बंधन : महासमर भाग - १
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पति-पत्नी का परस्पर आकर्षण एक-दूसरे को सम्मान और स्वतन्त्रता देने में है या अपने सुख के लिए अन्य प्राणी को अपनी इच्छाओं का दास बना लेने में? यदि दूसरे पक्ष के सुख के लिए स्वयं को खपा देना परिवार का आधार है तो दूसरे पक्ष की कामना ही क्यों होती है?
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मनुष्य भी अपनी आकांक्षा की तीव्रता में भूल जाता है कि उसका हित किसमें है। वह नहीं जानता कि जिस इच्छा की पूर्ति के लिए वह सिर झुकाये वनैले सूअर के समान दौड़ लगा रहा है, उस इच्छा की पूर्ति उसे कितना सुख देगी और कितना दुख...यदि
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पिता कोई वस्तु दे तो पुत्र सहज उल्लास के साथ साधिकार उस वस्तु को थाम लेता है...न उसे पिता की कृपा के बोझ की अनुभूति होती है, न कोई अपराध-बोध उसे भीतर से गलाता है...किन्तु पुत्र के हाथों...वह भी उसे वंचित करके...
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काम, विवेक के लिए मादक द्रव्य है पुत्र! जब तक काम का आधिपत्य है, विवेक निश्चेष्ट रहता है। काम का ज्वार उतर जाता है तो विवेक बताता है कि वह व्यवहार, वह कामना, वह चिन्तन–सब जैसे उन्मत्त का स्वप्न था।...ऐसे
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अहंकार भी तो अनेक प्रकार का हो सकता है...धन का, बल का, बुद्धि का, चरित्र का, त्याग का...यहाँ तक कि निर्धनता का भी...पर अहंकार तो पतन के मार्ग पर ही ले जायेगा...तो अहंकार से ही मुक्ति पानी होगी... पर अहंकार तो तभी गलेगा, जब मन में तुलना न हो। और तुलना का नाश करने के लिए तृष्णा का नाश करना पड़ेगा। लोभ से पीछा छुड़ाना पडेगा...
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‘पँख उगने से पहले पक्षी अपने शिशुओं को नीड़ के बाहर नहीं जाने देते; और क्षत्रिय राजा ब्रह्मचर्य आश्रम की अवधि पूरी होने तक अपने राजकुमारों को राजप्रासादों में घुसने नहीं देते। कच्ची मिट्टी का भाँड बना कर कुम्भकार उसे तपने के लिए भट्टी में छोड़ देता है। पकने से पहले वह उस पर पानी की बूँद भी नहीं पड़ने देता; और पक जाने पर आकण्ठ जल भी कुम्भ का कुछ बिगाड़ नहीं सकता। ऋषिकुल
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‘नियति चाहे डूबना हो, किन्तु नीति तो संघर्ष ही है।’
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एक बार व्यक्ति, एक भ्रम को सत्य मान ले तो जैसे उसके प्रमाण उसे मिलते ही चले जाते हैं।...
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“मनुष्य तुम्हें वंचित करे, तो उसे अपने अनुकूल बनाओ। प्रकृति वंचित करे तो उसके अनूकूल बनो। वंचक को अनुकूल करने के लिए भौतिक साधन हैं, प्रकृति के अनुकूल हो जाने का नाम आध्यात्मिक साधना है ...।
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आकांक्षा पाप नहीं हैः आकांक्षा दुख और सुख का संगम है, अशान्ति का पर्याय है।” व्यास का स्वर गम्भीर था, “आकांक्षा और शान्ति” दोनों की कामना एक साथ नहीं की जा सकती। प्रकृति के नियम इसकी अनुमति नहीं देते।” “तो क्या व्यक्ति आकांक्षा न करे?” “करे। किन्तु तब न सुख से डरे, न दुख से। शान्ति की कामना न करे। शान्ति न सुख में है, न दुख में। शान्ति तो इन दोनों से निरपेक्ष होने में है।”
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