इतना तो हमने रोकना चाहा; पर महाविनाश होकर ही रहा। संसार सोचता था कि सबकुछ मेरे हाथ में था; पर वास्तविकता यही थी कि मेरे हाथ में कुछ भी नहीं था। शायद मैं भी नहीं। ऐसा लगता है कि हम सब किसी महा नट के हाथ की कठपुतलियाँ हैं। जैसा वह नाच नचाता है वैसा हम नाचते हैं। फिर क्या होगा, हम यह सोचते क्यों हैं?