Kindle Notes & Highlights
by
Vedvyas
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December 30, 2020 - March 22, 2022
कानसे भगवान्के नाम-गुण और लीलाओंका श्रवण, वाणीद्वारा उनका कीर्तन तथा मनके द्वारा उनका मनन—इन तीनोंको महान् साधन कहा गया है।
एकमात्र भगवान् शिव ही ब्रह्मरूप होनेके कारण ‘निष्कल’ (निराकार) कहे गये हैं। रूपवान् होनेके कारण उन्हें ‘सकल’ भी कहा गया है। इसलिये वे सकल और निष्कल दोनों हैं।
दीर्घकालतक अविकृतभावसे सुस्थिर रहनेवाली वस्तुओंको ‘पुरुष-वस्तु’ कहते हैं और अल्पकालतक ही टिकनेवाली क्षणभंगुर वस्तुएँ ‘प्राकृत वस्तु’ कहलाती हैं।
अग्निके पहाड़-जैसा जो यह शिवलिंग यहाँ प्रकट हुआ है, इसके कारण यह स्थान ‘अरुणाचल’ नामसे प्रसिद्ध होगा।
प्रधानतया शिवलिंगकी ही स्थापना करनी चाहिये। मूर्तिकी स्थापना उसकी अपेक्षा गौण कर्म है।
‘सृष्टि’, ‘पालन’, ‘संहार’, ‘तिरोभाव’ और ‘अनुग्रह’—ये पाँच ही मेरे जगत्-सम्बन्धी कार्य हैं, जो नित्यसिद्ध हैं।
सृष्टि भूतलमें, स्थिति जलमें, संहार अग्निमें, तिरोभाव वायुमें और अनुग्रह आकाशमें स्थित है।
सबसे पहले मेरे मुखसे ओंकार (ॐ) प्रकट हुआ, जो मेरे स्वरूपका बोध करानेवाला है।
मेरे उत्तरवर्ती मुखसे अकारका, पश्चिम मुखसे उकारका, दक्षिण मुखसे मकारका, पूर्ववर्ती मुखसे विन्दुका तथा मध्यवर्ती मुखसे नादका प्राकट्य हुआ। इस प्रकार पाँच अवयवोंसे युक्त ओंकारका विस्तार हुआ है। इन सभी अवयवोंसे एकीभूत होकर वह प्रणव ‘ॐ’ नामक एक अक्षर हो गया।
(‘ॐ नमः शिवाय’ यह पंचाक्षर-मन्त्र है)।
‘आर्द्रा’ नक्षत्रसे युक्त चतुर्दशीको प्रणवका जप किया जाय तो वह अक्षय फल देनेवाला होता है।
लिंगका ॐकार-मन्त्रसे और वेरका पंचाक्षर-मन्त्रसे पूजन करना चाहिये।
आवाहन, आसन, अर्घ्य, पाद्य, पाद्यांग आचमन, अभ्यंगपूर्वक स्नान, वस्त्र एवं यज्ञोपवीत, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल-समर्पण, नीराजन, नमस्कार और विसर्जन—ये सोलह उपचार हैं।
शरीरके भीतर मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, आज्ञा और सहस्रार—ये छः चक्र हैं।
धर्मपूर्वक उपार्जित धनसे जो भोग प्राप्त होता है, उससे एक दिन अवश्य वैराग्यका उदय होता है।
सत्ययुगमें ध्यानसे, त्रेतामें तपस्यासे और द्वापरमें यज्ञ करनेसे ज्ञानकी सिद्धि होती है; परंतु कलियुगमें प्रतिमा (भगवद्विग्रह)-की पूजासे ज्ञानलाभ होता है।
शक्तिसम्बन्धी वारके स्वामी सोम हैं। कुमारसम्बन्धी दिनके अधिपति मंगल हैं। विष्णुवारके स्वामी बुध हैं। ब्रह्माजीके वारके अधिपति बृहस्पति हैं। इन्द्रवारके स्वामी शुक्र और यमवारके स्वामी शनैश्चर हैं।
वह बार-बार श्रद्धापूर्वक इस तरहके धर्मका अनुष्ठान करता है और बारंबार पुण्यलोकोंमें नाना प्रकारके फल भोगकर पुनः इस पृथ्वीपर जन्म ग्रहण करता है।
