हम कुछ नहीं समझे और बाद में उम्र ऐसी आई कि जो नहीं भी था वह भी समझने लगे । फिर वह भी उम्र आई कि ज़रूरत से ज़्यादा समझना नाटकीयपन लगने लगा । कुछ इस तरह उलझे ये सारे समझ के दौर कि अब तो कोई सन्तुलित दृष्टि ही नहीं सूझती–क्या समझें तो नाटकीय नहीं होगा, क्या न समझें तो असल होगा, मालूम ही नहीं चलता