किसी भी लेखक के लिए इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता कि उसकी अलमारी में न छपी हुई किताबों का कोना बड़ा होता जाए। यह वैसे ही है जैसे साल भर में हमारी न ली हुई छुटि्टयों का हिस्सा पता नहीं कब बढ़ जाता है। जिंदगी में न जिए हुए दिनों का कोटा बढ़ता जाता है। खुद को सीरियसली लेने के चक्कर में आदमी भूल ही जाता है कि एक दिन सब ठाठ धरा रह जाएगा। हर बीता हुआ दिन अपने न जिए जाने का हिसाब माँगता है। सब कुछ ठीक है और कुछ भी ठीक नहीं है जैसे ख्याल इसीलिए आते हैं ताकि आदमी अकेले में बैठकर जिंदगी से ऊब सके। इतना ऊबे कि जिंदगी से आँख-मिचौली करने की हिम्मत जुटा सके। ऊबे हुए लोग ही गूगल मैप का छोटे-से-छोटा रास्ता छोड़कर
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