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सब साफ़ दिखने से कम दिखना कितना कुछ देता है! बहुत बोलने से चुप कितना कुछ कहता है!
अगर हम सब क्षणिक हैं तो तुम जीवन हो! क्या कभी मिलोगी नहीं, इस घड़ी के बंद होने से पहले?
जो मर चुका है, वह कितना आसान है, पर उन बची हुई हडि्डयों का क्या जो राख में अभी भी गर्म हैं?
इस खेल में दरवाज़े के उस तरफ़ हमेशा एक ख़्वाब बिना दस्तक दिए खड़ा रहता है। मेरा दरवाज़ा खोलना ख़्वाबों का अंत है और उसका भीतर आना किसी झूठ की शुरुआत।
कब तुम सामने आकर बैठ गईं पता नहीं चला। मेरा जोकर हँसा और सारी शिकायतों की इमारत, तुम्हें देखते ही ढह गई।
तो वर्तमान क्या सिर्फ़ चीज़ें बटोरने का काम करता है? क्या हम महज़ अतीत को सोचकर ही सच्ची ख़ुशी पा सकते हैं?
“कहाँ जा रहे हो” जैसे सवालों पर मेरा जवाब अक्सर होता है, “बस यूँ ही…” और सही में लगता है कि लगभग हर लंबी यात्रा का पहला क़दम “बस यूँ ही…” से शुरू हुआ था। पहाड़ों पर घूमते हुए हमेशा नई पगडंडी पकड़ लेता हूँ, आज देखें ये रास्ता कहाँ जाता है? अगर भीतर जंगल में गुम जाता हूँ तो फिर गुदगुदी होने लगती है—भटकने के सुख की। मैं मिल जाऊँगा वापिस, पर बहुत भटकने के बाद ये यक़ीन है कि मैं वह नहीं होऊँगा जो जंगल में गुमा था। मैं बदल जाऊँगा। आईने के सामने खड़े होकर फिर भीतर गुदगुदी होती है ये पूछने की कि ये जो दिख रहा है सामने, ये कौन है?
उन दिनों के लोगों से मिलता हूँ तो वे उस वक़्त के क़िस्से सुनाते हैं। क़िस्सों में मैं था, ये मुझे कुछ याद नहीं रहता। मैं उनसे पूछता हूँ कि मैं था वहाँ? वे हँसने लगते हैं तो मैं झूठ बोलता हूँ कि हाँ याद आया। फिर मुझे जो याद है, वह क्या असल में हुआ था? पता नहीं, पर मैं उनके क़िस्सों के आदमी को और अपने जिए हुए को पहचान नहीं पाता हूँ। लगता है कि वह पता नहीं कौन है जिसने सारा कुछ सहा है और वह जाने कौन है जो जी रहा है!
उन सदियों पुरानी दीवारों को छूने से लगता है कि आप उन्हें महसूस कर रहे हैं जो बहुत पहले यहाँ से गुज़रे थे कभी।
इतिहास के अवशेषों से जब भी हम गुज़रते हैं, सच में आश्चर्य होता है कि हम पहले ये थे? फिर लगने लगता है कि हम अभी भी तो इसी सबसे गुज़र रहे हैं। क्या बदला? हम पता नहीं क्या सब बना रहे थे और कितना सारा मिटा रहे थे! जो ये सब पुराना शेष बचा है जिसे हम अभी छू रहे हैं, क्या इन अवशेषों में हम साफ़ नहीं देख सकते हैं कि हिंसा सिर्फ़ ख़त्म करती है? आओ कुछ नई ग़लतियाँ करें। कब तक पुरानी ग़लतियों को दुहराते रहेंगे? ये जो खंडहर बचे रह गए हैं, उन्हें किसी ने तो सहेजा है—आने वालों को दिखाने के लिए कि हम सब अलग-अलग रंग के ‘इंसान’ हैं बस। किसी को ख़त्म करना, ख़ुद भी ख़त्म हो जाना है।
टूटी कुर्सियाँ ज़्यादा देर एक जगह बैठने नहीं देती हैं।” यह कहकर वह हँसने लगे। “पक्की कुर्सी पर बैठता हूँ तो लगता है कि कोई छीन लेगा, फिर बाक़ी जीवन खड़े होकर गुज़ारना पड़ेगा।” यायावरी
जाने कितना सारा दफ़्न करने को गया था! जितना ख़त्म करने के लिए ले गया था, उससे कहीं ज़्यादा बटोर लाया हूँ। यात्राएँ जितना हल्का करती हैं, उतना ही भर भी देती हैं।
मैं जीवन में जब-जब किसी प्रकार के डिप्रेशन से गुज़र रहा होता था तो मुझे अपनी डायरी याद आती थी और मैं उसके पन्ने के पन्ने गूद डालता था। अब इस उम्र में आकर जब अपनी डायरी पढ़ता हूँ तो लगता है कि कितना पीड़ित जीवन जिया है मैंने। जबकि यह सही नहीं है। मैं उन क्षणों को दर्ज करना ही भूल गया था, जब मैंने कहा था कि life is good.
