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यही दुर्भाग्य है मनुष्य का। यदि शांति की तरह युद्ध भी दोनों के चाहने पर होता तो संसार में उसकी संख्या सौ में से मात्र एक-दो रह जाती—और वह भी अखाड़े के मल्लयुद्ध की तरह दर्शनीय होता।’’
प्रलय (कृष्ण की आत्मकथा-VIII)
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