‘‘न कुछ पुण्य है और न कुछ पाप है। हमारे भीतर अहंकार के आस्तरण पर कुंडली मारकर बैठा एक आक्रोश का साँप है। जब वह फुफकारता है तब पापकर्मों की ज्वाला उगलता है। पहले हमारा विवेक जलता है तथा फिर उसी आग में औरों को भी जलाता है। जब वह साँप फिर शांत होकर सो जाता है तब हम पश्चात्ताप के आँसुओं में डूब जाते हैं।’’