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मैं अनुभव करता हूँ कि युद्ध में मोहग्रस्त अर्जुन के समक्ष मेरे मुख से जो ‘गीता’ निकली थी, उसके अनेक अंशों को मैं जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में जीता रहा हूँ। इसलिए वह मेरा मात्र जीवन दर्शन नहीं है वरन् मेरे भोगे गए यथार्थ के टुकड़ों का संग्रह है।
लाक्षागृह (कृष्ण की आत्मकथा -IV)
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