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Whosoever saves the life of one; it shall be as if he has saved the life of all mankind…” -Qur’an, Al-Maeda / 5:32 “…वो जिसने एक भी ज़िंदगी बचाई है, तो समझ लो कि उसने संपूर्ण मानवता की रक्षा की है…”
ब्याह औरतों से आँगन छीनता है और व्यापार मर्दों से गाँव।
इतिहास तो मैदानी इलाक़ों का होता है जहाँ हिंदुकुश की दरारों के बरास्ते परदेशी आते गए और कभी इबारतें तो कभी इमारतें बनाते गए।
समय जब प्रेम लिखता है तो होनी बदलती जाती हैं और अवसर बनते जाते हैं। होनी
मुस्कुराहटें सीधी याददाश्त में घर बना लेती हैं। उन्हें रटकर ज़ेहन में बिठाना नहीं पड़ता।
मन से उठकर नयन तक जाते दुःख को गले में ही घोटना पड़ता है और यह तकलीफ़ गला घोटने से अधिक ही होती है।
प्रेम का स्वाद और तासीर दोनों कपूर की तरह होते हैं। प्रेमी जब प्रेम चख रहे होते हैं तब वह दरअसल अपनी ज़ुबान पर चलता कपूर रख रहे होते हैं। इसका सोंधापन तबतक नीमहोश किए रहता है जबतक कपूर जलकर ज़ुबान पर न आ जाए। प्रेम का अतिरेक जलने में ही है। मनु ने महसूस किया कि प्रेम की तासीर आग्नेय होती है।
प्रेम में शरीर को जोग ही नहीं; रोग भी लग जाते हैं। प्रेम बेख़ुदी ही नहीं; बीमारियाँ भी साझा कर जाता है। अदला-बदली पत्रों की ही नहीं, पीड़ाओं की भी होती है।
अमावस से काले अंधकार से घिरे स्टेशन में सन्नाटा इस तरह पसरा था जैसे यह स्टेशन न होकर क़ब्रिस्तान हो और घरवाले मुर्दा फूँककर वापस लौट गए हों। आवाज़ के नाम पर झींगुरों का शोर ही कानों तक आता था।
ऋषि के पास कहने को आकाश भर की बातें थीं। मनु के पास सुनने को समंदर भर की उत्सुकता; लेकिन फिर भी कमी दोनों ही तरफ़ थी। ऋषि के पास शब्द नहीं थे और मनु के पास धैर्य। शब्दों से जब जवाब नहीं आए तो धैर्य ने ही जवाब दे दिया।
“पता है। आज जब तुम वहाँ से चली आई ना, तो मुझे लगा कि मैं देर से किसी अँधेरे कुएँ के भीतर से आवाज़ लगा रहा हूँ। मेरी आवाज़ लौटकर बस मुझ तक पहुँच रही हैं। मुझे लगा कि मैं देर से किसी खोह में दौड़ता जाता हूँ; मगर अँधेरा है कि ख़त्म ही नहीं होता।
चुप तो वक़्त ही हो गया था। देर तक एक शून्य वातावरण में तैरता रहा। बेआवाज़ आलम इस स्थिति की ज़रूरत होती है। उनके पूरक। कोई भी ध्वनि, कोई भी अतिरिक्त बोल इस मौन की सुंदरता में विघ्न ही डालते हैं। प्रेम में शब्दों की आवश्यकता न्यून होती है।
उसकी शर्ट मनु के आँसुओं से भीग चुकी है। ऋषि ने देखा कि उसकी शर्ट वहीं भीगी है जहाँ छठी पसली होती है। ऋषि ने जाना कि छठी पसली के नीचे, ठीक नीचे दिल होता है।
राम दास लंगर। 300 सालों से जाति, धर्म और रुतबे से ऊपर उठकर लोगों को साथ बैठाने का तथा साथ खिलाने का उपक्रम। गुरु की ‘पहले पंगत फिर संगत’ का स्थान। वह बुदबुदाये- “देग तेग फतेह।” अर्थात भूखों के लिए भोजन और कमज़ोरों के लिए सुरक्षा। यही
