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यही तो हिंसा की अंतिम परिणति होती है। ऐसे महायुद्धों के बाद कहीं भी किसीको विजय पर्व मनाते हुए न देखा और न सुना। यह तो पश्चात्ताप और शाप पर्व है।’’
प्रलय (कृष्ण की आत्मकथा-VIII)
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