पर हमें हैरत अलग ही है कि खिड़की–दरवाज़े पर टँगे परदे को देखकर हम अच्छी तरह जानते थे कि इसके पीछे एक पूरा, सजा–सजाया कमरा है…घर है…जहाँ किसी के जीवन का स्पन्दन हर चीज़ को स्पर्श करता है । ऐसा भी हुआ है कि कहीं अनजान जगह में फहराता पर्दा देखकर हमारा मन जिज्ञासु हो उठा– क्या है उसके पीछे? यह तो हमने कभी भी न सोचा कि शून्य में फहराता पर्दा है, न उसके पीछे कुछ, न आगे कुछ । कि बस उसी के फड़फड़ाते सन्नाटे में उलझके रह गए ? माई का पर्दा देखकर हमें उसके पीछे का खयाल ही न आया