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शायद जीवन की अंतिम परिणति यही है। सारा तू-तू, मैं-मैं, मेरा-तेरा, अपना-पराया, छीना-झपटी एक जिद्दी बालक की तरह छैलाकर सो गई। लगता है, प्रकृति हमें जन्म देते ही सपनों के खिलौने थमा देती है और जीवन भर हम उन्हीं खिलौनों से खेलते रहते हैं। वे ही सपने हमारे अस्तित्व की पहचान बनते हैं। तृष्णा और आकांक्षाएँ इन सपनों में रंग भरती हैं। तब मनुष्य उनमें और खो जाता है। उनसे उलझता है, खेलता है, रोता है, गाता है; पर जब साँसों का सिलसिला थम जाता है, जब शिव चला जाता है तब मात्र शव रह जाता है—और तब आती है एक अंतहीन शांति।
प्रलय (कृष्ण की आत्मकथा-VIII)
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