जब कभी बहुत तेज़ धूप जीवन में सताती है, दिन भारी लगने लगता है, हल्की घबराहट और टीस का पसीना रीढ़ की हड्डी में महसूस होता है… तब कंचे और जुगनू की कल्पना के बादल धीरे से आकर सूरज को ढँक लेते हैं। एक ठंडी हवा बहने लगती है। मैं पहाड़ों में बैठे तथागत की कहानी लिखने लगता हूँ और मुझे ठंडक महसूस होने लगती है।
शायद कुछ कहानियाँ कभी पूरी नहीं होंगी। हम हमेशा उन क्षणों को कोसते रहेंगे, जिन क्षणों में हमने आख़िरी वाक्य उन कहानियों में लिखे थे और अपनी डेस्क से उठ गए थे। काश हम अपनी डेस्क न छोड़ते, काश हम उन्हें पूरा कर लेते—उस वक़्त। नई कहानियाँ अधूरी कहानियों के बोझ तले शुरू नहीं होतीं। वे कुछ वाक्यों के बाद ही दम तोड़ देती हैं। शायद नई कहानियाँ अधूरी कहानियों की पीड़ा सूँघ लेती हैं और छूट जाती हैं।
तभी ख़याल आता है कि चिड़िया के नहीं दिखने में उसके दिख जाने की प्रसन्नता छुपी है।
अधूरी कहानियों की आड़ में कहीं एक नई कहानी जन्म लेती है। वह अचानक मुझे एक दिन दिख जाएगी, जब मैं उसे खोजना छोड़ चुका होऊँगा।
‘मैं वह नहीं हूँ जो दिखता हूँ, मैं वह हूँ जो लिखता हूँ।’
हम जिस भी चीज़ को छुपाकर रखते हैं, वह हमेशा हमारे लिए बहुत निजी हो जाती है—कुछ बहुत अपनी-सी। हम सभी बहुत बार हारे हैं। हम सबके सुंदर घरों के स्टोर रूम हमारे अधूरे टुकड़ों से भरे पड़े हैं। शायद इसलिए हारे हुए पात्र कहानियों में हमेशा छू जाते हैं। जीत कितनी पराई है और हार कितनी अपनी!
पॉल ऑस्टर और जे. एम. कोएटज़ी के बीच हुआ पत्राचार पढ़ रहा हूँ। मुझे किताब का नाम बेहद पसंद हैं—“हियर ऐंड नाउ”।
‘A Very Easy Death’ by Simone de Beauvoir.
किसी नाटक की शुरुआत के वक़्त मैं बहुत उत्साहित रहता हूँ, चाहे फिर उसे मैं लिख रहा हूँ या देख रहा हूँ। एक गुदगुदी बनी रहती है—संभावनाओं की।
पढ़ी हुई किताबों को फिर से पढ़ने का एक अलग सुख है। वे दूसरी बार में आपकी अपनी हो जाती हैं। आपके अपने जिए हुए की ख़ुशबू उस किताब के पन्नों से आने लगती है।
“Hapiness is as exclusive as a butterfly, and you must never pursue it. If you stay very still, it may come and settle on your hand. But only briefly. Savour those moments, for they will not come in your way very often.”— Ruskin Bond
“जैसे बिना भूखा रहे, भूख लिखना झूठ है, ठीक वैसे ही उस अकेलेपन में घुसे बिना उसकी बात करना भी…।”
लेकिन असल नाटक कहाँ है? असल नाटक वह रेत है जो हाथों से धीरे-धीरे छूटती चली जाती है। असल नाटक वो ख़्वाब हैं जो दरवाज़ा खटखटाते हैं, पर उस वक़्त हम घर पर नहीं होते। असल नाटक वह अधूरापन है जिसे कोई दूसरा पूरा करता है… और उस दूसरे का नाम वक़्त है जो पलटकर कभी वापस नहीं आता। असल नाटक मौन में है, गहरी साँसों में है, टीस में है… असल नाटक ख़ुद से दूर जाने में है, ख़ुद को भूल जाने में है।
हम जब किसी अपने से बहुत कुछ कह चुके होते हैं और कह चुकने के बाद भी लगता है कि क्या वह हमारे कहे के बीच की ख़ाली जगह देख पाया? जहाँ हम चुप हो गए थे?
थिएटर ने हमें असल में बेहतर इंसान बनाया है।
निर्मल—मुझे रामकृष्ण परमहंस की बात याद हो आई, “नदियाँ बहती हैं, क्योंकि उनके जनक पहाड़ अटल रहते हैं।” मैं एक के साथ खड़ा हूँ, दूसरे के साथ बहता हूँ… चलता हूँ।