देर तक मुस्कुराती हुई मनु सीढ़ियों पर बैठी रही। प्रेम के मसले दरअसल, प्रेम तक ही सीमित होते हैं। दुनियावी बवालों, सियासती अहवालों और मज़हबी सवालों से प्रेमी अछूते ही रहते हैं।
व्रतियों के मन्नतों की आड़ में छठ पर्व प्रेमियों के लिए जन्नत भी है। साथी की एक झलक पाने को पानवालों, सड़कों, चायख़ानों और कैसेट की दुकानों पर दिन निकाल देने वाले प्रेमियों के लिए यह दिन किसी मुराद के पूरे होने जैसा ही होता है। खिड़कियों, छतों, आँख के तिरछे कोरों, कॉलेज गेट की दरारों या रिक्शा के फटे पर्दों के बीच से झाँकतीं काजल भरी आँखों के लिए भी यह दो दिन स्वच्छंदता के ही होते हैं। प्रेम दरअसल उन दो दिनों में धूप और हवन-सामग्री के साथ हवाओं में तैरता है। प्रेम दरअसल उन दो दिनों में पूजा की डलिया के ठीक पीछे चलता है। प्रेम दरअसल उन दो दिनों नंगे पैरों के आबलों में फूटता है और पैरों को निहारती
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प्रेम की भाषा प्रेमी ही गढ़ते हैं। यह शब्द, चेष्टा, शोर, चीख़, मौन, आहट, इशारा, प्रशंसा, अवहेलना इत्यादि कुछ भी हो सकता है। कूट का अर्थ वह ग्राह्य कर ही लेता है जिसके लिए वह भेजी गई है।
प्रेम ख़ुशी-ग़म, रिश्ते-नाते, चिट्ठी-पत्री, यादें-वादे सबकुछ सहेजना सिखा ही देता है।
दोनों प्रेम के उस पड़ाव पर थे जहाँ प्रेम चेहरे पर ककहरे की तरह चस्पा हो जाता है जिसे कोई भी पढ़ सकता है।
प्रेमी एकाध सदियाँ तो इशारों में ही जी लेते हैं।
लम्हों की ग़लतियों के लिए सदियों को सज़ा नहीं दी जानी चाहिए,
दंगे की रात का अपना ही सन्नाटा होता है। बाक़ी सारी ख़ामोशी से अलहदा। बिल्कुल अलग। यह आपको डराता नहीं, मरने से पहले की ख़ामोशी सुनाता है।
अफ़वाह की सबसे विनाशकारी बात यह होती है कि यह नसों में लहू की जगह नफ़रत दौड़ाती है और वह नफरत महज़ दिल तक जाती है। अफ़वाह दिमाग़ तक किसी भी संकेत के जाने के सारे रास्ते बंद कर देती है। घृणा हुजूम का सबसे मारक हथियार है। महज़ दो मुहल्ले बदल लेने से आप बशीर, रौनक़, कमल, जितेंद्र या ऋषि न होकर भीड़ होते हैं। भीड़ जिसके सिर पर ख़ून सवार है। भीड़ जो भेड़ियों का समूह है। भीड़ जो
उन्मादी है। भीड़ जिसे बदला लेना है। भीड़ जिसे तुम्हें तुम्हारी औक़ात दिखानी है। भीड़ जिसे अपट्रॉन की टीवी चाहिए। भीड़ जिसे कुकर चाहिए, भीड़ जिसे ज़ेवर चाहिए। भीड़ जिसे लड़की चाहिए। भीड़ जिसे पगड़ी चाहिए। भीड़ जिसे ख़ून चाहिए। सरदारों का ख़ून और ख़ून तो गुरनाम के साथ ही मुँह लग गया था।
अभी ज़िंदा-मुर्दा देखने का समय नहीं है। कहते हुए तीसरा, लड़की के मुर्दा जिस्म पर झुक गया। लड़की पहले मरी, इंसानियत थोड़ी देर बाद। तीसरे ने जब उठते हुए अंगड़ाई तोड़ी तो पाशविकता भी टूटकर रो रही थी।
आग हरे-सूखे का भेद करती है। आग नम और खुश्क का भी भेद करती है। आग माध्यम और निर्वात का भी भेद करती है; मगर आग ज़िंदा और मुर्दे का भेद नहीं करती। वह यह नहीं देखती कि जो आदमी जिससे वह लिपटकर धू-धू हो रही है उसकी साँस भी बाक़ी है। या शायद बाक़ी थी अब नहीं रही।