अखंड लड़ाई कर अंत में पंजाब को स्वतंत्र किए बिना उन्होंने तलवार नीचे नहीं रखी, उसी ‘खालसा’ पंथ के अनुयायियों ने अंग्रेजों की गुलामी को इतना चाहा हो, ऐसा बिलकुल नहीं है। पर अंग्रेजों का राज गुलामी है या नहीं, यह उन सिपाहियों की बुद्धि में पूर्णता से आ भी नहीं पाया कि सन् १८५७ आ गया।
सारांश यह है कि सिख लोगों के देशद्रोह के कारण और अधपकी स्थिति में विद्रोह हो जाने से पंजाब में क्रांति जड़-मूल से खोद दी गई और पंजाब चूँकि दिल्ली की रीढ़ की हड्डी था, दिल्ली का इस समाचार से उत्साह भंग हुआ।
राज्य क्रांतियाँ किसी सूत्रबद्ध नियम से नहीं चलतीं। राज्य क्रांति कोई घड़ी की तरह ठीक-ठीक चलनेवाला यंत्र नहीं है। राज्य क्रांतियाँ स्वैर संचारप्रिय होती हैं। उनपर सिद्धांतों का बंधन ही रह सकता है, बाकी फुटकर नियम उनके अपूर्व धक्के से गिर जाते हैं। राज्य क्रांति का एक नियम है और वह यह कि उसकी पकड़ बनी रहनी चाहिए।
अंग्रेजों को आदेश देने का अधिकार रहे या न रहे, यही जहाँ चर्चा थी वहाँ नया आदेश देने से वह चर्चा बंद न होकर उलटे अधिक तीव्र होनी थी।
हिंदुस्थान में आज तक किसी भी आंदोलन में इतनी अगुवाई किसानों ने नहीं की जितनी इस सन् १८५७ के क्रांति-युद्ध में की।
हिंदुस्थान के इतिहास में इतनी उत्क्षोभक, विद्युत् वेगी, भयानक एवं सर्वत्र व्याप्त राज्य क्रांति दूसरी दिखना बहुत कठिन है। लोक-शक्तियाँ जिसमें भड़भड़ाकर जाग उठीं और अपने देश की स्वतंत्रता के लिए एकाएक गर्जना करते मेघों की तरह रक्त की मूसलधार वर्षा करने लगीं।
यह सन् १८५७ जैसी प्रचंड राज्य क्रांति हिंदुस्थान के इतिहास में अभूतपूर्व बात थी। उसमें भी हिंदू और मुसलमान अपने भाई-भाई होने का रिश्ता पहचानकर हिंदुस्थान के लिए इकट्ठा होकर लड़ने लगे, यह दृश्य बहुत ही अपूर्व एवं आश्चर्यकारी था।
सन् १८५७ में सारे हिंदुस्थान में जितने अंग्रेज पुरुष, महिला और बच्चे कत्ल नहीं हुए उतने अकेले नील ने केवल इलाहाबाद में किए थे। ऐसे सैकड़ों नील हजारों गाँवों में उस वर्ष नेटिवों को सरेआम कत्ल कर रहे थे। अंग्रेजों के एक-एक आदमी के लिए हिंदुस्थान का एक-एक गाँव जीवित जलाया गया है।
स्वतंत्रता की अनिवार्य इच्छा—यही साध्य और उसकी प्राप्ति हेतु संग्राम— यह साधन। इन दो बातों का स्पष्ट ज्ञान सारे समाज को दिया हुआ था। परंतु उसका नेता कौन हो? विद्रोह का पक्का दिन कौन सा हो? क्रांति के मुख्य केंद्र कहाँ होंगे? ये सब बातें इतनी चतुराई से गुप्त रखी गई थीं कि उसकी भनक अंग्रेजों को तो खैर क्या होती, उस जनसमूह को भी पक्की पता नहीं थी।