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यह प्रश्न लगभग वैसा ही है जैसा काम के भस्म हो जाने पर रति ने शिव से पूछा था—‘मेरे भाग्य का सिंदूर मिटाने का आपको क्या अधिकार है?’ शायद उसने यह भी कहा था कि ‘यह सही है कि मेरे पति ने आपकी समाधि भंग करने की कुचेष्टा की थी। उन्होंने अपराध किया था, उसका दंड उन्हें मिला; पर मुझे विधवा होने का दंड क्यों दिया गया?’ शिव निरुत्तर हो गए थे। उन्होंने विवश होकर कहा था—‘तुम ठीक कहती हो, रति! पर तुम विधवा नहीं हुईं। तुम्हारा पति जीवित है। तुम सधवा ही हो और रहोगी; पर मैं उसे शरीर नहीं दे सकता। जीव को अंगी बनाने का सामर्थ्य मुझमें नहीं। अब वह अनंग बनकर सबके मनों में विराजेगा।’
प्रलय (कृष्ण की आत्मकथा-VIII)
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