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फिर मरनेवाला तो शरीर है, आत्मा कहाँ मरता है! वह तो सृष्टि के आदि से है और सृष्टि के अंत तक रहेगा। बीच-बीच में वह अपना शरीर रूपी वस्त्र उतारता रहता है और नया जीवन चलता रहता है।
प्रलय (कृष्ण की आत्मकथा-VIII)
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