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कहाँ रह गया तुम्हारा ईश्वरत्व? किस भ्रम में तुम पड़े थे? और अभी क्या देखते हो! तुम्हारी महान् कृति द्वारका शीघ्र ही समुद्र में समा जाएगी। इसे समुद्र वैसे ही निगल जाएगा जैसे महाकाल सृष्टि निगल जाता है।’
प्रलय (कृष्ण की आत्मकथा-VIII)
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