‘पूः’ का अर्थ है भोग और फलकी सिद्धि—वह जिस कर्मसे सम्पन्न होती है, उसका नाम पूजा है।
सारा चराचर जगत् बिन्दु-नादस्वरूप है। बिन्दु शक्ति है और नाद शिव।
अव्यक्त आन्तरिक अधिष्ठानरूप गर्भको पुरुष कहते हैं और सुव्यक्त आन्तरिक अधिष्ठानभूत गर्भको प्रकृति।
‘अ’ शिव है, ‘उ’ शक्ति है और मकार इन दोनोंकी एकता है।
वेदज्ञ पुरुष ‘शतरुद्रिय०४’ मन्त्रकी
उन्हें वानरका-सा मुँह देना, कन्याका भगवान्को वरण करना
अपने दोनों नेत्रोंसे मरीचिको, हृदयसे भृगुको, सिरसे अंगिराको, व्यानवायुसे मुनिश्रेष्ठ पुलहको, उदानवायुसे पुलस्त्यको, समान-वायुसे वसिष्ठको, अपानसे क्रतुको, दोनों कानोंसे अत्रिको, प्राणोंसे दक्षको, गोदसे तुमको, छायासे कर्दम मुनिको तथा संकल्पसे समस्त साधनोंके साधन धर्मको उत्पन्न किया।
मनुने वैवाहिक विधिसे अत्यन्त सुन्दरी शतरूपाका पाणिग्रहण किया और उससे वे मैथुनजनित सृष्टि उत्पन्न करने लगे।
तात दधीचि! मैं सर्वेश्वर भगवान् शिवका पूजन करके तुम्हें श्रुतिप्रतिपादित महामृत्युंजय नामक श्रेष्ठ मन्त्रका उपदेश देता हूँ।
महेश्वरकी ईशान, पुरुष, घोर, वामदेव और ब्रह्म—ये पाँच मूर्तियाँ विशेषरूपसे प्रसिद्ध हैं।
वे प्रसिद्ध आठ मूर्तियाँ ये हैं—शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव। शिवजीके इन शर्व आदि अष्टमूर्तियोंद्वारा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, क्षेत्रज्ञ, सूर्य और चन्द्रमा अधिष्ठित हैं।
उन्होंने मार्गशीर्षमासके कृष्णपक्षकी अष्टमीको भैरवरूपसे अवतार लिया था।
भगवान् शम्भुको विष्णुके, मोहिनीरूपका दर्शन प्राप्त हुआ, तब वे कामदेवके बाणोंसे आहत हुएकी तरह क्षुब्ध हो उठे। उस समय उन परमेश्वरने रामकार्यकी सिद्धिके लिये अपना वीर्यपात किया।
ऐसा कहकर अपने तेजःस्वरूप उस अद्भुत अग्निको हाथमें लेकर भगवान् शिवने क्षार समुद्रमें फेंक दिया। वहाँ फेंके जाते ही भगवान् शिवका वह तेज तत्काल एक बालकके रूपमें परिणत हो गया, जो सिन्धुपुत्र जलन्धर नामसे विख्यात हुआ।
शतकोटि कल्पोंमें भी अपने किये हुए कर्मका क्षय नहीं होता।
कर्मसे भक्ति उत्पन्न होती है, भक्तिसे ज्ञान होता है और ज्ञानसे मुक्ति होती है—ऐसा
पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये पृथिव्यादिपंचक कहलाते हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध—ये शब्दादिपंचक हैं। वाक्, पाणि, पाद, पायु तथा उपस्थ—ये वागादिपंचक हैं। श्रोत्र, नेत्र, नासिका, रसना, और त्वक्—ये श्रोत्रादिपंचक हैं। शिर, पार्श्व, पृष्ठ और उदर—ये चार हैं। इन्हींमें जंघाको भी जोड़ ले। फिर त्वक् आदि सात धातुएँ हैं। प्राण, अपान आदि पाँच वायुओंको प्राणादिपंचक कहा गया है।
जो वस्तु जैसी होनी चाहिये, वैसी वह स्वयं नहीं बनती। वैसी बननेके लिये कर्ताकी भावनाका सहयोग होना आवश्यक है। कर्ताकी भावनाके बिना ऐसा होना सम्भव नहीं है, अतः कर्ता सदा स्वतन्त्र होता है।