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दुःख के चरम बिंदु पर ही अपनी नग्न वास्तविकता का आभास होता है। इसके विपरीत सुख एक परदा आँखों पर डाल देता है; तब औरों को कौन कहे, व्यक्ति स्वयं को भी नहीं देख पाता।
प्रलय (कृष्ण की आत्मकथा-VIII)
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