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अंतःपुर के गलियारे में थोड़ी दूर बढ़ने के बाद मैंने पीछे मुड़कर देखा, द्रौपदी द्वार पर खड़ी बड़ी कातर दृष्टि से मुझे देख रही थी। मेरे पास इस मोह-बंधन में पड़ने का अवसर नहीं था। मैंने एक दृष्टि उसपर डालने के बाद ही आँखें हटा लीं। फिर भी उसकी आँखें मुझसे चिपकी ही रहीं।
प्रलय (कृष्ण की आत्मकथा-VIII)
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