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‘मैं अनंत काल से प्रवाहित समय की अजस्र धारा हूँ, जो अनंत काल तक इसी प्रकार बहती रहेगी। मैं हजारों साम्राज्यों और सभ्यताओं को निगल चुकी हूँ, निगल रही हूँ और निगलती रहूँगी। यह चंद्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र—सब मेरे वशवर्ती हैं। मेरी ही गति का एक अंश लेकर यह पृथ्वी गतिवान् हुई है। वह अपने दिन-रात कच्चे सूत से सदैव मुझे नापने की असफल चेष्टा करती है और स्वयं एक दिन मेरी धारा में बह जाती है। उसका अस्तित्व तक भी शेष नहीं रहता। मैं ही संसार के सारे जड़-चेतन और स्थावर-जंगम की जीवन अवधि निश्चित करती हूँ। उसके बाद ही उसे इस अवधि रेखा के साथ बहा ले जाती हूँ। फिर भी मैं अदृश्य हूँ। तुम्हें केवल दिखाई देता है ...more
प्रलय (कृष्ण की आत्मकथा-VIII)
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