मुश्किल तो यह है कि हम कह ही बाद में रहे हैं और हमें हताशा–भरा यह यकीन खाए जा रहा है कि बाद में सिप़ऱ् याद होती है और याद तो काल्पनिक सींखचों में कैद छवि है, जितना केवल सच नहीं है, पूरी बात नहीं है । डर हमें इतना ही नहीं है कि बात अधूरी रह जाएगी, डर हमें यह भी है कि बात तो तभी तक सलामत है जब तक पकड़ न लें । पकड़ते ही वह हमारे हाथों के दबाव में नया आकार पा लेगी, एक ठोस रूप में ढाल दी जाएगी और फिर वही रूप इतिहास का अमिट हिस्सा बन जाएगा । सारी सम्भावनाओं को यों सिमटाकर हम अनकहे की सच्चाई को मिटाना नहीं चाहते ।