“आकांक्षा ही सही! क्या दोष है आकांक्षाओं में? आकांक्षा, पाप है क्या?” “नहीं माँ! आकांक्षा पाप नहीं हैः आकांक्षा दुख और सुख का संगम है, अशान्ति का पर्याय है।” व्यास का स्वर गम्भीर था, “आकांक्षा और शान्ति” दोनों की कामना एक साथ नहीं की जा सकती। प्रकृति के नियम इसकी अनुमति नहीं देते।” “तो क्या व्यक्ति आकांक्षा न करे?” “करे। किन्तु तब न सुख से डरे, न दुख से। शान्ति की कामना न करे। शान्ति न सुख में है, न दुख में। शान्ति तो इन दोनों से निरपेक्ष होने में है।”