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‘तू जिसे बाँधना चाहता है, वह मैं नहीं हूँ। तू मात्र मेरे आवरण को बाँधना चाहता है। ऐसे सभी आवरणों का प्रणेता मैं हूँ। मैं ही शिव का तीसरा नेत्र हूँ। उन्मुक्त मेघों में चमकनेवाली हजारों तड़ित तरंगों की कड़क मैं ही हूँ। महाकाल मेरी भृकुटि पर नृत्य करता है। मैं जब दुर्गा में समाया था तब वह महाकाली हो गई थी। पृथ्वी के अंतरंग में मैं ही धधकता हूँ और वह ज्वालामुखी बन जाती है। टकटकी लगाकर मुझे देख मत। मुझे बाँधना हो तो आगे आ।’ ’’
प्रलय (कृष्ण की आत्मकथा-VIII)
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