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तब, उसका पूरा क़स्बा, क़स्बे की खिड़कियाँ और मौन हसरत से देखती कई आँखें उसके सामने दौड़ती चली आई थीं, खुद उसे भी पता नहीं कि उसकी ख़ामोश हसरतों और आँखों ने कब किससे क्या
कहा होगा, और किन गलियों और खिड़कियों में उसकी आँखें उलझी रह गई होंगी!
पूँजीवाद का तब कोई स्पष्ट राजनीतिक चेहरा या वैचारिक केंद्र नहीं था। दक्षिणपंथ ही तब पूँजीवाद का विकलांग प्रवक्ता था, जो साहित्य में रचनावाद का समर्थक होकर उभरा था। वामपंथ उस समय परिवर्तन का प्रवक्ता था। वह साहित्य के कलावादी शाश्वतवाद से इन्कार करता था पर शब्द की रचनात्मक गरिमा को पहचानते हुए, नश्वर कारणों के बीच से मनुष्य के समतामूलक शाश्वत भविष्य को रूपायित करना चाहता था।