उसका मन जैसे ठिठक गया…उसके तर्क के पग किस ओर उठ रहे थे?...अर्जन की ओर? भोग की ओर?...पर तर्क रुका नहीं। वह जैसे आज बहुत ही संघर्षशील हो रहा था… अर्जन कोई उपलब्धि नहीं है, पर विसर्जन ही क्या उपलब्धि है? रिक्ति को भरना तो उपलब्धि हो सकती है; किन्तु पूर्ति को रिक्ति में परिवर्तित करना क्या उपलब्धि हुई…और रिक्ति से रिक्त तक जीना भी क्या जीवन हुआ…