एक और अवसर था हम जिसका इंतजार करते थे, वह था—मोहर्रम। हमारे गाँव में इसे ‘ताजिया’ कहते थे। हम गाँव के बड़े मुस्लिमों को काका या चाचा कहते थे। नबी रसुल चाचा, इस्माइल काका और यीशु काका रंग-बिरंगे ताजिए बनाते थे और हमारी बस्ती से होकर इसे निकालते थे। हम भी जुलूस में शामिल हो जाते और गाँव के आखिरी छोर तक साथ चलते। जुलूस के साथ चलते हुए हम बनेठी खेलते जाते थे, इसमें एक छड़ी होती थी, जिसके दोनों छोरों पर गेंद के आकार के लकड़ी के टुकड़े लगे होते थे। तब हम बच्चों