Maai (Hindi Edition)
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Read between June 26 - July 7, 2022
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मुश्किल तो यह है कि हम कह ही बाद में रहे हैं और हमें हताशा–भरा यह यकीन खाए जा रहा है कि बाद में सिप़ऱ् याद होती है और याद तो काल्पनिक सींखचों में कैद छवि है, जितना केवल सच नहीं है, पूरी बात नहीं है । डर हमें इतना ही नहीं है कि बात अधूरी रह जाएगी, डर हमें यह भी है कि बात तो तभी तक सलामत है जब तक पकड़ न लें । पकड़ते ही वह हमारे हाथों के दबाव में नया आकार पा लेगी, एक ठोस रूप में ढाल दी जाएगी और फिर वही रूप इतिहास का अमिट हिस्सा बन जाएगा । सारी सम्भावनाओं को यों सिमटाकर हम अनकहे की सच्चाई को मिटाना नहीं चाहते ।
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गुड़ भी और केक भी हमारी रगों में
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पर हमें हैरत अलग ही है कि खिड़की–दरवाज़े पर टँगे परदे को देखकर हम अच्छी तरह जानते थे कि इसके पीछे एक पूरा, सजा–सजाया कमरा है…घर है…जहाँ किसी के जीवन का स्पन्दन हर चीज़ को स्पर्श करता है । ऐसा भी हुआ है कि कहीं अनजान जगह में फहराता पर्दा देखकर हमारा मन जिज्ञासु हो उठा– क्या है उसके पीछे? यह तो हमने कभी भी न सोचा कि शून्य में फहराता पर्दा है, न उसके पीछे कुछ, न आगे कुछ । कि बस उसी के फड़फड़ाते सन्नाटे में उलझके रह गए ? माई का पर्दा देखकर हमें उसके पीछे का खयाल ही न आया
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हम कुछ नहीं समझे और बाद में उम्र ऐसी आई कि जो नहीं भी था वह भी समझने लगे । फिर वह भी उम्र आई कि ज़रूरत से ज़्यादा समझना नाटकीयपन लगने लगा । कुछ इस तरह उलझे ये सारे समझ के दौर कि अब तो कोई सन्तुलित दृष्टि ही नहीं सूझती–क्या समझें तो नाटकीय नहीं होगा, क्या न समझें तो असल होगा, मालूम ही नहीं चलता
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भयानक है यह । किसी को बेनाम, अदृश्य ही, मौत के पार लगा देना । किसी को ‘खाली’ कर देना
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अपने से अलग माई को नहीं देखा । उसका जीवन ही, हमारा मानना था, हमारे बचपन से शुरू हुआ । वह तो बाद में उसकी आँखों से झरी ठंडी राख मिली । और तब कितनी ही चीज़ों पर उस राख का कोई ज़र्रा पड़ा मिल गया ।
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वैसे तो हमारे यहाँ लड़कियों के बचपन का अचानक चले जाने का रिवाज़ ही है पर अपना गया तो सही, शायद उतनी भी अचानक और उतनी भी आसानी से नहीं गया
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बुआ के साथ लगता कि मैं एक बदन हूँ
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बुआ के साथ बचपन से जी होता कि बुरका पहनूँ
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जब जीवन को नहीं कोई बन्द कमरे में खत्म कर सकता तो फिर तारुण्य तो गैस का गुब्बारा है कि डोर कसके पकड़े रहो तो भी उमंग से झूम रहा है; डोर छूट जाए, जो छूट ही जाती है, तो ऊपर बादलों में उड़ रहा है ।
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वह तराजू कहाँ मिलेगा कि अपनी इच्छा को, बात की अहमियत को, एकदमसही–सही तोल पाऊँ–इतने तोला, इतने माशा, इतने रत्ती? पर हो भी ऐसा तराजू तो क्यों इतना तुलवाती हो?
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किसी के कहे की अनुगूँज न बनना, उसके आदेश को बुत की तरह बस सुन लेना, इनका भी कोई श्रेय हो सकता है, हमें सोचने की फुर्सत नहीं थी
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हमारी आज़ादी ‘बाहर’ होने की थी । ड्योढ़ी में अब हम अन्दर के नहीं रहे इसलिए वहाँ भी आज़ाद थे । विदेश में तो थे ही बाहरी इसलिए वहाँ भी जो जी में आए कर सकते थे । सब जगह हम ‘बाहर’ के और अकेले
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शायद एक ‘खोल’ था जो हम बचपन से बुनते आए थे । वह हमें इतना प्यारा हो चुका था कि किस आकार पर मढ़ रहे हैं वह चिन्ता ही हमने नहीं की । बस उस खोल की हिफाज़त में दूसरों को लताड़ते रहे
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और मुझे लग पड़ा कि इसके पीछे कोई राज़ है जो दादी की, बुआ की, माई की, मेरी, सबकी सहेली छूट जाती है
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कि दादी के शातिर अन्दाज़ों के पीछे और बुआ की कर्कशता के पीछे और माई के शान्त के पीछे और मेरी आधुनिक गहमागहमी के पीछे वही एक सन्नाटा है जिसमें एकतरफे कानूनों की बेकसी समा गई है और रज्जो खो गई है…
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ऐसा भी तो होता है कि सच इतना फैला हुआ और उलझा हुआ होता है कि उससे आतंकित होकर हम छोटे से, सिकुड़े से, किसी झूठ को बस उसकी स्पष्टता के कारण सही मानते रहें ।
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हमने उसका पर्दा देखा था । उस पर्दे को दूसरों के हाथों में बेजान पड़ा देखा, जिसने चाहा इधर सरकाया, जिसने चाहा उधर झटकाया । हम समझे वह माई ही तो है । पर्दे के पीछे से गरिमा की लहक नहीं आई, कोई भींगा–भींगा सोज़ नहीं सुन पाए । बेरंग बना दिया उस जीवन को जो पर्दा करता था ।