अक्टूबर जंक्शन
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Read between May 22 - May 26, 2025
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किताब का काम वही है जो पानी का एक छोटे से पौधे के लिए होता है। खुशबू और खूबसूरती पानी में नहीं होती लेकिन हर पौधे को पानी में अपनी खुशबू ढूँढ़नी पड़ती है।
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हमारे कितने हिस्से दुनिया में कहाँ-कहाँ कैद हैं ये हम कभी नहीं जान पाएँगे।
15%
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वो सवाल जो हम एक-दूसरे से पूछ रहे होते हैं वो असल में हम अपने-आप से पूछ रहे होते हैं।
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वह बड़ी अच्छी बातें करता है या वह बड़ी अच्छी करती है के बजाय कभी कोई यह क्यों नहीं बोलता कि उसके साथ बैठकर चुप रहना अच्छा लगता है। किसी के साथ बैठकर चुप हो जाना और इस दुनिया को रत्ती भर भी बदलने की कोई भी कोशिश न करना ही तो प्यार है।
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हम इतनी झूठी जिंदगी जी रहे हैं कि हम दूसरे को चुप करवाते हुए अपने-आपको भी चुप करवा रहे होते हैं। चुप कराने से जब सामने वाला चुप हो जाता है तो बेचैनी और बढ़ जाती है कि हम खुद कहाँ जाकर रोएँ और हमें चुप कौन कराएगा।
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हमें सामने वाले का सब कुछ पता होता है बस आँसुओं का हिसाब-किताब कोई करता ही नहीं। दुनिया आँसुओं का हिसाब-किताब कर लेती तो जीना थोड़ा आसान हो जाता।
27%
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सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा
28%
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रेत कुछ देर तक उड़ती हुई नीचे रेत में जाकर मिल गई। नीचे पड़ी हुई रेत को देखकर यह पहचानना मुश्किल था कि हवा से उड़कर कौन-सी रेत गिरी थी।
31%
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पास पड़ा कुल्हड़ कूड़ेदान में छलांग लगाकर टूट गया और टूटकर दोनों कुल्हड़ एक हो गए।
35%
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कोई लड़की या लड़का अगर पूछे कि क्यों मिलना है और सामने वाला अगर उसका बिलकुल ठीक-ठीक जवाब दे दे तो उससे कभी नहीं मिलना चाहिए। अगर कोई बोले कि ‘मिलकर देखते हैं’, उससे जरूर मिलना चाहिए। मिलकर देखने में एक उम्मीद है कुछ ढूँढ़ने की, थोड़ा रस्ता भटकने की, थोड़ा सुस्ताने की। उम्मीद इस बात की भी कि नाउम्मीदी मिले लेकिन इतना सोच-समझकर चले भी तो क्या खाक चले!
36%
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नदी और जिंदगी दोनों बहती हैं और दोनों ही धीरे-धीरे सूखती रहती हैं।
41%
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सूरज से मुलाकातें होती रहेंगी लेकिन उनका अपना कोना खो जाएगा। चित्रा और सुदीप साथ-साथ रहें-न-रहें उनके बीच का कुछ-न-कुछ हमेशा खोता रहेगा।
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सूरज के लिए दुनिया एक दिन और पुरानी हो गई थी।
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अकेले रहना आसान बनाने में बड़ी मुश्किलें आती हैं।
54%
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हर बीता हुआ दिन अपने न जिए जाने का हिसाब माँगता है।
60%
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दो लोग जब तक एक-दूसरे को यह नहीं बताते हैं कि वे रोते किस बात पर हैं तब तक करीब नहीं आते।
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छुटि्टयाँ तभी तक अच्छी हैं जब तक वो मुश्किल से मिलती हैं।
72%
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जिंदगी एक हद तक ही परेशान करती है। उसके बाद वो खुद ही हाथ थाम लेती है।
87%
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तुम्हें पता ही है कहीं किसी पहाड़ पर किसी कमरे की खिड़की के पास वाली छोटी-सी टेबल हमारे पैर-पर-पैर रखकर जी भर सुस्ताने का इंतजार कर रही है।
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हो सकता है कि मेरे ऐसा करने से कहानी कमजोर होती हो लेकिन मुझे परवाह नहीं क्योंकि परवाह करके न कहानियाँ लिखी जा सकती हैं और न ही कहानियों को जिया सकता है। मैं कहानियाँ लिखने से ज्यादा उनको जीने में विश्वास करता हूँ। इसलिए अपने घटिया लिखने का दोष मैं अपने पूरे होशो-हवास में अपनी जिंदगी को देता हूँ। मलाल बस यही है कि मैं जिंदगी को बस उतना ही पकड़ पाया हूँ जितना कि एक मुट्‌ठी बंद करके कोई हवा पकड़ पाता है।
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हम जिस कहानी का हिस्सा हैं उसे शायद कोई लेखक कभी मिले ही नहीं।
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हम थे कौन ये सवाल हमारे साथ ही चला जाएगा। कुछ लोग बोल देंगे कि बड़े अच्छे आदमी थे या बड़ी अच्छी औरत थी, बस। बस सबकी कहानी इतनी ही है।
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कुछ कहानियाँ लेखक पूरी नहीं करना चाहता क्योंकि वैसी कहानियाँ पूरी होते ही दिल-दिमाग-उँगलियों से हट जाती हैं। जब तक कहानी अधूरी रहती है तब तक लेखक और पाठक की उँगलियाँ उन्हें बार-बार छूने के लिए बेचैन होती रहती हैं।