More on this book
Community
Kindle Notes & Highlights
सब साफ़ दिखने से कम दिखना कितना कुछ देता है! बहुत बोलने से चुप कितना कुछ कहता है!
क्या जो हमें याद नहीं है, वह हमने जिया ही नहीं है?
घर की दरारें, बारिश में खिड़कियों की नमी, पड़ोस से आती दाल में तड़के की ख़ुशबू, मोहल्ले के तारों में अटकी हुए पतंग, सारा कुछ मैं आज भी चख सकता हूँ।
सुना है छूटी हुई चीज़ों की जड़ें उग आती हैं!
जब कुछ बहुत बुरा अपने चरम पर घट रहा होगा, क्या तब तुम सिरहाने आकर अपने कोमल हाथ माथे पर फेरकर जगा दोगी?
अगर हम सब क्षणिक हैं तो तुम जीवन हो! क्या कभी मिलोगी नहीं, इस घड़ी के बंद होने से पहले?
साल आसानी से ख़त्म हो जाते हैं, पर दिसंबर हाथ नहीं छोड़ता है। आज भी।
एक-दूसरे का ख़्वाब साथ रहकर नहीं देखा जा सकता था, सो हम इतना दूर हो जाते कि ‘साथ थे’ के निशान धुँधले पड़ जाते…
कितने साल बीत जाते हैं न, यह सोचते हुए कि बस कुछ वक़्त बाद सब सही होगा, पर असल में सब सही कभी नहीं होता है। हमेशा एक टीस रह जाती है और वक़्त बीत जाने का पता ही तब चलता है, जब हम अपने आईने को छोड़कर किसी दूसरे में ख़ुद को देखते हैं—पहली बार!
“वैसे, किसी बहुत ख़ूबसूरत किताब को पढ़ लेने के बाद हम कितनी बार उस किताब पर वापिस जाते हैं?”
हम अच्छी ख़ूबसूरत किताब को बार-बार पढ़ते हैं, क्योंकि वह हर बार हमें कुछ नया देती है और बहुत सारा अपनापन।
यात्राओं में कुछ शहरों से बहुत गहरा संबंध जुड़ जाता है।
आख़िरी दिन उस शहर को देखना, शहर गलियों में ज़िंदा दिखता है और गलियाँ सड़कों पर आकर समर्पण कर देती हैं।
कितना कठिन है किसी शहर को छोड़ना और असल सवाल है कि क्या हम कुछ भी छोड़ सकते हैं?
हमेशा बहुत सुंदर जगह तभी क्यों बहुत अच्छी लगती है जब हम उस जगह को अपने अतीत में सोचकर याद करते हैं।
यात्राएँ आसान नहीं होतीं, ये बहुत अजीब तरीक़े से आपके शरीर पर काम करती हैं।
यात्राएँ अद्भुत और कठिन होती हैं, पर सुंदर बात है कि वह हमें जीवन में 99 (निन्यानवे) के फेर से दूर रखती हैं।
आधा-अधूरा कितनी सारी कल्पनाओं को चेहरा देता है!
गहरी शांति में अगर कान लगाओ तो कुछ सुनाई देने लगता है।
अच्छा लगता है यह जानकर कि आप अकेले पागल नहीं हैं। दुनिया में बहुत से लोग हैं जो दिशाहीन यात्रा का आनंद ले रहे
छोटी दुकानें, बूढ़े लोग, यहाँ-वहाँ रेंगती ज़िंदगी।
यहाँ पहाड़ों में आवाज़ गूँजती है और आपका किया बार-बार आपके पास वापिस आता है।
पहाड़ों में बारिश। कितनी नाटकीयता है इस मौसम में!
पहाड़ों की बारिश में रूमानियत है, जवानी का ड्रामा है।
बहा ले जाए एक ऐसी जगह जहाँ त्रासदी भी संगीतबद्ध हो,
जुगनू की कहानी उसके चमकने में नहीं है, उसकी कहानी उस अँधेरे में है जिसे वह दो चमकने के बीच में जीता है।
“देखो मानव यथार्थ तो झूठ है, कल्पना सच है।”
जीत कितनी पराई है और हार कितनी अपनी!
अचानक मैंने उस कहानी का अंत ढूँढ़कर उसे ख़त्म कर दिया।
यह हिंसा है, बहुत समय तक इसकी ग्लानि बनी रहती है।
दीवारों को देखता हूँ तो वे मासूम-से हल्के सुख लिए खड़ी हैं—जैसे चिड़िया के चहकने की मुस्कुराहट, बिस्तर पर चाय पीने की चाहत, सिगरेट नहीं पिऊँगा में उसके जला लेने की बग़ावत, बाहर दरवाज़े पर बिल्ली की आहट।
“हियर ऐंड नाउ”। दो बड़े लेखक—खेल, लेखन, अर्थशास्त्र, दोस्ती, बूढ़ा होना—हर विषय पर कितनी सरलता से लिख रहे हैं।
अचानक लगता है कि कुछ दिन यूँ ही सोते हुए बीत गए हैं।
“Whether you think of it as heavenly or as earthly, if you love life, immortality is no consolation for death.”
जैसे ओस की बूँद को किसी तिनके पर ठहरे हुए देखना, गिलहरी की बहुत ज़रूरी छलाँगों को तकना, बिल्ली की चालाकी पकड़ना… ये वे आश्चर्य हैं, जिनका स्वाद देर तक मुस्कुराहट बनाए रखता है।
एक गुदगुदी बनी रहती है—संभावनाओं की।
वह पास के हनुमान मंदिर में बजरंगबली को रोज़ गरियाता था, “अपना गदा रखो और मेरा कुछ काम करो।”
मैं लाइट तब तक नहीं जलाता जब तक कमरे से दिन का क़तरा-क़तरा न निकल जाए।
पढ़ी हुई किताबों को फिर से पढ़ने का एक अलग सुख है।
एक ड्रिंक, हाथ में सिगरेट, उल्टी पड़ी कोई किताब और पीछे हल्के सुर में चलता हुआ संगीत।
हमारी लड़ाइयाँ भी कैसी हैं! सुबह चाय पीऊँ या कॉफ़ी, जूता पहनूँ या चप्पल, तेज़ चलूँ कि धीरे, उठ जाऊँ या बिस्तरे पर ही लोट-पोट होता रहूँ?
भीड़ में रहकर अकेलेपन की कल्पना हमेशा सुख देती है, पर अकेले में अकेलेपन का स्वप्न क्या है? यह दोगलापन है।
“हम अपने अकेलेपन का तब क्या करें, जब वह हमें नहीं चाहिए होता है?”
पता है हम सबके भीतर एक पूरा ब्रह्मांड हैं। अभी कितना और है जो पता करना है।”
ये रातें जो चुप रहती हैं, नींद को भीतर आने नहीं देतीं और असहजता को बाहर निकलने नहीं देतीं।
तालीम (मराठी में रिहर्सल को तालीम कहते हैं, जो मुझे बहुत पसंद है)
हर मूर्ति बनाने के बाद कुछ है जो बदल जाता है—मूर्ति में नहीं, मूर्तिकार