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मनुष्य किसी और का नहीं, अपने कर्मों का फल भोगता है। चाहे वह हँसकर भोगे या रोकर। फिर नियति की इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं होता।’’
प्रलय (कृष्ण की आत्मकथा-VIII)
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